पुरुषार्थ सिद्धयुपाय
पुरुषार्थसिद्धयुपाय (= पुरुषार्थसिद्धि + उपाय = पुरुषार्थ की सिद्धि का उपाय) एक प्रमुख जैन ग्रन्थ है जिसके रचियता आचार्य अमृत्चंद्र (९०५ - ९५५ ई०) हैं।[1][2] आचार्य अमृत्चंद्र दसवीं सदी (विक्रम संवत) के प्रमुख दिगम्बर आचार्य थे। पुरुषार्थ सिद्धयुपाय में श्रावक के द्वारा धारण किये जाने वाले अणुव्रत आदि का वर्णन हैं[3] पुरुषार्थ सिद्धयुपाय में अहिंसा के सिद्धांत भी समझाया गया हैं [4]
यह ग्रन्थ संस्कृत छन्दबद्ध ग्रंथ है। इसमें 243 श्लोक हैं। इस पर पं० टोडरमल (1766 ई० ) ने भाषा में टीका लिखी है परन्तु उसे पूरी करने से पहले ही उनका निधन हो गया। इस अधूरी टीका को उनके पीछे पं० दौलतराम (1770 ई०) ने पूरा किया।
पुरुषार्थसिद्धयुपाय में आया ‘पुरुष’ शब्द पुल्लिंग-पुरुष का प्रतीक न होकर आत्मा का प्रतीक है जिसका प्रकट रूप हमें पुरुषार्थसिद्धयुपाय श्लोक संख्या-9 में मिलता है।[5] इसमें अहिंसा के सिद्धान्त को विस्तार से समझाया गया हैं [6] इसमें श्रावक को हिंसा आदिक पापों से सावधान भी किया गया हैं।[7]
इन्हें भी देखें
संपादित करेंबाहरी कड़ियाँ
संपादित करें- अमृतचन्द्र द्वारा विरचित पुरुषार्थसिद्ध्युपाय (पं० टोडरमल कृत हिन्दी रूपान्तर सहित)
सन्दर्भ
संपादित करें- ↑ Jain 2012, पृ॰ xiii.
- ↑ Finegan, Jack (1952-08-01). The archeology of world religions. पृ॰ 205.
- ↑ Jain 2012, पृ॰ xiv.
- ↑ Duli C Jain (1997-06-01). Studies in Jainism. पृ॰ 26. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9780962610523.
- ↑ पुरुषार्थसिद्धयुपाय में वर्णित पुरुष और पुरुषार्थ
- ↑ Jain 2012, पृ॰ 33-34.
- ↑ Jain 2012, पृ॰ 55-60.
सन्दर्भ ग्रन्थ
संपादित करें- Sain, Uggar; Sital Prasad (Brahmachari) (1931), The Sacred Books of the Jainas
- Jain, Vijay K. (2012), Acharya Amritchandra's Purushartha Siddhyupaya, आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9788190363945