यास्क वैदिक संज्ञाओं के एक प्रसिद्ध व्युत्पतिकार एवं वैयाकरण थे। इन्हें निरुक्तकार कहा गया है। निरुक्त को तीसरा वेदाङ्ग माना जाता है। यास्क ने पहले 'निघण्टु' नामक वैदिक शब्दकोश को तैयार किया। निरुक्त उसी का विशेषण है। निघण्टु और निरुक्त की विषय समानता को देखते हुए सायणाचार्य ने अपने 'ऋग्वेद भाष्य' में निघण्टु को ही निरुक्त माना है। 'व्याकरण शास्त्र' में निरुक्त का बहुत महत्त्व है।[1]

यास्क
जन्म महाभारत काल के पूर्व. शान्तिपर्व अध्याय ३४२ का सन्दर्भ

यास्क के काल को लेकर विद्वानों में मतभेद है। कुछ लोग उनका जीवनकाल पाणिनि के पूर्व मानते हैं जबकि कुछ लोग पाणिनि के पश्चात। अतः उनका जीवनकाल ७००ईसापूर्व से लेकर ५०० ईसापूर्व के बीच माना जाता है।


यास्क निरुक्त के लेखक हैं, जो शब्द व्युत्पत्ति, शब्द वर्गीकरण व शब्दार्थ विज्ञान पर एक तकनीकी प्रबन्ध है। यास्क को शाकटायन का उत्तराधिकारी माना जाता है, जो वेदों के व्याख्यानकर्ता थे; उनका उल्लेख यास्क की रचनाओं में मिलता है। निरुक्त में यह समझाने का प्रयास किया गया है कि कुछ विशेष शब्दों को उनका अर्थ कैसे मिला विशेषकर वेदों में दिये गये शब्दों को। ये धातुओं , प्रत्ययों व असामान्य शब्द संग्रहों से शब्दों को बनाने के नियम तन्त्र से युक्त है।

वर्णागमो वर्णविपर्ययश्च द्वौ चापरौ वर्णविकारनाशौ |
धातोस्तथार्थतिशयेन योगस्तदुच्यते पञ्चविधं निरुक्तम्॥

निरुक्त के तीन काण्ड हैं- नैघण्टुक, नैगम और दैवत। इसमें परिशिष्ट सहित कुल चौदह अध्याय हैं। यास्क ने शब्दों को धातुज माना है और धातुओं से व्युत्पत्ति करके उनका अर्थ निकाला है। यास्क ने वेद को ब्रह्म कहा है और उसे इतिहास ऋचाओं और गाथाओं का समुच्चय माना है।

शाब्दिक वर्गीकरण व कथन के अंग

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यास्क ने शब्दों के चार वर्गों (पदचतुष्टय) का वर्णन किया है:[2]

(१) नाम = संज्ञा या मूल रूप।

(२) आख्यात = क्रिया

(३) उपसर्ग

(४) निपात

यास्क ने सत्व विद्या से सम्बंधित दो वर्गों को एक किया :

  • क्रिया या कार्य (भावः) ,
  • तत्त्व या जीव (सत्वः)।

इसके बाद सर्वप्रथम इन्होंने क्रिया का वर्णन किया जिसमें भावः ( क्रिया) प्रबल होता है जबकि दूसरी ओर सत्वः (वस्तु) प्रबल होता है।

इन्हें भी देखें

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बाहरी कड़ियाँ

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