अवसर्पिणी

कालचक्र का अवरोही भाग जिसमें समय के साथ सभी अच्छी वस्तुओं में हीनता आती जाती है।
(पंचम काल से अनुप्रेषित)

अवसर्पिणी, जैन दर्शन के अनुसार सांसारिक समय चक्र का आधा अवरोही भाग है जो वर्तमान में गतिशील है। जैन ग्रंथों के अनुसार इसमें अच्छे गुण या वस्तुओं में कमी आती जाती है। इसके विपरीत उत्सर्पिणी में अच्छी वस्तुओं या गुणों में अधिकता होती जाती है।

जैन कालचक्र

जैन दर्शन में काल चक्र (कल्पकाल) को दो भागों में बाटा जाता है–  उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी। यह निरंतर एक के बाद एक आवर्तन करते हैं। [1]

आरोही अवधि (उत्सर्पिणी) के दौरान भरत और ऐरावत क्षेत्रों में रहने वाले प्राणियों की उम्र, शक्ति, कद और खुशी में वृद्धि होती रहती है। इसके विपरीत अवरोही अर्ध चक्र (अवसर्पिणी) में चौतरफा गिरावट होती है। प्रत्येक अर्ध चक्र को छह अवधि में बाँटा गया है। अवसर्पिणी के छः भागों का वर्णन इस प्रकार है :-[2]

  1. सुखमा-सुखमा [(बहुत अच्छा) (सुख ही सुख)]
  2. सुखमा [(अच्छा)(सुख ज्यादा और दु:ख का आभास मात्र)]
  3. सुखमा–दुःखमा [(अच्छा बुरा) (सुख ज्यादा और दु:ख कम)
  4. दुःखमा–सुखमा [(बुरा अच्छा) (दु:ख ज्यादा और सुख कम) : २४ (चौबीस) तीर्थंकरों जन्म इसी युग में होता है।
  5. दुःखमा [(बुरा) (दु:ख ज्यादा और सुख का आभास मात्र)]
  6. दुःखमा–दुःखमा [(बहुत बुरा)(दुःख ही दुःख)]

अवसर्पिणी के पांचवें काल (दुखमा) को आम भाषा में पंचम काल कहा जाता है।[3] जैन ग्रंथों के अनुसार वर्तमान में यह ही काल चल रहा है जो तीर्थंकर महावीर की मोक्ष (निर्वाण) प्राप्ति के ३ वर्ष और साडे आठ माह बाद वर्तन में आया था।[2] इस अवधि के अंत में, मनुष्य की अधिक से अधिक ऊंचाई एक हाथ, और उम्र बीस साल की रह जाएगी।[3] भरत चक्रवर्ती ने इस काल से संबंधित १६ स्वप्न देखे थे। इन स्वप्नों का फल तीर्थंकर ऋषभनाथ द्वारा समझाया गया था।[4]

प्रशस्ति पत्र

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  1. Samantabhadra 2016, पृ॰ 71.
  2. Samantabhadra 2016, पृ॰ 72.
  3. Champat Rai Jain 1935, पृ॰ 51.
  4. Champat Rai Jain 1935, पृ॰ 48-50.
  • Samantabhadra, Ācārya (2016), Ācārya Samantabhadra’s Ratnakarandaka-śrāvakācāra: The Jewel-casket of Householder’s Conduct, Vikalp Printers, आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9788190363990, मूल से 18 अक्तूबर 2016 को पुरालेखित, अभिगमन तिथि 3 अप्रैल 2017 |ISBN= और |isbn= के एक से अधिक मान दिए गए हैं (मदद)
  • Champat Rai Jain (1935), Risabhadeva The Founder of Jainism, The Jain Mittra Mandal