प्राचीन लेखों को पढ़ना और उनके आधार पर इतिहास का पुनर्गठन करना पुरालेखविद्या (Palaeography) कहलाता है। पुरालेखविद्या के अन्तर्गत निम्नलिखित बातें आती हैं-

कागज का टुकड़ा जिस पर खरोष्टी में लिखा गया है (२री-५वीं शदी)

1. प्राचीन लेखों की लिपि का अध्ययन और उसके आधार पर प्राचीन तथ्यों को प्रकाशित करना।

2. प्राचीन लेखों की भाषा का अध्ययन।

3. प्राचीन लेखों के आधार पर ऐतिहासिक घटनाओं का विश्लेषण करना।

4. प्राचीन लेखों की तिथि निर्धारण करना।

5. प्राचीन लिपियों के विकास की परम्परा का अन्वेषण करना।

6. आधुनिक लिपियों के प्राचीन स्रोत खोजना।

7. प्राचीन लेखन सामग्री और लेखन-विधियों का ज्ञान।

भारत में पुरालेखविद्या का प्रारम्भ

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चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य की मुद्रा जिस पर ब्राह्मी लिपि में राजा का नाम अंकित है।

भारत में पुरालेखविद्या का प्रारम्भ अशोक के लेखों के अध्ययन से प्रारम्भ हुआ। अशोक के अनेक लेख चट्टानों, स्तम्भों आदि पर लिखे हुए प्राप्त हुए हैं। परन्तु काफी समय तक उन लेखों का अध्ययन न हो सका क्योंकि वे लेख ब्राह्मी लिपि में लिखे हुए हैं और ब्राह्मी लिपि का ज्ञाता वर्तमान भारत में कोई नहीं था।

आज के भारत की सारी लिपियाँ ब्राहमी से व्युत्पन्न होने पर भी हमारे देश के पंडित सदियों पहले प्राचीन ब्राह्मी को भूल चुके थे। दिल्ली के सुलतान फीरोजशाह तुग़लक ने 1356ई. में टोपरामेरठ के अशोक-स्तंभ दिल्ली में मंगवाकर खड़े करवाए थे। इन स्तंभों पर उत्कीर्ण लेखों को पढ़ने के लिए फीरोज तुग़लक ने पंडितों को आमंत्रित किया था, किंतु उस समय एक भी ऐसा पंडित नहीं मिला जो अशोक के इन ब्राहमी लेखों को पढ़ सके। इन स्तंभों पर क्या लिखा हुआ है, यह जानने के लिए अकबर भी बड़ा उत्सुक था, किंतु उस समय भी ऐसा कोई पंडित नहीं मिला जो इन लेखों को पढ़ सके। इससे स्पष्ट होता है कि पुरानी ब्राहमी लिपि का ज्ञान भारत में इस्लामी राज्य की स्थापना के पहले ही लुप्त हो गया था। अठारहवीं सदी के उत्तरार्ध में अंग्रेजों के पैर भारत में जम गए, तो उन्होंने भारत की प्राचीन संस्कृति के अध्ययन की ओर भी कुछ ध्यान दिया। सर विलियम जोन्स (1746-94ई.) के प्रयास से “एशिया के इतिहास, आदि के अनुशीलन के लिए” 1784ई. में कलकता में एशियाटिक सोसायटी की स्थापना हुई। तब से यूरोप के कई विद्वान भारतीय पुरातत्व के अनुशीलन में जुट गए और पुरालेखों की खोज तथा उनके अध्ययन का काम भी शुरू हुआ। विलियम जोन्स के बाद चार्ल्स विल्किन्स पहले विदेशी विद्वान हैं जिन्होंने संस्कृत का गहन अध्ययन किया था। विल्किन्स को दसवीं सदी के आसपास के कुछ लेखों को पढ़ने में सफलता मिली और उन्होंने गुप्तकाल के लेखों की लगभग आधी वर्णमाला को भी पहचान लिया।

लेकिन अशोक के अभिलेख करीब छह सौ साल अधिक पुराने हैं, इसलिए उन्हकें आसानी से पढ़ पाना संभव नहीं था। आरंभ में यूरोप के पुरालिपिविदों की कल्पना थी कि अशोक के लेखों की भाषा संस्कृत है। इसलिए भी अशोक की ब्राहमी लिपि का उद्घाटन होने में कुछ देरी हुई।

अंत में जेम्स प्रिन्सेप (1799-1840 ई.) ने ब्राहमी लिपि की वर्णमाला का उद्घाटन किया। प्रिन्सेप कलकत्ता की टकसाल के अधिकारी थे और एशियाटिक सोसायटी के सेक्रेटरी भी। उन्होंने गुप्त लिपि की वर्णमाला को पढ़ने में भी सहयोग दिया थ। अब वे अधिक पुराने लेखों को पढ़ने में जुट गए। उन्होंने कई स्थानों के शिलालेखों के छापे मँगवाए और अक्षरों को मिला-मिलाकर इनका अध्ययन करते रहे। अंत में 1837ई. में उन्होंने साँची के कुछ दानलेखों में 'दानं' शब्द के अक्षरों को पहचाना और फिर उन्होंने शीघ्र ही ब्राहमी के शेष अक्षरों को भी पहचान लिया। इस प्रकार जेम्स प्रिन्सेप ने ब्राहमी लिपि की लगभग पूरी वर्णमाला का उद्घाटन किया।

इस महान खोज के बाद भारतीय इतिहास व संस्कृति के अध्ययन का एक नया अध्याय आरंभ हुआ। प्रिन्सेप के बाद देश-विदेश के अनेकानेक विद्वानों ने पुरालेखों का अध्ययन शुरू कर दिया। तब से ही भारत के लोगों को अपने देश की प्राचीन संस्कृति के बारे में यथार्थ जानकारी मिलने लगी।

आज हम अशोक की ब्राहमी लिपि तथा इस लिपि से विकसित लिपियों में लिखे गए सारे लेखों को पढ़ सकते हैं।

पुरालेखविद्या का महत्त्व

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शिलालेखों के अध्ययन से पूर्व भारत का प्राचीन इतिहास अन्धकारमय था। इतिहास के विषय में जो कुछ जानकारी मिलती थी वह केवल साहित्यिक स्रोतों से मिलती थी परन्तु वह जानकारी इतनी अल्प और परस्पर विरोधी थी कि उसके आधार पर इतिहास के वास्तविक तथ्यों को जानना कठिन था परन्तु शिलालेखों के अध्ययन से नवीन ऐतिहासिक तथ्यों का ज्ञान हुआ।

इन्हें भी देखें

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