प्रकाशन निर्माण की वह प्रक्रिया है जिसके द्बारा साहित्य या सूचना को जनता के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है। अनेक बार लेखक स्वयं ही पुस्तक का प्रकाशक भी होता है।

प्रकाशन का शाब्दिक अर्थ है 'प्रकाश में लाना'। यह संस्कृत की "प्रकश" धातु से बना है, जिसका अर्थ है फैलाना, विकसित करना। उसी से बना 'प्रकाशन', जिसका शाब्दिक अर्थ हुआ फैलाने या विकसित करने की क्रिया। आधुनिक संदर्भ में इसकी परिभाषा यों की जा सकती है : लिखित विषय का चुनाव, मुद्रण और वितरण। प्रकाशन का कार्य आज के युग में मुद्रण और कागज पर पूर्णत: निर्भर है, यद्यपि यह दोनों ही चीज़ों से पुराना है।

लकड़ी के ब्लाकों से छपाई करने का अविष्कार नवीं शताब्दी के पूर्वार्धं में चीन में हुआ था। टाइप से छपाई का आरंभ भी वहीं शताब्दी के मध्य में हुआ था। लेकिन इसे अधिक महत्त्व नहीं दिया गया। यही सोचा गया कि पांडुलिपियों की नकल करते समय अच्छे कातिबों से जो गलतियाँ हो जाती हैं, वे मुद्रण में नहीं होंगी। यूरोप में, टाइप से छपाई के काम का आरंभ 15वीं शताब्दी के मध्य में आरंभ हुआ। किंतु चीन की भाँति वहाँ भी मुद्रण का प्रयोग केवल धार्मिक ग्रंथों और शासकीय कागजों को शुद्ध छापने में किया गया। एशिया या यूरोप, कहीं भी सोच तक नहीं गया कि मुद्रण की सहायता से राजनीतिक, बौद्धिक या धार्मिक साहित्य का विस्तृत प्रसार किया जा सकता है। पूर्व और पश्चिम दोनों में सदियों तक धार्मिक संस्थाएँ, सरकार, विश्वविद्यालय तथा अन्य शक्तिशालिनी संस्थाएँ अपने ही विचारों और सूचनाओं के प्रसार में मुद्रण का उपयोग करती रहीं और उन्होंने ज्ञान के प्रसार में उसके उपयोग का निरंतर विरोध किया। बाद में, आखिरकार आत्मिक एवं बौद्धिक विकास संबंधी अथवा धार्मिक एवं वैज्ञानिक साहित्य के प्रकाशन में मुद्रण का शत प्रतिशत सहयोग मिलने ही लगा।

सबसे पहली पुस्तकें

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मुद्रण के आविष्कार से पहले प्रकाशन का कार्य कातिब या प्रशिक्षित गुलाम किया करते थे। वे चर्मपत्र पर किसी पांडुलिपि की अनेक प्रतिलिपियाँ लिखते रहते थे। टालेमी वंश के शासनकाल में मिस्र में, तथा यूनान और गणतांत्रिक रोम के प्रमुख नगरों में चर्मपत्र तैयार करनेवाली अनेक उद्योगशालाएँ खुल गई थीं और चर्मपत्र पर प्राचीन साहित्य, धर्म और कानून संबंधी श्रेष्ठ कृतियों की प्रतिलिपियाँ तैयार की जाती थीं। रोमी साम्राज्य में तथा पश्चिमी देशों के राजा, राजकुमार, पार्लिमेंट, पादरी आदि अक्सर प्रकाशन पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लेते थे या करने की कोशिश करते थे और लंबे समय के लिये प्रकाशनकार्य बंद हो जाता था। फिर भी ये पुराने प्रयास आज की प्रकाशन संस्थाओं के ही आदि रूप थे। उनका काम था बड़े पैमाने पर छापने के लिये पांडुलिपियों का चुनाव करना, उनके लिये लेखकों को पुस्तकों की बिक्री से पहले अग्रिम पारिश्रमिक देना, अलग अलग पांडुलिपियों के संस्करण का आकार प्रकार तथा मूल्य निर्धारित करना और बाजार तैयार करना जहाँ, अनेक प्रयत्न करके पुस्तकों को लाभ सहित बेचा जा सके। वे अत्याधुनिक अर्थो में भी प्रकाशक ही थे, यद्यपि उनके उत्पादन "पुस्तकें" नहीं थीं।

आज पुस्तकों का परिचित रूप है कुछ छपे हुए पृष्ठ जो एक ओर सिले होते हैं। यह रूप कैसे प्रचलित हुआ, इसका भी एक पुराना और लंबा इतिहास है। चौथी शताब्दी तक कम से कम उत्तर रोमी साम्राज्य के जूरियों को जिल्द से बँधी पुस्तकों का पूरा ज्ञान था। फिर भी पुस्तकों का सार्वजनिक प्रचलन तो इसके दो तीन शताब्दियों बाद आयरलैंड में हुआ। यहाँ बौद्धिक एवं धार्मिक विचारधारा बढ़ी और इसका उत्कर्ष हुआ "बुक आफ़ केल्स" के रूप में, जो एक विद्वान् के अनुसार "संसार की सुंदरतम पुस्तक" है।

सबसे पहले जिल्दबँधी किताबों को "कोडेक्स" कहा जाता था। मध्य युग में कोडेक्स ही पुस्तकें मानी जाने लगीं और विभिन्न ईसाई मतों के मठों द्वारा, जो प्रकाशन का कार्य करते थे, धर्मशास्त्र पर पुस्तकें प्रकाशित की जाने लगीं। कानून, ओषधिविज्ञान, काव्यशास्त्र तथा अन्य विषयों की पुस्तकों का प्रकाशन उदीयमान विश्वविद्यालयों द्वारा अन्य विषयों की पुस्तकों का प्रकाशन उदीयमान विश्वविद्यालयों द्वारा किया जाने लगा, जिन्होंने जल्दी ही गिरजों और प्रशासन से प्रकाशनकार्य छीन लिया। जिन जिन नगरों में विश्वविद्यालय थे, वहाँ पुरानी किताबों की दूकानें खूब फैल गईं, जैसी आज के युग में भी हैं। अंतर केवल इतना था कि विश्वविद्यालयों ने प्रकाशन का काम तो अपने हाथ में लिया, किंतु फायदा उठाना उनका उद्देश्य न था और उनका प्रयत्न सदा यही रहता था कि पुस्तकों की कीमत कम से कम रखी जाय जिससे विद्यार्थियों को सुविधा रहे। यही कारण था कि वे पुरानी किताबों की बिक्री पर जोर देते थे। इससे विश्वविद्यालयों को हर साल नए संस्करण भी नहीं प्रकाशित करने पड़ते थे।

चर्मपत्र के समान "कोडेक्स" भी हाथ से लिखे जाते थे। मठों के "लेखन कक्षों" में अपने काम के प्रति उत्सर्ग की भावना रखनेवाले कातिब दिन भर प्राचीन ग्रंथों के पृष्ठ के पृष्ठ नकल किया करते थे। उन्हीं के कारण प्राचीन ग्रंथों तथा बाइबिल की रक्षा हो सकी। (आग लगन के भय से मठों में रात को काम नहीं होता था।) "कातिब अपना काम खत्म कर चुकता था तो एक दूसरा आदमी उसे मूल से मिलाकर संशोधित करता था", डगलस सी. मेकमर्टी ने लिखा है, "फिर उन पन्नो को लाल स्याही से लिखनेवो कातिब के पास भेज दिया जाता था जो मुखपृष्ठ, शीर्षक, अध्याय संख्या तथा दूसरे नाम, टिप्पणियाँ आदि जोड़ देता था। यदि पुस्तक में चित्र जाने को होते थे तो उसे चित्रकार के पास भेज दिया जाता था। उसके काम की समाप्ति के बाद पुस्तक जिल्द बँधने के लिये तैयार हो जाती थी।"

आधुनिक यूरोप में मुद्रण और प्रकाशन

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गटेनबर्ग प्रेस, 15 वीं सदी

प्रकाशन का प्रारंभ मुद्रणकला के प्रारंभ से पहले ही हो चुका था, किंतु 15वीं शताब्दी में योआन गटेनबर्ग द्वारा वर्णमाला के अक्षरों के टाइपों के आविष्कार के बाद प्रकाशन की बड़ी उन्नति हुई। गटेनबर्ग अक्षरों के टाइपों का सफल प्रयोग न कर सका। फिर भी उसके युगांतरकारी आविष्कार के बाद उसका नगर मेंज (जर्मनी) यूरोप महाद्वीप का निसंदिग्ध प्रकाशन केंद्र बन गया। इसके बाद पश्चिमी संसार मुद्रण और प्रकाशन के विकास में जर्मनी ही अगुआ रहा। सन् 1500 से पहले यूरोप में 30000 पुसतकें छप चुकी थीं। इनमें से दो तिहाई से अधिक का प्रकाशन जर्मनी के विभिन्न विद्याकेंद्रों लाइपपजिग, कोलोन, बैसेल, न्यूरेमबर्ग, औग्सबर्ग और स्कासबर्ग में हुआ था। इससे भी अधिक महत्वपूर्ण बात यह थी कि इन्हीं नगरों में प्रशिक्षित जर्मनों ने ही इटली में आधुनिक मुद्रण और प्रकाशन की शुरुआत सन् 1460 के आसपास की, जहाँ इन दोनों कलाओं ने पुनरुत्थानकालीन संस्कृति और व्यापार के विकास में बड़ा योग दिया। इसी प्रकार, इटली में प्रशिक्षित जर्मन ही 16वीं सदी के अंत में मुद्रण प्रकाशन उद्योग को फ्रांस में ले गये।

इसी समय पुस्तकों के बाजार का भी विकास हुआ। सन् 1501 में आल्जे मैनूज़िओ ने छोटे आकार की पुस्तकों का श्रीगणेश किया। इन पुस्तकों ने क्रमश: विशालाकर, कीमती "कोडेक्स" का स्थान ले लिया, ठीक उसी तरह जैसे कोडेक्स ने लपेट जानेवाले "वॉल्यूमैन" का स्थान ले लिया था। बाद के दर्शकों में टाइपों पर बड़ा ध्यान दिया गया, विशेषकर फ्रांस में और आज भी प्रयोगे किए जानेवाले अनेक टाइपों के नाम उनके आविष्कारों पर हैं। उस युग के मशहूर टाइपग्राफर क्लॉड गैरामंड और रार्बट ग्रैंजन थे। इनका एक प्रमुख खरीददार क्रिस्तोफे प्लांतिन बड़ा प्रसिद्ध मुद्रक था जो बाद में प्रकाशक बन गया। 1514 में फ्रांस में जन्मा प्लांतिन 1548 में धार्मिक दंड से बचने के लिये पेरिस से भागकर बेल्जियम के ऐंटवर्प नगर में चला गया। बाद में चर्च और विश्वविद्यालय दोनों ने उसे माफ कर दिया और वह स्पेनी साम्राज्य के लिये धार्मिक पुस्तकों को प्रकाशित करनेवाला एकमात्र प्रकाशक हो गया। फिर तो वह तत्कालीन प्रमुख प्रकाशन केंद्र लाइडेन विश्वविद्यालय का मुद्रक नियुक्त हो गया।

शुरू शुरू में कुछ मुद्रक चर्च और राजाओं के प्रति वफादार थे लेकिन 15वीं सदी के अंत और 16वीं सदी के प्रारंभ में प्रकाशन व्यवसाय का उपयोग प्रोटेस्टेंट और रेडिकल संप्रदायों को पुनर्गठित करने में किया जाने लगा। परिमाणत: इस प्रकार नए प्रकाशन व्यवसाय का विरोध, विशेषकर जर्मनी में, किया जाने लगा और प्रकाशकों तथा मुद्रकों ने अपनी सुरक्षा के लिये अलग अलग कारपोरेशन और गिल्ड (संगठन) बना लिए। अनेक देशों में यह 19वीं सदी तक बने रहे। न्यूरेमबर्ग और ऑग्सबर्ग में तो 16वीं सदी में मुद्रण-प्रकाशन-व्यवसायों को बंद ही करवा दिया गया या लोग छिपे छिपे ही प्रकाशन करने लगे। जहाँ ऐसा नहीं हुआ वहाँ दूसरे तरीकों से नियंत्रण रखा जाने लगा। सन् 1474 में फ्रांस में नए स्वतंत्र मुद्रकों और उनकी मुद्रित पुस्तकों को इसी अधिनियम के अंतर्गत रखा जाने लगा, जिसके अंतर्गत अब तक पुरानी पुस्तकों के प्रकाशन पर एकाधिकार पेरिस विश्वविद्यालय ने कर रखा था। यह मुद्रकों के लिये एक नया सम्मान था, फिर भी सरकारी कार्यो में रुचि न रखनेवाले प्रकाशकों के लिये तो एक भार ही था।

सरकारी अधिनियमों और संघ के प्रतिबंधों ने मिलकर शताब्दियों तक मुद्रण-प्रकाशन-व्यवसाय की प्रगति को रोके रखा। एक परिणाम तो इसका यह हुआ कि अनेक मुद्रक और प्रकाशक इंगलैंड चले गए। अनुमान लगाया गया है कि 1476 और 1536 के बीच इंगलैंड में लगभग दो तिहाई मुद्रक, जिल्दसाज और कागजी विदेशी थे। सन् 1534 में स्टेशनरों के संघ ने इंगलैंड के पुस्तक प्रकाशन पर अपना अधिकार जमा लिया और सन् 1710 में महारानी ऐन के शासनकाल में पहला कापीराइट ऐक्ट पास हुआ। इस बीच प्रकाशकों को बहुत परेशान किया गया, वह भी केवल इंगलैंड में नहीं बल्कि अमरीका में भी। इसी दौरान, जब प्रकाशकों को बड़े संघर्ष के बाद मिली थोड़ी सी आजादी को भी खत्म करने के लिये नए प्रतिबंध लगाए जाने लगे, जॉन मिल्टन ने 1644 में अपनी "एरियोपैगिटिका" की रचना की।

फ्रांस में तो लगभग पूरा नियंत्रण था, जो 1793 के कापीराइट कानून के बाद ही समाप्त हो सका और मुद्रण-प्रकाशन-व्यवसाय सभी प्रकार के नियमों से स्वतंत्र हो सका। किंतु यह स्वतंत्रता अस्थायी थी जो नेपोलियन के प्रथम साम्राज्य की स्थापना के साथ समाप्त हो गई। दुबारा यह आजादी 1870 में प्रजातंत्र की स्थापना के बाद ही मिल सकी। फ्रांस के प्रतिबंधों का हालैंड और बेल्जियम के प्रकाशन व्यवसाय पर बड़ा शुभ प्रभाव 17वीं और 18वीं सदी में पड़ा। मोलिये, ब्वायलॉ, वाल्तेयर, रूसी तथा अन्य फ्रांसीसी लेखकों की रचनाएँ वहाँ छापकर छिपे रूप से फ्रांस के बाजारों में भेजी जाती रहीं।

अति हमेशा बुरी होती है। बड़े से बड़े किंतु ढीलेपन से लागू किए गए निंयत्रणों और सरकारी एकाधिकार का कड़ा सामना हुआ। मौजूदा वातावरण में 16वीं और 20वीं शताब्दियों के बीच यूरोप में शिक्षा और पुस्तकें पढ़ने के व्यसन का बड़ा विकास हुआ। फलत: लेखन और प्रकाशन का प्रसार हुआ। सन् 1710 के अंग्रेजी कापीराइट कानून ने लेखकों और प्रकाशकों को एकाधिकारी मुद्रकों से स्वतंत्र कर दिया और उन्हें अधिकार दिया कि वे अच्छी से अच्छी शर्तों पर साहित्यिक कृति के प्रकाशन की व्यवस्था कर सकें। इसी कानून में यह व्यवस्था भी की गई कि निश्चित अवधि के बाद साहित्यिक कृति पर संपूर्ण जनता का अधिकार हो जाएगा। यही आधुनिक प्रकाशन व्यवसाय की धुरी है। इसी से लेखकों की अपनी कृति पर अधिकार की रक्षा होती है और प्रकाशक उन अधिकारों को प्राप्त कर सकता है। कापीराइट की निश्चित अवधि महारानी ऐन के शासनकाल में 14 साल थी और लेखक उसे और 14 वर्षों के लिये बढ़वा सकता था, अमरीका में यही अवधि इसी शताब्दी में 28 साल थी और 28 अगले वर्षों के लिये बढ़वाने का अधिकार लेखक को था। अधिकांश देशों में यह अवधि लेखक के जीवनकाल के बाद 20 से 50 वर्ष तक है।

18वीं सदी के बाद कापीराइट के विकास का स्पष्ट अर्थ है पेशे के रूप में लेखन व्यवसाय और व्यवसाय के रूप में प्रकाशन का विकास। कानून उनकी सुरक्षा करके दोनों को बढ़ावा देता है। लेकिन इसका अर्थ कुछ और भी है। यह जनसाधारण की बढ़ती हुई ज्ञानपिपासा और अध्ययनप्रियता का प्रतीक भी है।

समकालीन प्रकाशन की ओर

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साहित्यिक कृतियों का बाजार बढ़ता जा रहा था। मुद्रक इसका सामना करने में सफल न थे। उन्हें पुस्तकविक्रेताओं से धन की माँग करनी पड़ती थी। धीरे धीरे 18वीं सदी में पुस्तकविक्रेता ही प्रकाशक बन बैठे। उस समय तक जनता में, विशेष रूप से इंगलैंड में, पुस्तकप्रेम बहुत बढ़ गया था। लोकप्रिय पुस्तकों (बाइबिल, टीकाओं, पाठ्य पुस्तकों, कोश आदि) की बिक्री बहुत बढ़ गई थी। इस नई माँग को पूरा करने के लिये गश्ती पुस्तकालयों की स्थापना 1720 में हुई। नए लेखकों के पाठकों की संख्या बढ़ने लगी और उन्होंने अपने "संरक्षकों" (पेट्रनों) से अलग होना शु डिग्री कर दिया। 18वीं सदी क कांस्टेबिल और लांगमैंस जैसे पुस्तकविक्रेता पुस्तक व्यवसाय के केंद्र बन गए। कुछ ही दशकों बाद, अमरीका में हार्पर, स्क्रिबनर, डटन और लिंटिल ब्राउन का आविर्भाव हुआ।

इस तरह पुस्तक विक्रेताओं के उत्कर्ष से समकालीन प्रकाशन का आरंभ हुआ और लगभग साथ साथ इंगलैंड में उपन्यास और उपन्यासकारों के उत्कर्ष से प्रकाशन व्यवसाय फूला फला। दोनों ही उत्कर्षों का अर्थ था मध्यवर्ग का उदय, इसी कारण इंगलैंड और अमरीका दोनों जगह प्रकाशन का खूब विकास हुआ। यूरोप महाद्वीप में विकास धीरे धीरे हुआ और अमीरी गरीबी के विशाल अंतर के कारण पुस्तकों की खरीददार मध्यवर्गीय जनता बढ़ न सकी।

पुस्तक विक्रय और प्रकाशन का संबंध इंगलैंड में अधिक दिनों तक रहा। अमरीका में नए लेखकों का विकास कुछ इतनी तेजी से हुआ कि स्वतंत्र प्रकाशन संस्थाओं का ही निर्माण हो गया, जो न तो विक्रय का काम करती थीं और न मुद्रण का। इस परिवर्तन के फलस्वरूप नए मुद्रक, जिल्दसाज और विक्रेता बनेहृ पहले दोनों प्रकाशक के अनुबंध पर किताबें तैयार करने का काम करते थे और तीसरा उन्हें बेचने का।

20 सदी के तीसरे दशक में इंगलैंड, अमरीका, जर्मनी और फ्रांस में और नए नए प्रकाशकों का आविर्भाव हुआ। वे केवल कथासाहित्य, जीवनसाहित्य, इतिहास, संस्मरण, सामान्य मनोविज्ञान आदि विषयों की पुस्तकों का प्रकाशन करने लगे। उन्हें व्यापारी प्रकाशक का नाम दिया गया। अनेक पुराने ओर कई नए प्रकाशन संस्थानों में बाइबिल, धार्मिक पुस्तकों, स्कूल और कालेज की पाठ्य पुस्तकों, डाक्टरी पुस्तकों के विभाग बने रहे, जिनपर प्रकाशन उद्योग की आधारशिला रखी हुई है। लेकिन सबसे नया प्रचलन था व्यापारी प्रकाशक बनने का। विशेषज्ञता का युग आरंभ हो गया, विशेष रूप से अमरीका में, जहाँ उद्योग पुरानी परंपराओं से इतनी बुरी तरह आच्छादित न था और नए प्रयोगों के लिये गुजाइश थी।

विशेषज्ञता का युग

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प्रकाशन व्यवसाय बढ़ता गया। प्रकाशित पुस्तकों की संख्या बढ़ती गई। एक उदाहरण लें। इंगलैंड में 18वीं सदी के पूर्वार्ध में एक वर्ष में प्रकाशित पुस्तकों की संख्या 93 थी। 20वीं सदी के पहले 25 सालों में प्रति वर्ष औसत 600 किताबें प्रकाशित हुई। इसी वृद्धि से मालूम होता है कि विशेषज्ञता का युग क्यों आया।

व्यापारी प्रकाशकों में ही सजिल्द पुस्तकों के पुनर्मुद्रकों, कागजी आवरणवाली पुस्तकों के पुनर्मुद्रकों, केवल वेर्स्टन या जासूसी कहानियों के या वैज्ञानिक कथासाहित्य के प्रकाशकों तथा अन्य बाजारों के लिये अन्य विशेष प्रकार की पुस्तकें छापनेवाले प्रकाशकों का आविर्भाव हुआ। पुस्तक विक्रताओं को सहायता देने के लिये पुस्तक क्लब बने। डाक से पुस्तकों को बेचनेवाली खास संस्थाएँ हैं। ये नए साधन कितने महत्वपूर्ण थे, यह निम्न आँकड़ों से जाना जा सकता है। सजिल्द पुस्तकों के प्रकाशक जिन पुस्तकों को 3000 से 10000 तक छापते थे, उन्हीं के पुनर्मुद्रण सस्ते संस्करणों में 100000 से 200000 तक होते हैं। स्पष्ट है कि मध्यवर्ग ही 20वीं सदी के मध्य तक पुस्तकों का सबसे बड़ा खरीददार हो गया था। इंगलैंड में पेंग्विन और पैलिकन ने संपादन का स्तर ऊँचा रखा और अमरीका में सस्ती पुस्तकों के प्रकाशकों ने मौलिक पुस्तकें भी छापना शु डिग्री किया।

प्रकाशन की विशेषज्ञता के कारण प्रकाशन के लिये पांडुलिपियों की व्यवस्था करने के लिये दो नए व्यवसायों का जन्म हुआ। एक था पांडुलिपि स्काउट। वह प्रकाशक से अनुबंध करके काम करता है और उसे फुटकर भाव पर 1 या 2 प्रतिशत कमीशन मिलता है। दूसरा है लिटरेरी एजेंट। वह लेखकों के साथ काम करता है और लेखक से प्रकाशक के संबंध की पूरी जिम्मेदारी उसपर होती है। उसे पारिश्रमिक के रूप में लेखक की रायल्टी का 10 प्रति शत मिलता है। इस एजेंसी की प्रवृत्ति का अगला प्रभाव यह पड़ा कि प्रकाशक अब केवल प्रबंधक भर रह गया और उसने संपादन का काम भी दूसरों को सौंप दिया। इससे लेखकों, विशेषत: कथाकारों, का बाजार भी बढ़ा। 20वीं सदी में पत्रपत्रिकाओं में धारावाहिक प्रकाशन के अधिकारों के साथ फिल्म के अधिकार, नाट्यांतर के अधिकार, रेडियो, टेलीविजन अधिकार, सार संक्षेप अधिकार तथा अन्य अनेक अधिकार भी शामिल हो गए। इन अधिकारों की बिक्री से पैसा तो लेखक को खूब मिल सकता है, लेकिन वह स्वयं इस व्यापार को पक्का करने के अयोग्य है।

विक्रय के लिये भी 20वीं सदी में नई एजेंसियों ने जन्म लिया। एक थीं विज्ञापन एजेंसियाँ। कुछ तो अपने द्वारा विज्ञापित दूसरी चीजों के साथ साथ किताबों को भी शामिल कर लेतीं। कुछ केवल पुस्तकों का विज्ञापन करती थीं। प्रकाशक विज्ञापन में लागत का 8-10 प्रति शत तक खर्च करने के लिये भी बड़ी होशियारी ओर अनुभव की जरूर थी, जो प्रकाशकों के पास नहीं थी। यही कारण था पुस्तक व्यवसाय में विज्ञापन एजेंसी व्यवसाय के आगमन का।

यह तो है कि ज्यादातर पुस्तकें व्यापारिक पुस्तकें ही होती हैं, फिर भी अन्य प्रकार की पुस्तकों का प्रकाशन भी जारी है। मसलन, विश्वविद्यालयों द्वारा प्रकाशित पुस्तकें, विज्ञान की पुस्तकें आदि।

मुद्रण की कला में परिष्कार का प्रभाव भी प्रकाशन व्यवसाय पर पड़ा। लाइनोटाईप, सिलिंड्रिकल प्रेस, रॉटरी प्रेस तथा उनके साथ की मशीनों का प्रभाव पड़ना ही चाहिए था। इनमें से अधिकांश का आविर्भाव 20वी सदी के प्रारंभ में ही हुआ था। उनमें लगातार विकास से पुस्तकों की माँग को पूरा करने में आसानी ही हुई।

20वीं सदी में सिनेमा, रेडियो, टेलीविजन और मोटरकार, सचित्र पत्र, पत्रिकाएँ तथा मनोरंजन और ज्ञानवर्धन के अन्य साधन जनता के मस्तिष्क को अधिक घेरे हुए हैं। सबने पुस्तकों से लोहा लिया है लेकिन पुस्तक प्रकाशन का अविरल विकास रुक नहीं सका है।