न्यायमूर्ति श्री प्रेम शंकर गुप्त हिन्दी में निर्णय देने का प्रशंसनीय कार्य किया और इसके चलते बहुत प्रसिद्ध हुए। वे उच्च न्यायालय के अधिवक्ता, न्यायाधीश एवं हिन्दी के प्रबल पक्षधर व मनीषी के रूप में जाने जाते हैं। हिन्दी, अन्य भारतीय भाषायें व साहित्य उनके हृदय की धड़कन है। राष्ट्र भक्ती उनके सांस्कृतिक व्यक्तित्व को एक मुखर तेजस्विता प्रदान करती है और राष्ट्रभाषा के लिए उनकी प्रतिबद्धता उनके व्यक्तित्व को विशेष रूप से परिभाषित करती है।

न्यायमूर्ति प्रेम शंकर गुप्त इलाहाबाद विश्वविद्यालय से विधि स्नातक हैं। न्यायाधीश नियुक्त होने से पूर्व उन्होंने भारत के राज्य और केंद्र सरकारों में अधिवक्ता के रूप में काम किया। 1977 में उन्हें इलाहाबाद उच्च न्यायालय का स्थायी न्यायाधीश नियुक्त किया गया। उन्होंने तभी से न्यायाधीश के रूप में राजभाषा हिंदी में अपने निर्णय देना प्रारंभ किया था और अपने लगभग 15 वर्ष के कार्यकाल में उन्होंने लगभग 4000 निर्णय हिंदी भाषा में दिए। उन्हें उनके सराहनीय कार्यों के लिए अनेक अवसरों पर सम्मानित किया गया।

न्यायमूर्ति श्री गुप्त जी का जन्म उत्तर प्रदेश के एक छोटे से जिले इटावा में एक प्रतिष्ठित वैश्य परिवार में दिनांक १५ जुलाई १९३० को हुआ था। आपने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा इटावा नगरी में पूर्ण करने के उपरान्त इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक एवं फिर विधि स्नातक की उपाधि प्राप्त की। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्र के रूप में ही प्रेम शंकर जी साहित्यिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों से जुड़ गये। आपने विधि को सच्चे हृदय से अपनाया और पूरी लगन के साथ वर्ष १९५१ से विधि व्यवसाय में वकील के रूप में अपनी गृह नगरी इटावा में कार्य प्रारम्भ किया और वर्ष १९६२ में अधिवक्ता के रूप में पंजीकृत हुए। कुछ ही समय में उन्होंने अधिवक्ता के रूप में अपनी एक विशेष पहचान बना ली। उत्तर प्रदेश सरकार ने आपको वर्ष १९६४ में जिला शासकीय अधिवक्ता (फौजदारी) जनपद इटावा नियुक्त किया। जिस पद पर आप वर्ष १९७१ तक कुशलता से कार्य करते रहे।

उन्नीस सौ सत्तर के दशक के प्रारम्भ में श्री गुप्त जनपद इटावा में भरी पूरी वकालत छोड़कर उच्च न्यायालय इलाहाबाद में वकालत करने आये तो उस समय उच्च न्यायालय में अंग्रेजी का ही प्रभुत्व था और कोई सोच भी नहीं सकता था कि उच्च न्यायालय में हिन्दी में भी बहस हो सकती है, लेकिन श्री गुप्त जी ने यह प्रमाणित किया कि प्रतिभा किसी विशेष भाषा की मोहताज नहीं है और निज भाषा में की गयी अभिव्यक्ति अंग्रेजी में किये गये तर्कों से अधिक प्रभावशाली हो सकती है।

शीघ्र ही गुप्त जी को उत्तर प्रदेश शासन ने उपशासकीय अधिवक्ता, उच्च न्यायालय इलाहाबाद, फिर शासकीय अधिवक्ता खण्ड पीठ लखनऊ व बाद में शासकीय अधिवक्ता उच्च न्यायालय इलाहाबाद नियुक्त किया। इस पद पर आप निरन्तर १९७१ से १९७७ तक कार्यरत रहे। इस कार्यकाल में केन्द्रीय जॉच ब्योरो के स्पेशल काउन्सिल के रूप में आपने वर्ष १९७४ से १९७७ तक प्रसिद्ध आनन्द मार्गी केस (पी.सी. सरकार) की पटना सत्र न्यायालय में अभियोजन पक्ष की ओर से पैरवी की, तत्पश्चात वर्ष १९७७ में वरिष्ठ विशेष अधिवक्ता के रूप में ललित नारायण मिश्र हत्याकाण्ड में अभियोजन पक्ष को कुशलता से प्रस्तुत किया। इससे पूर्व श्री गुप्त ने फौजदारी के प्रसिद्ध केस शमीम रहमानी की अपील में उच्च न्यायालय इलाहाबाद में राज्य की ओर से पैरवी अपने तर्कों को हिन्दी भाषा में प्रस्तुत करके की थी जिसे उच्च न्यायालय में स्मृत किया जाता है।

भारत गणराज्य के राष्ट्रपति ने आपके विधिक दृष्टिकोण व मौलिक ज्ञान को ध्यान में रखते हुए आपको दिनांक १७.११.१९७७ को इलाहाबाद उच्च न्यायालय का स्थाई न्यायाधीश नियुक्त किया। आप इस पद पर अपनी सेवानिवृत्ति १४.०७.१९९२ तक बने रहे। इस बीच कुछ समय के लिए आप दो बार कार्य वाहक मुख्य न्यायाधीश भी रहे। विधि क्षेत्र की इस यात्रा का वर्णन आपके हिन्दी प्रेम को दर्शाये बिना निश्चित रूप से अपूर्ण ही है। न्यायमूर्ति के रूप में आपका राष्ट्रभाषा हिन्दी के प्रति योगदान अमूल्य रहा है। आपने उच्च न्यायालय में परम्परागत अंग्रेजी में निर्णय देने की परिपाटी से अलग हठते हुए हिन्दी में निर्णय देना प्रारम्भ किया। हिन्दी प्रेमियों के लिए यह एक प्रेरणा का श्रोत था। परिणाम स्वरूप उच्च न्यायालय में जहॉ केवल अंग्रेजी भाषा में कार्य होता था, अधिवक्तागण व अधिकारियों ने हिन्दी में कार्य करना प्रारम्भ कर दिया। आपने १५ वर्ष के अपने न्यायमूर्ति के कार्यकाल में लगभग ४ हजार से अधिक निर्णय राष्ट्रभाषा हिन्दी में देकर एक कीर्तिमान स्थापित किया है।

न्यायमूर्ति श्री प्रेम शंकर जी का हिन्दी प्रेम उन्हें बचपन में ही प्राप्त हो गया था। इटावा के सनातन धर्म स्कूल में जब वे अध्ययनरत थे तभी उनकी कक्षा के अध्यापक उनके गुरू स्वर्गीय श्री शिशुपाल सिंह भदौरिया ´शिशु´ ने स्वतन्त्रता आन्दोलन के समय रचित अपनी भावपूर्ण एवं ओजस्वी कविताओं के माध्यम से विद्यार्थियों में राष्ट्र प्रेम एवं राष्ट्रभाषा प्रेम का जो बीज बोया उसे न्यायमूर्ति श्री गुप्त जी ने अपने जीवन में पूर्णत: आत्मसात कर लिया एवं जीवन पर्यन्त उसी में वे रम गये।

उनके प्रारfम्भक गुरू श्री ´शिशु जी´ की कविता जो उन्हें अत्यन्त व्यथित एवं स्पर्श करती है कुछ इस प्रकार है: ´

सुनो गौर से, तो सुनाने के काबिल

कहानी सुनाने को जी चाहता है।

किसी का नहीं हू¡ हठीला विरोधी

किसी का खरीदा हुआ भी नहीं हूँ।

न बन्दी किन्हीं वाद के बन्धनों का

जहा¡ व्योम स्वच्छन्द है मैं वहीं हूँ।

मगर संतुलन में किसी की परिस्थिति

जहां चोट खाई हुई देखता हूँ,

कफन में वहीं लाल छीटें छिड़क कर

पताका उड़ाने को जी चाहता है।

सुनो गौर से तो, सुनाने के काबिल

कहानी सुनाने को जी चाहता है।´

स्वर्गीय शिशु जी के साथ आदरणीय श्री वल्लभ जी का सानिध्य भी न्यायमूर्ति श्री गुप्त जी को अपने स्कूल सनाधर्म में प्राप्त हुआ। श्री गुप्त, ´वल्लभ जी´ की देश प्रेम की निम्न कविता से अत्यन्त प्रभावित होकर स्वतन्त्रता के आन्दोलन में भी सम्मलित हुये,


´प्रिय विदा दो, मुक्त करो अब

मुझको इस मुज बन्धन से।

मेरा हृदय फटा जाता है,

मात्र भूमि के क्रन्दन से,

तुम्हीं कहो जब युद्ध छिड़ा हो,

चारों ओर देश भर में,

तब युवकों को शोभा देता,

क्या बैठे रहना घर में।

पीना है यह प्याला मुझको,

रस न सही विषधार सही,

मुझे किसी को कंठ लगाना,

तुम न सही तलवार सही।

सुनो बज रही है रणभेरी,

कोलाहल ध्वनि छाई है,

जीवित रहे मिलेंगे तो फिर,

अथवा यही विदाई है।´

हिन्दी साधना एवं सम्मान

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राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर कहते थे कि हिन्दी को अभी सम्मान मिलना शेष है। हिन्दी को खून की नहीं पसीने की आवश्यकता है तभी उसकी वास्तविक प्रगति सम्भव हो सकती है। प्रेम शंकर जी के द्वारा इस ओर किया गया परिश्रम सराहनीय है। हिन्दी में निर्णय देने के अपने अद्भुत कार्य के अलावा आपका यह मानना रहा है कि विधि क्षेत्र में हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं का प्रयोग स्वछन्द एवं कृत्रिम रूप से हो। हिन्दी के बहुत से क्लिष्ट शब्दों का व्यर्थ में प्रयोग करना उचित नहीं है। सेवानिवृत्ति के पश्चात आप सर्वस्व रूप से हिन्दी के उत्थान और उसके सम्मान की रक्षा में तन मन धन से लग गये। आपकी इस हिन्दी सेवा से अभिभूत हो उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा आपको वर्ष १९९२ में ´हिन्दी गौरव´ से सम्मानित किया गया। वर्ष १९९३ में अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन इलाहाबाद द्वारा आपको ´साहित्य वाचस्पति´ की मानध उपाधि दी गयी। इसी कड़ी में आपको वर्ष १९९८ में हिन्दी साहित्य सम्मेलन द्वारा ´पंडित श्रीनारायण चतुर्वेदी सम्मान´ भी प्रदान किया गया। उत्तर प्रदेश शासन द्वारा हिन्दी भाषा के उन्नयन एवं सराहनीय सेवा के उपलक्ष में आपको ´महामना मदन मोहन मालवीय सम्मान´ से नवाजा। महामहिम राज्यपाल उत्तर प्रदेश आचार्य विष्णुकान्त शास्त्री द्वारा सितम्बर २००० में ´तुलसी सम्मान´ तुलसी पीठ एवं शोध संस्थान के समारोह में प्रदान किया गया। आपको रामायणम् न्यास अयोध्या द्वारा एवं हिन्दी विधि प्रतिष्ठान द्वारा भी ´सारस्वत सम्मान व विशिष्ठ राज्य भाषा सम्मान´ से विभूषित किया गया।

न्यायमूर्ति प्रेम शंकर जी ने वर्ष १९९२ में जब उन्हें उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ´हिन्दी गौरव´ सम्मान से विभूषित किया गया तो उसके साथ पुरस्कृत ५१ हजार की धनराशि में उन्होंने अपने ओर से २० हजार रूपये मिलाकर ´इटावा हिन्दी सेवा निधि´ की स्थापना हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं के प्रसार, प्रचार, समृद्धी एवं उत्थान व हिन्दी के मनीषियों को पुरूस्कृत करने हेतु की। यह संस्था विगत १४ वर्षों से आपके कुशल दिशा निर्देश में सफलता के कई सोपान पार कर चुकी है।

विधि क्षेत्र में उन्होंने अपने हिन्दी प्रेम एवं अपनी भारतीय सांस्कृति के प्रति निष्ठा का विलक्षण परिचय दिया है। वास्तव में उनका लेखन, विशेषतया विधि के क्षेत्र में उनका मौलिक अवदान, मील का पत्थर कहा जा सकता है। अंग्रेजी भाषा पर भी उन्का अच्छा अधिकार होते हुए आपने राज्य भाषा में अपने निर्णय लिखकर सभी देशवासियों को एक नई दिशा दी है। इस दिशा बोध के मूल में निज भाषा उन्नति का मूलमंत्र निरंतर मुखरित होता रहा है। वे ऐसे चिन्तक और विचारक है जो सोते जागते हिन्दी भाषा और साहित्य की उपासना और सेवा करते हैं। वे एक अवकाश प्राप्त न्यायमूर्ति अवश्य है किन्तु उनका यह अवकाश आज भी राष्ट्रभाषा और राष्ट्रीय संस्कृति के लिए समर्पित है। उनके व्यक्तित्व में एक ओजस्विता है और उसी अनुपात में एक मधुरता भी, विधि की सटीक तार्ककिता है तो सदियों पुरानी भारतीय संस्कृति का प्रतिबिम्ब भी।

न्यायमूर्ति गुप्त जी अपने निराले व्यक्तित्व के लिए जाने और पहचाने जाते हैं। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी है चाहे वह हिन्दी हो, या विधि क्षेत्र हो, साहित्यिक हो, संस्कृति हो, धार्मिक हो या सामाजिक। आपने हमेशा ही अपनी सरल, साहिfत्यक व ओजस्वी वाणी से हर कार्यक्रम में जनता को हिलोर कर रखा है। परिणाम स्वरूप उनको सर्वव्यापी लोकप्रियता मिली है।

जीवन के साधक : कर्म के आराधक - न्यायमूति श्री प्रेम शंकर गुप्त