प्रातिशाख्य
प्रातिशाख्य शब्द का अर्थ है : 'प्रति' अर्थात् तत्तत् 'शाखा' से संबंध रखनेवाला शास्त्र अथवा अध्ययन। यहाँ 'शाखा' से अभिप्राय वेदों की शाखाओं से है। वैदिक शाखाओं से संबद्ध विषय अनेक हो सकते थे। उदाहरणार्थ, प्रत्येक वैदिक शाखा से संबद्ध कर्मकांड, आचार आदि की अपनी अपनी परंपरा थी। उन सब विषयों से प्रातिशाख्यों का संबंध न होकर केवल वैदिक मंत्रों के शुद्ध उच्चारण, वैदिक संहिताओं और उनके पदपाठों आदि के सधिप्रयुक्त वर्णपरिवर्तन अथवा स्वरपरिवर्तन के पारस्परिक संबंध और कभी कभी छंदोविचार जैसे विषयों से था।
यहाँ वैदिक शाखाओं के प्रारंभ, स्वरूप और प्रवृत्ति को संक्षेप में समझ लेना आवश्यक है।
भारतीय वैदिक संस्कृति के इतिहास में एक समय ऐसा आया जबकि आर्य जाति के मनीषियों ने परंपराप्राप्त वैदिक मंत्रों को वैदिक संहिताओं के रूप में संगृहीत किया। उस समय अध्ययनाध्यापन का आधार केवल मौखिक था। गुरु शिष्य की श्रवण परंपरा द्वारा ही वैदिक संहिताओं की रक्षा हो सकती थी। देशभेद और कालभेद से वैदिक संहिताओं की क्रमश: विभिन्न शाखाएँ हो गईं।
वैदिक मंत्रों और उनकी संहिताओं को प्रारंभ से ही आर्य जाति की पवित्रतम निधि समझा जाता रहा है। उनकी सुरक्षा और अध्ययन की ओर आर्य मनीषियों का सदा से ध्यान रहा है। इसी दृष्टि ने भारत में वेद के षडंगों (शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छंद, ज्योतिष) को जन्म दिया था।
वैदिक संहिताओं की सुरक्षा और अर्थज्ञान की दृष्टि से ही वैदिक विद्वानों ने तत्तत् संहिताओं के पदपाठ का निर्माण किया। कुछ काल के अनंतर क्रमश: क्रमपाठ आदि पाठों का भी प्रारंभ हुआ।
वेद के षडंगों के विकास के साथ साथ प्रत्येक शाखा का यह प्रयत्न रहा कि वह अपनी अपनी परंपरा में वैदिक संहिताओं के शुद्ध उच्चारण की सुरक्षा करे और पदपाठ एवं यथासंभव क्रमपाठ की सहायता से वेद के प्रत्येक पद के स्वरूप का और संहिता में होने वाले उन पदों के वर्णपरिवर्तनों और स्वरपरिवर्तनों का यथार्थत: अध्ययन करे। मूलत: प्रातिशाख्यों का विषय यही था। कभी कभी छंदोविषयक अध्ययन भी प्रातिशाख्य की परिधि में आ जाता था।
वैदिक शाखाओं के अध्येतृवर्ग 'चरण' कहलाते थे। इन चरणों की विद्वत्सभाओं या विद्यासभाओं को 'परिषद्' (या 'पर्षद्') कहा जाता था। प्रतिशाख्यों की रचना बहुत करके सूत्र शैली में की जाती थी इसीलिए प्रातिशाख्यों के लिए प्रायेण 'पार्षदसूत्र' का भी व्यवहार प्राचीन ग्रंथों में मिलता है।
यास्काचार्य के निरुक्त में कहा गया है :
- 'पदप्रकृति: संहिता। पदप्रकृतिनि सर्व चरणानां पार्षदानि।' (नि. 1/17)
अर्थात्, पदों के आधार पर संहिता रहती है और सब शाखाओं के प्रतिशाख्यों की प्रवृत्ति पदों को ही संहिता का आधार मानकर हुई है।
इससे यह ध्वनि निकलती है कि प्राचीन काल में सब वैदिक शाखाओं के अपने-अपने प्रातिशाख्य रहे होंगे। संभवत: वैदिक शाखाओं समान, उनके प्रातिशाख्य भी लुप्त हो गए। वर्तमान उपलब्ध विशिष्ट प्रातिशाख्य नीचे दिए जाते हैं।
उपलब्ध प्रातिशाख्य
संपादित करेंशौनकाचार्यकृत ऋग्वेद प्रातिशाख्य
संपादित करेंस्पष्टत: इसका संबंध ऋग्वेद की संहिता से है। पर परंपरा के अनुसार इसको ऋग्वेदीय शाकल शाखा की अवांतर शैशिरीय शाखा से सबंद्ध बतलाया जाता है। प्रातिशाख्यों में यह सबसे बड़ा प्रातिशाख्य है और कई दृष्टियों से अपना विशेष महत्व रखता है। इसमें छह-छह पटलों के तीन अध्याय हैं। यहाँ और प्रातिशाख्य सूत्र शैली में हैं, वहाँ यह पद्यों में निर्मित है। पर व्यख्याकारों ने पद्यों को टुकड़ों में विभक्त कर सूत्ररूप में ही उनकी व्याख्या की है।
इस प्रातिशाख्य के प्रथम 1-15 अध्यायों में शिक्षा और व्याकरण से संबंधित विषयों (वर्णविवेचन, वर्णोच्चारण के दोष, संहितागत वर्णसंधियाँ, क्रमपाठ आदि) का प्रतिपादन है और अंत के तीन (16-18) अध्यायों में छंदों की चर्चा है। छंदों के विषय का प्रतिपादन, यह ध्यान में रखने की बात है, किसी अन्य प्रातिशाख्य में नहीं है। क्रमपाठ का विस्तृत प्रतिपादन (अध्याय 10 और 11 में) भी इस प्रातिशाख्य का एक उल्लेखनीय वैशिष्ट्य है। इस प्रातिशाख्य पर प्राचीन उवटकृत भाष्य प्रसिद्ध है। इसका प्रोफेसर एम.ए. रेंइए (M.A, Regnier) द्वारा किया गया फ्रेंच भाषा में (1857-1859) तथा प्रो॰ मैक्सम्यूलर द्वारा किया गया जर्मन भाषा में (1856-1869) अनुवाद उपलब्ध हैं।
कात्यायनाचार्य कृत वाजसनेयि प्रतिशाख्य
संपादित करेंइसका संबंध शुक्ल यजुर्वेद से है। यह सूत्रशैली में निर्मित है। इसमें आठ अध्याय हैं। प्रातिशाख्यीय विषय के साथ इसमें पदों के स्वर का विधान (अध्याय 2 तथा 6) और पदपाठ में अवग्रह के नियम (अध्याय 5) विशेष रूप से दिए गए हैं। इस प्रातिशाख्य का एक वैशिष्ट्य यह भी है कि इसमें पाणिनि की घु, घ जैसी संज्ञाओं के समान 'सिम्' (उसमानाक्ष), 'जित्' (क, ख, च, छ आदि) आदि अनेक कृत्रिम संज्ञाएँ दी हुई हैं। इसके 'तस्मिन्निति निर्दिष्टे पूर्वस्य' (1/134) आदि अनेक सूत्र पाणिनि के सूत्रों से अभिन्न हैं। अन्य अनेक प्राचीन आचार्यों के साथ साथ इनमें शौनक आचार्य का भी उल्लेख है। इसपर भी अन्य टीकाओं के साथ साथ उवट की प्राचीन व्याख्या प्रसिद्ध है। इसका प्रोफेसर ए. वेवर (A. Waber) का जर्मन भाषा में अनुवाद (1858) उपलब्ध है।
तैत्तिरीय प्रातिशाख्य
संपादित करेंइसका संबंध कृष्ण यजुर्वेद की तैत्तिरीय शाखा से है। यह भी सूत्रशैली में निर्मित है। इसमें 24 अध्याय हैं। सामान्य प्रातिशाख्यीय विषय के साथ साथ इसमें (अध्याय तीन और चार में) पदपाठ की विशेष चर्चा की गई है। इसकी एक विशेषता यह है कि इसमें 20 प्राचीन आचार्यों का उल्लेख है। इसकी कई प्राचीन व्याख्याएँ, त्रिभाष्यरत्न प्रसिद्ध हैं। इसका प्रोफेसर ह्विटनी (W.D. Whitney) कृत अंग्रेजी अनुवाद (1871) उपलब्ध हैं।
अथर्ववेद प्रातिशाख्य अथवा शौनकीय चतुराध्यायिका
संपादित करेंइसका आलोचनात्मक संस्करण, अंग्रेजी अनुवाद के सहित, प्रो॰ ह्विटनी (W.D. Whitney) ने 1862 में प्रकाशित किया था। इसका संबंध अथर्ववेद की शौनक शाखा से है। यह भी सूत्रशैली में और चार अध्यायों में है।
इनके अतिरिक्त ऋक्तंत्र नाम से एक साम प्रातिशाख्य तथा तीन प्रपाठकों में एक दूसरा अथर्व प्रातिशाख्य भी प्रकाशित हो चुके हैं।
प्रातिशाख्यों का समय
संपादित करेंप्रातिशाख्यों की रचना पाणिनि आचार्य से पूर्वकाल की है। उनकी सारी दृष्टि पाणिनि व्याकरण से पूर्व की दीखती है। हो सकता है, उनके उपलब्ध ग्रंथों पर कहीं-कहीं पाणिनि व्याकरण का प्रभाव हो, पर यह बहुत ही कम मात्रा में है। यह स्मरण रखने की बात है कि महाभाष्य में पाणिनीय व्याकरण को सर्व-वेद-पारिषद शास्त्र कहा है।
प्रातिशाख्यों का महत्व
संपादित करेंशिक्षा, व्याकरण (और छंद) के ऐतिहासिक विकास के अध्ययन की दृष्टि से और तत्तद् वैदिक संहिताओं के परंपराप्राप्त पाठ की सुरक्षा के लिए भी प्रातिशाख्यों का अत्यंत महत्व है।
प्रातिशाख्यों की परंपरा में ह्रास
संपादित करेंयद्यपि प्रातिशाख्यों के आलोचनात्मक अध्ययन और प्रकाशन में इधर विद्वानों ने, विशेषत: पाश्चात्य विद्वानों ने, विशेष रुचि दिखलाई है, शताब्दियों से इन ग्रंथों के अध्ययनाध्यापन की परंपरा में ्ह्रास और शैथिल्य बराबर बढ़ता हुआ प्रतीत होता है। यही कारण है कि प्रातिशाख्यों में और उनकी व्यख्याओं में भी अनेक पाठ अशुद्ध या अस्पष्ट हैं। यही कारण है कि ऋग्वेद संहिता के सायण भाष्य जैसे महान् ग्रंथ में कदाचित् एक बार भी ऋग्वेदप्रातिशाख्य का उल्लेख नहीं है और कई स्थानों पर अनेक पदों की संधि बलात् पाणिनिसूत्र से सिद्ध करने का यत्न किया गया है।
आवश्यकता है कि प्रातिशाख्यों के प्रकाश में वैदिक संहिताओं का अध्ययन किया जाए।