प्लेटोवाद (Platonism) अथवा अफलातूनवाद प्लेटो के दर्शन और उस उस प्रणाली से व्युतपन्न दर्शन को कहते हैं, यद्यपि समकालीन प्लेटोवादी आवश्यक रूप से उन सिद्धांतों को स्वीकार नहीं करते।[1] प्लेटोवाद पर पाश्चात्य दर्शन का गहरा प्रभाव है। इसके एकदम आधारभूत सिद्धान्तों में प्लेटोवादी अमूर्त वस्तुओं के अस्तित्व की पुष्टि करते हैं। जो दोनों प्रत्यक्ष बाहरी दुनिया और चैतन्य आंतरिक दुनिया से अलग एक तीसरे जगत् पर जोर देता है। यह नामवाद के भी विरोध में है।[1] यह संपत्तियों, प्रकारों, प्रतिज्ञप्तियों, अर्थों, संख्याओं, समुच्चयों, सत्य मानों इत्यादि (अमूर्त वस्तु सिद्धांत देखें) पर लागू हो सकता है। अमूर्त वस्तों के अस्तित्व की पुष्टि करने वाले दार्शनिकों को कभी-कभी प्लेटोवादी कहाजाता है; जो इसके अस्तित्व को अस्वीकार करते हैं उन्हें कभी-कभी नामवादी कहा जाता है। "प्लेटोवादी" और "नामवादी" दोनों शब्दों ने ही दर्शनशास्त्र के इतिहास में समझ को स्थापित किया। वे उन स्थितियों को दर्शाते हैं जिनका किसी अमूर्त वस्तु की आधुनिक धारणा से थोड़ा-बहुत लेना-देना है।[1]

प्लेटो के सिर की रोमन प्रति। दार्शनिक की मृत्यु (348/347 ईशा पूर्व) के बाद उन्हें अकादमी में रखा गया।


संकीर्ण समझ में यह शब्द रहस्यवाद का एक रूप में प्लेटोवादी यथार्थवाद के सिद्धान्तों को इंगित कर सकता है। प्लेटोवाद की केन्द्रीय अवधारणा प्रत्यय सिद्धान्तों से आवश्यक रूप से भेद रखती है। ये उस वास्तविकता के मध्य भेद है जिसका पूर्वानुमान लगया जा सकता है लेकिन अस्पष्ट है, हेरक्लिटस प्रवाह के साथ जुड़ा होता है और विज्ञान की इसका अध्ययन किया गया, वास्तविकता जो अगोचर लेकिन बोधगम्य है, तथा पारमेनीडेस के अपरिवर्तनीय अस्तित्व से जुड़ा हुआ है और गणित की तरह अध्ययन किया गया। प्लेटो की मुख्य प्रेरणा ज्यामिति थी और इसमें पाइथागोरस का प्रभाव भी दिखाई देता है। इन प्ररूपों को आद्यप्ररूप के फीदो, सिम्पोज़ियम और रिपब्लिक जैसे संवादों में वर्णित किया जाता है जो रोजमर्रा के जीवन की अधूरी प्रतियाँ हैं। अरस्तु का तीन व्यक्ति तर्क प्राचीन काल में इसकी सबसे प्रसिद्ध आलोचना है।

रिपब्लिक में सर्वश्रेष्ठ रूप को अच्छे का विचार के रूप में पहचाना जाता है, जो कारण से जानने योग्य अन्य रूपों का स्रोत है। उत्तर काल की अवधारणा सोफ़िस्त में होना, समानता और भिन्नता के रूपों को मौलिक माना गया है। प्लेटो अकादमी स्थापित की और तीसरी ईशा पूर्व आर्सेसिलॉस ने शैक्षणिक संशयवाद को अंगीकार किया जो 90 ईशा पूर्व तक इस परम्परा का केन्द्रीय सूत्र बन गया। इसके समय एंटियोकस ने स्टोइकी तत्वों को जोड़ते हुये संशयवाद अस्वीकार कर दिया और इसके साथ ही मध्य प्लेटोवाद की शुरुआत हुई।

तीसरी सदी में प्लोटिनस ने अतिरिक्त रहस्यमय तत्वों को जोड़कर नव प्लेटोवाद की नींव रखी। इसमें अस्तित्व एकला और अच्छा था जो सभी चीजों का स्रोत है। सदाचार और ध्यान में आत्मा स्वयं को ऊपर उठाकर एक से मिलन पाने की शक्ति प्राप्त करती थी। प्लेटो दर्शन के अनुसार भगवान के विचारों के रूप को समझने वाले ईसाई चर्चों द्वारा कई प्लेटो की धारणाओं को अपनाया गया। इस स्थिति को दैवीय संकल्पनवाद के रूप में भी जाना जाता है। जबकि पश्चिम में संत ऍगस्टीन और डॉक्टर ऑफ कैथोलिक चर्च के माध्यम से नव प्लेटोवाद ईसाई रहस्यवाद पर बहुत प्रभावी रहा जो प्लोटिनस के दर्शन से बहुत प्रभावित थे।[2] इसी तरह पश्चिमी ईसाई विचारों की बुनियाद रखी गयी।[3][4] प्लेटो के विभिन्न विचार रोमन कैथोलिक चर्च द्वारा समाविष्ट किये गये।[5]

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मध्यकालीन दर्शन संपादित करें

ईसाई धर्म और प्लेटोवाद संपादित करें

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पुनर्जागरण संपादित करें

विश्लेषणात्मक संपादित करें
महाद्वीपीय संपादित करें

यह सभी देखें संपादित करें

सन्दर्भ संपादित करें

  1. Rosen, Gideon (2012), Zalta, Edward N. (संपा॰), "Abstract Objects", The Stanford Encyclopedia of Philosophy (Spring 2012 संस्करण), तत्वमीमांसा अनुसंधान प्रयोगशाला, स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय, अभिगमन तिथि 2024-02-08, Philosophers who affirm the existence of abstract objects are sometimes called platonists; those who deny their existence are sometimes called nominalists. The terms "platonism" and "nominalism" have established senses in the history of philosophy, where they denote positions that have little to do with the modern notion of an abstract object. In this connection, it is essential to bear in mind that modern platonists (with a small 'p') need not accept any of the doctrines of Plato, just as modern nominalists need not accept the doctrines of medieval Nominalists.
  2. O'Connell, R. J. (1963-09-01). "The Enneads and St. Augustine's Image of Happiness". Vigiliae Christianae. 17 (3): 129. डीओआइ:10.2307/1582804.
  3. Pelikan, Jaroslav; Pelikan, Jaroslav (2007). The emergence of the Catholic tradition: 100 - 600. The Christian tradition : a history of the development of doctrine / Jaroslav Pelikan ([Nachdr.], paperback ed संस्करण). Chicago, Ill.: Univ. of Chicago Press. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-0-226-65371-6.सीएस1 रखरखाव: फालतू पाठ (link)
  4. Pelikan, Jaroslav; Pelikan, Jaroslav (2004). The growth of medieval theology: 600 - 1300. The Christian tradition : a history of the development of doctrine / Jaroslav Pelikan (Nachdr. संस्करण). Chicago, Ill.: Univ. of Chicago Press. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-0-226-65375-4.

अग्रिम पठन संपादित करें

बाहरी संबंध संपादित करें