पराप्राकृतिक संवाद व्यक्ति का स्वयं, या किसी माध्यम द्वारा, चेतना की विशेष अवस्था में पराप्राकृतिक तत्वों, जैसे देवी-देवता, से मानसिक संपर्क में होने वाला अनुभव है, और इसका परिणाम ज्ञान प्राप्ति, समस्या समाधान या कोई विशेष अनुभूति देखा गया है।[1][2][3] यह इलहाम या श्रुति का आधार है, और दुनिया के अनेक धर्मों में देखे गए हैं।[4] इस अतार्किक (प्रतिभा या प्रज्ञामूलक) आयाम (देखें भारतीय दर्शन) को हिंदुओं में ज्ञान, इसाईयों में नौसिस, बौद्धों में प्रज्ञा, तथा इस्लाम में मारिफ नाम से जानते हैं।[5] कुछ लोगों का मानना है कि पराप्राकृतिक तत्वों से संवाद की परम्परा लम्बे समय से रही है।[6][7] मान्यता है कि यह संवाद, चेतना की विशेष अवस्थाओं,[8][9] में संभव हैं, और चेतना की इन ऊँचाइयों में जाने की लालसा का प्रमाण तपस्या की अनेकों पद्धतियाँ हैं।[10][11] पराप्राकृतिक संवाद का लोकहित में प्रसार करना देवकार्य माना गया।[12][13]

रामकृष्ण परमहंस बचपन से ही चेतना की विशेष अवस्था में जाना शुरू हो गए थे


मनोवैज्ञानिक पिंकर सहज या अतार्किक मानसिक अनुभव को कोरा रूढ़ीवाद समझते हैं।[14] पर ऐसे वैज्ञानिक भी हैं जिनके लिए यह मानसिक अनुभव चुनौती हैं।[15] मन में ऐसे बदलाव का आधार संज्ञान की दो प्रणालियों, तार्किक और अतार्किक, में देखा जा सकता है।[16]


सहज ज्ञान

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विलिअम जेम्स लेक्चर में ओबेयेसेकेरे ने गौतम बुद्ध की तपस्या को अतार्किक आयाम से जोड़ा था।

ओबेयेसेकेरे के अनुसार गौतम बुद्ध की साधना एक पराप्राकृतिक संवाद की पद्धति का रूप है जो उस समय भारत में प्रचलित थी।[17] इस पद्धति में, ओबेयेसेकेरे कहते हैं, महात्मा बुद्ध को ज्ञान प्राप्ति अतार्किक आयाम द्वारा हुई, परन्तु आधुनिक विचारक इसे तार्किक आयाम से जोड़ते हैं। महात्मा बुद्ध के समय भी और आज भी, ओबेयेसेकेरे आगे लिखते हैं, भारत भूमि में पराप्राकृतिक तत्वों से संवाद का अतार्किक आयाम मुख्य था, जिसमें देवी-देवता की तपस्या, दैवीय तत्व द्वारा व्यक्ति में मूर्तरूप लेना, तथा उससे ज्ञान प्राप्ति।

शिमेल का सूफ़ीवाद के सन्दर्भ में “अक्ल” और “इश्क” में भेद, संज्ञान के दो आयामों, क्रमशः बौद्धिक और सहज ज्ञान, को उजागर करता है।[18] उन्होंनें आपनी पुस्तक में विस्तार से लिखा है कि दार्शनिक “अक्ल” (तार्किक आयाम) को ज्ञान का स्रोत मानते हैं, किन्तु सूफी संत रूमी ने खुदा से “इश्क” या खुदा की पूजा (अतार्किक आयाम) को ज्ञान प्राप्ति में ज्यादा महत्त्व दिया, और अक्ल को इसका पूरक माना।

“धुर की बाणी आई” की धुन में सिख धर्म के अनुयायों और अन्य लोगों को पराप्राकृतिक संवाद का संकेत है, और आद गुरु ग्रन्थ साहिब इसी का संग्रह है।[19] ये संवाद सिखों के पहले गुरु श्री गुरु नानक देव जी से आरंभ हुए, अन्य संतो की तरह, इन्होंने भी सहज भाव को महत्त्व दिया।[20]

स्वामी रामकृष्ण परमहंस की जीवनी में ऐसे प्रसंगों का चित्रण बखूबी हुआ है।[21] उस समय के प्रबुद्ध वर्ग ने ग्रामीण परिवेश की इस सहज धारा, अलौकिक तत्वों, कालि, हनुमान, राम, आदि से संवाद, को अपनाने में रुचि नहीं दिखाई, किन्तु धीरे-धीरे इस का प्रसार होता गया।

इस सन्दर्भ में प्रमात्रा भौतिकी के जनक जार्ज सुदर्शन का वक्तव्य सटीक है, जिन लोगों का देवता में विश्वास है, देव वाणी हुई, “देओ वोलेंते”, और (व्यक्ति या समूह में) अनिश्चितता समाप्त।[22] सुदर्शन के लेख में पराप्राकृतिक संवाद से जुड़े जटिल प्रश्नों की जनमानस की भाषा में अभिव्यक्ति एवं गूढ़ व्याख्या दोनों हैं।



नृविज्ञान के दस्तावेज़

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गुरु नानक देव, बाला, और मरदाना भगवान विष्णु के मतस्यावतार निहारते

नृविज्ञान के दस्तावेज़, जिनका लगातार विस्तार हो रहा है, आम लोगों में व्याप्त पराप्राकृतिक संवाद की मान्यता एवं इसके दैनिक जीवन में योगदान, के परिचायक हैं।[23][24][25] गुर या चेले द्वारा किसी देवी, देवता, भूत, प्रेत, या मृत-आत्मा से संवाद स्थापित करना (देखें प्लांचेट)लोगों के दैनिक जीवन में आने वाली अनेक समस्याओं के समाधान ढूँढने से जुड़ा है।[26] लोगों में विश्वास है कि कोई पराप्राकृतिक शक्ति व्यक्ति में प्रवेश कर उसकी चेतना, व्यवहार तथा शरीर में अस्थायी परिवर्तन लाती है।[27] देव या भूत किसी का भी व्यक्ति की चेतना पर कब्ज़ा हो सकता है, और इसका निदान ज़रूरी समझा जाता है, निदान के लिए पुरोहित आता है, जिसमें उन आत्माओं को बुलाया जाता है जो निदान करे।[28]






मनोवैज्ञानिक पक्ष

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इंगलैंड की मशहूर मीडियम श्रीमती पाईपर।

आधुनिक मनोविज्ञान के जनक विलियम जेम्स ने धर्म और उससे जुड़े पराप्राकृतिक संवाद और इससे जुड़े अन्य विचारों (देखें परामनोविज्ञान) को मनोविज्ञान का क्षेत्र माना, विशेषकर मीडियमस या माध्यम व्यक्तियों के संवादों का अध्ययन।[29] जेम्स के इन विचारों पर प्रश्न भी उठे।[30] माध्यम (स्त्री या पुरूष) किसी परिवार के सदस्यों का उनके निकट संबंधी, जीवित या मृत, से संवाद स्थापित करता है।[31]

कार्ल युंग के अध्ययनों में पराप्राकृतिक तत्वों से संवाद का विस्तार में उल्लेख है।[32] कभी-कभी व्यक्ति के आत्म की जगह कोई पराप्राकृतिक तत्व ले लेता है, (देखें भूत-प्रेत का अपसारण) साधारण भाषा में इसे दैवी आवेश या भूत लगना कहते हैं।[33] परन्तु मनोचिकित्सक इसे मनोरोग की श्रेणी में रखते हैं।[34] ऐसे व्यक्तियों में कभी एक व्यक्तितव प्रभावी होता है, तो कभी दूसरा।[35] परसिंगर के प्रयोगों का भी पराप्राकृतिक सम्वाद से संबंध है, इनकी परिकल्पना है कि चेतना का स्थान मस्तिष्क से अलग है, और इसमें भू-चुम्बकीय क्षेत्र का महत्त्व है।[36] इन प्रयोगों में देखा गया है कि कुछ व्यक्ति दूर की घटना की जानकारी, बिना किसी भौतिक माध्यम के, प्राप्त कर सकते हैं।[37] ब्लूम ने इन खोजों का उल्लेख मनोविज्ञान के वार्षिक रिव्यू में किया।[38]






पवित्र रसायन

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आत्मा की बेल, अयाहुआस्का के पेय की तैयारी।
 
एलएसडी रसायन का आणविक ढांचा।

कुछ ऐसे प्राकृतिक और कृत्रिम रसायन हैं जिनका लम्बे समय से दुनिया के सभी भागों में धार्मिक अनुष्ठानों में स्वर्ग के तत्वों से संवाद के सन्दर्भ में वर्णन आता है।[39] एक रसायन अयाहुआस्का, इस संबंध को दर्शाता है, अया का मतलब आत्मा और हुआस्का बेल है, अर्थात आत्मा की बेल।[40] परन्तु इन रासायनों के नारकीय अनुभवों के लिए प्रयोग देख, ऐसे ही एक रसायन एलएसडी के अविष्कारक हाफमान का कहना है कि इनका सेवन पवित्र और धार्मिक अनुष्ठानों में ही होना चाहिए, जैसा किसी समय यूनान में होता था।[41] ग्रौफ ने एलएसडी के निदानात्मक प्रयोग सैकड़ों लोगों पर किये, और कई पराप्राकृतिक संवादों का विस्तार में वर्णन किया।[42]







इन्हें भी देखें

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