निर्णय विधि
निर्णय विधि(Case law),जिसे लोक विधि(Common law) के पर्यायवाची शब्द रूप में भी उपयोग किया जाता है, ऐसी विधि है जो संविधान, विधियों या विनियमों पर आधारित न होकर पिछले मामलों के न्यायिक निर्णयों(नज़ीरों; precedents) पर आधारित होती है। निर्णय विधि में न्यायालयों या समकक्ष अधिकरणों द्वारा निर्णीत किसी मामले के विस्तृत तथ्यों का उपयोग किया जाता है। निर्णीतानुसरण सिद्धांत या स्टेयर डेसीसिस सिद्धांत (Stare decisis; लैटिन वाक्यांश "निर्णय को स्थिर रहने दें") के अनुसार न्यायाधीश पिछले श्रेष्ठ निर्णयों का अनुसरण करने के लिए बाध्य होते हैं।
न्यायिक निर्णयों की व्याख्याएँ विधायी निकायों द्वारा अधिनियमित सांविधिक विधि(या सांविधिक कानून; statutory law) और विधि द्वारा स्थापित कार्यकारी एजेंसियों द्वारा निर्मित नियामक विधि से भिन्न होती हैं। कुछ मामलों- उदाहरणार्थ आपराधिक कार्यवाही या पारिवारिक कानून- में, विचाराधीन निर्णयों में निर्णय विधि लागू की जा सकती है।
लोक विधि प्रणाली वाले देशों (यूनाइटेड किंगडम, संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड) में, इसका उपयोग विशिष्ट अपीलीय न्यायालयों, प्रारंभिक न्यायालयों, एजेंसी अधिकरणों और न्यायिक कार्यों का निर्वहन करने वाले अन्य निकायों के न्यायिक निर्णयों में किया जाता है।
लोक विधि प्रणाली वाले देशों में निर्णय विधि
लोक विधि परंपरा में न्यायालय किसी मामले पर लागू होने वाली विधि का फ़ैसला विधि के निर्वचन और पूर्व निर्णय के आधार पर यह लिखते हुए करते हैं कि पिछले मामले कैसे और क्यों निर्णीत किए गए। सिविल विधि वाली अधिकांश विधिक प्रणालियों के विपरीत, लोक विधि प्रणाली में निर्णीतानुसरण के सिद्धांत का अनुसरण किया जाता है, जिसके अनुसार अधिकांश न्यायालय समान मामलों में किए गए अपने पिछले निर्णयों से बंधे हुए होते हैं। उक्त सिद्धान्त के अनुसार, सभी निचले न्यायालयों को उच्चतर न्यायालयों के पिछले निर्णयों के अनुरूप निर्णय करने चाहिए। उदाहरणार्थ, इंग्लैंड में उच्च न्यायालय और अपीलीय न्यायालय प्रत्येक अपने पिछले निर्णयों से बंधे होते हैं। किन्तु 1966 के बाद से यूनाइटेड किंगडम का सर्वोच्च न्यायालय अपने पहले के निर्णयों से भिन्न मत अपना सकता है, हालांकि व्यवहार में यह शायद ही कभी होता है। अपने ही पूर्व निर्णय को उलटने का एक उल्लेखनीय उदाहरण आर बनाम जोगी{R v Jogee(2016) UKSC 8} का मामला है, जब यूनाइटेड किंगडम के सर्वोच्च न्यायालय ने यह अवधारित किया कि स्वयं उसने तथा इंग्लैंड व वेल्स के अन्य न्यायालयों ने लगभग 30 वर्षों तक एक पूर्व निर्णय का दुरुपयोग किया है।
सामान्यतया, अभिलेख के निचले न्यायालयों(the lower courts of record) पर उच्च न्यायालयों का सीधा नियन्त्रण नहीं होता है। वे निचली अदालतों के निर्णयों को किसी भी समय रद्द करने के लिए स्वयं अपनी पहल पर(सुआ स्पोंटे, sua sponte या सूओ मोटू, suo motu या सूओ मोटो, suo moto) नहीं कर सकते हैं। सामान्यतः निचले न्यायालय के आदेशों(जिनमें स्थापित निर्णय विधि के स्पष्ट उल्लंघन वाले आदेश भी सम्मिलित हैं) के विरुद्ध उच्च न्यायालयों में अपील करने का भार वादकारियों पर होता है। यदि किसी मामले में कोई न्यायाधीश पूर्व निर्णय के विरुद्ध जाकर निर्णय करता है और उस मामले में अपील नहीं की जाती है तो उस न्यायाधीश का निर्णय मान्य होगा।
एक निचले न्यायालय को भले ही यह लगता हो कि कोई पूर्व निर्णय अन्यायपूर्ण है किन्तु वह एक बाध्यकारी पूर्व निर्णय के विरुद्ध जाकर निर्णय नहीं कर सकता है। वह केवल आशा व्यक्त कर सकता है कि उच्चतर न्यायालय या विधायिका पूर्व निर्णय द्वारा निर्धारित व्यवस्था में सुधार करेंगे। यदि न्यायालय यह मानता है कि विधिक विचारों के विकास के फलस्वरूप कोई पूर्व निर्णय अनुपयोगी हो गया है और वह इससे बचते हुए विधि के विकास में मदद करना चाहता है तो वह या तो यह अवधारित कर सकता है कि वह पूर्व निर्णय उसके बाद के पूर्व निर्णय के साथ असंगत है या वह प्रश्नगत मामले और पूर्व निर्णय के मामले के तथ्यों के बीच की भिन्नता को स्पष्ट कर सकता है। कुछ जगहों पर विचारण न्यायालय को अपने निर्णय के विरूद्ध अपील करने की अनुशंसा करने का अधिकार दिया जाता है। यदि वह निर्णय अपील में जाता है तो अपीलीय न्यायालय को पूर्व निर्णय, और उस मामले, दोनों की समीक्षा करने का अवसर होगा। संभवतः उच्चतर न्यायालय एक नई नज़ीर कायम करके पिछले पूर्व निर्णय द्वारा निर्धारित विधि व्यवस्था को समाप्त कर दे। यह प्रक्रिया अनेक बार हो सकती है क्योंकि किसी मामले में अनेक बार अपील हो सकती है। लॉर्ड डेनिंग ने विबन्ध(estoppel) एस्ट्रोपेल की अवधारणा के विकास में इस विकासवादी प्रक्रिया के उपयोग का प्रसिद्ध उदाहरण प्रस्तुत किया है{सेंट्रल लंदन प्रॉपर्टी ट्रस्ट लिमिटेड बनाम हाई ट्रीज हाउस लिमिटेड [1947] KB 130}।
निर्णय विधि के विकास की प्रक्रिया
सिविल और लोक विधि परंपराओं में निर्णय विधि की भूमिका भिन्न-भिन्न होने के कारण इनके न्यायालयों द्वारा निर्णय देने के तरीक़े में भी अंतर आ जाता है। लोक विधि के न्यायालय सामान्यतः पिछले प्रासंगिक निर्णयों और प्रश्नगत मामले से संबन्धित विधि, दोनों को उद्धृत करते हुए अपने निर्णय के पक्ष में विस्तृत रूप से विधिक तर्क प्रस्तुत करते हैं और प्रायः व्यापक विधिक सिद्धान्तों की व्याख्या करते हैं। किसी निर्णय में किया गया आवश्यक विश्लेषण (जिसे ratio decidendi कहा जाता है), अन्य न्यायालयों के लिए एक नज़ीर बन जाता है परन्तु ऐसे विश्लेषण, जो प्रश्नगत मामले के निर्धारण के लिए पूर्णतया आवश्यक नहीं हैं, ओबिटर डिक्टा(obiter dicta) कहलाते हैं। ओबिटर डिक्टा अन्य न्यायालयों के लिए एक प्रेरक प्रमाण(persuasive authority) के रूप में तो कार्य करती हैं लेकिन तकनीकी रूप से बाध्यकारी नहीं होती हैं। इसके विपरीत, सिविल विधि क्षेत्राधिकार के न्यायालयों के निर्णय सामान्यतः छोटे होते हैं और उनमें केवल सम्बन्धित विधि का उल्लेख होता है। इस अंतर का कारण यह है कि सिविल विधि वाले क्षेत्रों में इस परंपरा का पालन किया जाता है कि निर्णय पढ़ने वाला व्यक्ति निर्णय और संबन्धित विधि को तर्कसंगत रूप से समझ सके।
कुछ बहुलवादी विधि प्रणालियों की कुछ विधियाँ, जैसे स्कॉटलैंड की स्कॉट्स विधि और क्यूबेक व लुइसियाना की सिविल विधि क्षेत्राधिकार की कुछ विधियाँ, लोक विधि और सिविल विधि प्रणाली के किसी एक वर्ग में सटीक रूप से नहीं रखी जा सकती हैं। भले ही इस प्रकार की प्रणालियाँ एंग्लो-अमेरिकन लोक विधि परंपरा से काफी प्रभावित हों परन्तु उनकी सारवान विधि की जड़ें सिविल विधि परंपरा में दृढ़तापूर्वक जमी हुई हैं।इस प्रकार की प्रणाली को विधि की मिश्रित प्रणाली भी कहा जाता है।
निर्णय विधि के विकास में सिविल विधि के आचार्यों की तुलना में लोक विधि के आचार्यों की भूमिका बहुत कम रही है। चूंकि सिविल विधि परंपराओं में न्यायालय के फैसले ऐतिहासिक रूप से संक्षिप्त होते हैं और औपचारिक रूप से उन पर नज़ीर कायम करने का भार नहीं होता है, इसलिए सिविल विधि परंपराओं में विधि की व्याख्या न्यायाधीशों के बजाय अधिकांशतः शिक्षाविदों द्वारा की जाती है; ऐसी व्याख्या को आधिकारिक मत(doctrine) कहा जाता है और इसे ग्रंथों या पत्रिकाओं(जैसे फ्रांस में रेक्यूइल डलोज़, Recueil Dalloz) में प्रकाशित किया जा सकता है। ऐतिहासिक रूप से, लोक विधि परंपरा के न्यायालय विधि के विद्वानों के मत पर बहुत कम निर्भर करती थीं; इस प्रकार, बीसवीं शताब्दी के मोड़ पर, किसी विधिक निर्णय में (शायद कोक और ब्लैकस्टोन जैसे प्रमुख न्यायाधीशों के अकादमिक लेखन को छोड़कर) किसी अकादमिक लेखक के मत का उल्लेख मिलना दुर्लभ था। आजकल अकादमिक लेखकों को बहस के समय और निर्णय में प्रेरक प्रमाण के रूप में उद्धृत किया जाता है। प्राय: उनका हवाला या तो तब दिया जाता है जब न्यायाधीश के विचार में अन्य न्यायालयों ने उस मत को उस समय तक नहीं अपनाया है या जब न्यायाधीश का मानना है कि उसका महत्व निर्णय विधि की तुलना में अधिक है। इस प्रकार सिविल विधि क्षेत्राधिकार में लंबे समय से मान्य एक दृष्टिकोण को लोक विधि प्रणाली भी अपना रही है।
किसी मामले को तय करने के लिए न्यायाधीश विभिन्न प्रकार के प्रेरक प्रमाणों का उल्लेख कर सकते हैं। गैर-बाध्यकारी स्रोतों में कॉर्पस ज्यूरिस सिकुंडम(Corpus Juris Secundum) और इंग्लैंड के हाल्सबरी के कानून(Halsbury's Laws of England) जैसे विधिक विश्वकोशों(legal encyclopedias) अथवा विधि आयोग(Law Commission) या अमेरिकी विधि संस्थान (American Law Institute) द्वारा प्रकाशित कृतियों को व्यापक रूप से उद्धृत किया जाता है। हाईवे कोड(the Highway Code) जैसे कुछ निकायों को प्रेरक प्रमाण या वैसे ही वैधानिक प्रभाव वाली सलाह देने की वैधानिक शक्तियां प्रदान की गई हैं।