उदयनाचार्य

एक हिंदू तर्कशास्त्री।
(न्यायमुक्तावली से अनुप्रेषित)

उदयनाचार्य प्रसिद्ध नैयायिक तथा न्याय-वैशेषिक दर्शन के मूर्धन्य आचार्य। उन्होने नास्तिकता के विरोध में ईश्वरसिद्धि के लिए आज से हजारों वर्ष पूर्व न्यायकुसुमांजलि नामक एक अत्यन्त पाण्डित्यपूर्ण ग्रन्थ लिखा।

परिचय संपादित करें

ये मिथिला के निवासी थे, जहाँ 'करियौन' नामक ग्राम में, इनके वंशज आज भी निवास करते हैं। ये अक्षपाद गौतम से आरंभ होनेवाली प्राचीन न्याय की परंपरा के अंतिम प्रौढ़ न्याययिक माने जाते हैं। अपने प्रकांड, पांडित्य, अलौकिक शेमुषी तथा प्रोढ़ तार्किकता के कारण ये 'उदयनाचार्य' के नाम से ही प्रख्यात हैं। इनका आविर्भावकाल दशम शतक का उत्तरार्ध है। इनकी 'लक्षणावली' का रचनाकाल ९०६ शक (९८४ ई.) ग्रंथ के अंत में निर्दिष्ट है।

रचनाएँ संपादित करें

इन्होंने प्राचीन न्यायग्रंथों की भी रचना की है जिनमें इनकी मौलिक सूझ तथा उदात्त प्रतिभा का पदे पदे परिचय मिलता है। इनकी प्रख्यात कृतियाँ ये हैं-

  • (२) तात्पर्यपरिशुद्धि - वाचस्पति मिश्र द्वारा रचित 'न्यायवार्तिक' की व्याख्या तात्पर्यटीका का प्रौढ़ व्याख्यान जिसका दूसरा नाम 'न्यायनिबंध' है;
  • (४) बोधसिद्धि - जो न्यायसूत्र की वृत्ति है जिसका प्रसिद्ध अभिधान 'न्यायपरिशिष्ट' है;
  • (५) आत्मतत्वविवेक - जिसमें बौद्ध विज्ञानवाद तथा शून्यवाद के सिद्धांतों का विस्तार से खंडन कर ईश्वर की सिद्धि नैयायिक पद्धति से की गई है। यह उदयन की कृतियों में विशेष प्रौढ़ तथा तर्कबहुल माना जाता है। रघुनाथ शिरोमणि, शंकर मिश्र, भगीरथ ठक्कुर तथा नारायणाचार्य आत्रेय जैसे विद्वानों की टीकाओं की सत्ता इस ग्रंथ की गूढ़ार्थता का प्रत्यक्ष प्रमाण है। परंतु उदयन की सर्वश्रेष्ठ कृति है।
  • (६) न्यायकुसुमांजलि जिसमें ईश्वर की सिद्धि (अर्थात ईश्वर है - इसकी सिद्धि) नाना उदात्त तर्कों और प्रौढ़युक्तियों के सहारे की गई है। ईश्वरसिद्धि विषयक ग्रंथों में यह संस्कृत के दार्शनिक साहित्य में अनुपम माना जाता है।

ध्यान देने की बात है कि न्यायमत में जगत् के कर्तव्य से ईश्वर की सिद्धि मानी जाती है। बौद्ध नितांत निरीश्वरवादी हैं। षड्दर्शनों में भी ईश्वरसिद्धि के अनेक प्रकार हैं। इन सब मतों का विस्तृत समीक्षण कर आचार्य उदयन ने अपने मत का प्रौढ़ प्रतिष्ठापन किया है। इनके विषय में यह किंवदन्ति प्रसिद्ध है कि जब इनके असमय पहुँचने पर पुरी में जगन्नाथ जी के मंदिर का फाटक बंद था, तब इन्होंने ललकारकर कहा था कि ऐश्वर्य के मद में मत्त आप मेरी अवज्ञा कर रहे हैं, किन्तु (निरीश्वरवादी) बौद्धों के उपस्थित होने पर आपकी स्थिति मेरे अधीन है।

ऐश्वर्य मद मत्तोऽसि मामवज्ञाय वर्तसे
उपस्थितेषु बौद्धेषु मदधीना तव स्थिति:॥

सुनते हैं, फाटक तुरंत खुल गया और उदयन ने जगन्नाथ जी के सद्य: दर्शन किए। जगन्नाथ मंदिर के पीछे बनने के कारण किंवदंती की सत्यता असिद्ध है।

प्रौढ़ नैयायिक उदयनाचार्य ने ईश्वर-सिद्धि के ही लिए बनाए अपने ग्रंथ 'न्यायकुसुमांजलि' को पूरा करके उपसंहार में यही लिखा है कि वे साफ-सच्चे और ईमानदार नास्तिकों के लिए ही वही स्थान चाहते हैं जो सच्चे आस्तिकों को मिले। उनने प्रार्थना के रूप में अपने भगवान से यही बात बहुत सुंदर ढंग से यों कही है -

इत्येवं श्रुतिनीति संप्लवजलैर्भूयोभिराक्षालिते
येषां नास्पदमादधासि हृदये ते शैलसाराशया:।
किन्तु प्रस्तुतविप्रतीप विधयोऽप्युच्चैर्भवच्चिन्तका:
काले कारुणिक त्वयैव कृपया ते भावनीया नरा:।

इसका आशय यही है कि 'कृपासागर, इस प्रकार वेद, न्याय, तर्क आदि के रूप में हमने झरने का जल इस ग्रंथ में प्रस्तुत किया है और उससे उन नास्तिकों के मलिन हृदयों को अच्छी तरह धो दिया भी है, ताकि वे आपके निवास योग्य बन जाएँ। लेकिन यदि इतने पर भी आपके यहाँ स्थान न मिले, तो हम यही कहेंगे कि वे हृदय इस्पात या वज्र के हैं। लेकिन यह याद रहे कि प्रचंड शत्रु के रूप में वे भी तो आपको पूरी तौर से आखिर याद करते ही हैं। इसलिए उचित तो यही है कि समय आने पर आप उन्हें भी भक्तों की ही तरह संतुष्ट करें।'

समुच्चय सिद्धान्त (सेट थिअरी) संपादित करें

उदयनाचार्य ने 'जातिबाधक' एवं 'अनावस्था' आदि सिद्धान्त विकसित किये जो आधुनिक समुच्चय सिद्धान्त के कुछ पक्षों का पूर्वाकलन जैसे हैं। किशोर कुमार चक्रवर्ती के अनुसार -

In the third part we have shown how the study of the so-called 'restrictive conditions for universals' in Navya-Nyaya logic anticipated some of the developments of modern set theory. [...] In this section the discussion will center around some of the 'restrictive conditions for universals (jatibadhaka) proposed by Udayana. [...] Another restrictive condition is anavastha or vicious infinite regress. According to this restrictive condition, no universal (jati) can be admitted to exist, the admission of which would lead to a vicious infinite regress. As an example Udayana says that there can be no universal of which every universal is a member; for if we had any such universal, then, by hypothesis, we have got a given totality of all universals that exist and all of them belong to this big universal. But this universal is itself a universal and hence (since it cannot be a member of itself, because in Udayana's view no universal can be a member of itself) this universal too along with other universals must belong to a bigger universal and so on ad infinitum. What Udayana says here has interesting analogues in modern set theory in which it is held that a set of all sets (i.e., a set to which every set belongs) does not exist.

सन्दर्भ ग्रन्थ संपादित करें

  • सतीशचन्द्र विद्याभूषण: हिस्ट्री ऑव इंडियन लाजिक (कलकत्ता, १९२१);
  • दिनेशचंद्र भट्टाचार्य : हिस्ट्री ऑव नव्य न्याय इन मिथिला (मिथिला संस्कृत इंस्टिटयूट, दरभंगा, १९५८)

इन्हें भी देखें संपादित करें

सन्दर्भ संपादित करें

बाहरी कड़ियाँ संपादित करें