फ्रांस का प्राचीन नाम 'गॉल' था। यहाँ अनेक जंगली जनजातियों के लोग, मुख्य रूप से, केल्टिक लोग, निवास करते थे। सन्‌ 57-51 ई.पू. में जूलियस सीजर ने उन्हें परास्त कर रोमन साम्राज्य में मिला लिया। वहाँ शीघ्र ही रोमन सभ्यता का प्रसार हो गया। प्रथम शताब्दी के बाद कुछ ही वर्षों में ईसाई धर्म का प्रचार तेजी से आरंभ हो गया और केल्टिक बोलियों का स्थान लातीनी भाषा ने ले लिया। पाँचवीं शती में जर्मन जातियों ने उसपर अक्रमण किया। उत्तर में फ्रैंक लोग बस गए। इन्हीं का एक नेता क्लोविस था जिसने सन्‌ 486 में अन्य लोगों को हरा कर अपना राज्य स्थापित किया और 496 ई. में ईसाई धर्म में अभिषिक्त हो गया। उसके उत्तराधिकारियों के समय देश में पुन: अराजकता फैल गई। तब सन्‌ 732 में चार्ल्स मार्टेल ने विद्रोहियों का दमन कर शांति और एकता स्थापित की। उसके उत्तराधिकारी पेपिन की मृत्यु (768 ई. में) होने के बाद पेपिन का पुत्र शार्लमान गद्दी पर बैठा। उसने आसपास के क्षेत्रों को जीतकर राज्य का विस्तार बहुत बढ़ा दिया, यहाँ तक कि सन्‌ 800 ई. में पोप ने उसे पश्चिमी राज्यों का सम्राट् घोषित किया।

९८५ से लेकर १९४७ तक की अवधि में फ्रांस की सीमाओं का विस्तार तथा संकुचन

शार्लमान के उत्तराधिकारी अयोग्य साबित हुए जिससे साम्राज्य विखंडित होने लगा और उत्तर से नार्समॅन लोगों के हमले शुरू हो गए। ये लोग नार्मंडी में बस गए। सन्‌ 987 में शासनसूत्र ह्यूकैपेट के हाथ में आया किंतु कुछ समय तक उसका राज्य पेरिस नगर के आस पास के क्षेत्र तक ही सीमित रहा। इधर उधर कई सामंतों का बोलबाला था जो यथेष्ट शक्तिशाली थे। 13वीं शताब्दी तक राजा की शक्ति में क्रमश: वृद्धि होती गई किंतु इस बीच शतवर्षीय युद्ध (1337-1453) के कारण इसमें समय समय पर बाधाएँ भी उपस्थित होती रहीं। जोन ऑफ आर्क नामक देशभक्त महिला ने राजा और उसके सैनिकों में जो उत्साह और स्फूर्ति भर दी थी, उससे सातवें चार्ल्स की मृत्यु (1461) तक फ्रांस की भूमि पर से अंग्रेजी आधिपत्य समाप्त हो गया। फिर लूई 11वें के शासनकाल में (1461-83 ई.) सामंतों का भी दमन कर दिया गया और वर्गंडी फ्रांस में मिला लिया गया।

आठवें चार्ल्स (1483-89) तथा 12वें लूई (1489-1515) के शासनकाल में इटली के विरुद्ध कई लड़ाइयाँ लड़ी गईं जिनका सिलसिला आगे भी जारी रहा। परिणामस्वरूप पश्चिमी यूरोप में शक्तिवृद्धि के लिए स्पेन के साथ कशमकश आरंभ हो गई। जब फ्रांस में प्रोटेस्टैट धर्म का जोर बढ़ने लगा कई फ्रेंच सरदारों ने राजनीतिक उद्देश्य से उसे अपना लिया जिससे गृहयुद्ध की आग भड़क उठी। फ्रेंच राजतंत्र स्वदेश में तो सामान्यत: प्रोटेस्टैट विचारों का दमन करना चाहता था किंतु बाहर स्पेन की ताकत न बढ़ने देने के उद्देश्य से प्रोटेस्टैटों का समर्थन करता था। नवें चार्ल्स (1560-74) तथा तृतीय हेनरी (1574-89) के राज्यकाल में गृहयुद्धों के कारण फ्रांस को बड़ी क्षति पहुँची। पेरिस, कैथालिक मत का गढ़ बना रहा। सन्‌ 1572 में हजारों प्रोटेस्टैट सेंट बार्थोलोम्यू में मार डाले गए। निदान चतुर्थ हेनरी (1589-1610) ने देश में शांति स्थापित की, धार्मिक सहिष्णुता की घोषणा की और राजा की स्थिति सुदृढ़ बना दी। एक कैथालिक द्वारा उसकी हत्या हो जाने पर उसका पुत्र 13वाँ लूई गद्दी पर बैठा। उसके मंत्री रीशल्यू ने राजा की और राज्य की शक्ति बढ़ाने का काम जारी रखा। तीसवर्षीय युद्ध में शरीक होकर उसने फ्रांस के लिए अलसेस का क्षेत्र प्राप्त किया और उसे यूरोप का प्रमुख राज्य बना दिया। 13वें लूई की मृत्यु के बाद उसका पुत्र 14वाँ लूई (1638-1715) पाँच वर्ष की अवस्था में फ्रांस का शासक बना (1643)। उसका शासन वस्तुत: बालिग होने पर 1661 ई. में प्रारंभ हुआ। शुरू में उसने ऊपरी टीमटाम में बहुत रुपया फूँक दिया, जब उसने वर्साय के प्रसिद्ध राजप्रासाद का निर्माण कराया। वृद्धावस्था में उसका स्वेच्छाचार बढ़ता गया। उसने विदेशों से युद्ध छेड़ते रहने की नीति अपनाई जिससे देश की सैनिक शक्ति और आर्थिक स्थिति को क्षति पहुँची तथा विदेशी उपनिवेश भी उससे छिन गए। उसके उत्तराधिकारियों 15वें लूई (1715-74) तथा 16वें लूई (1774-93) के समय में भी राजकोष का अपव्यय बढ़ता गया। जनता में असंतोष फैलने लगा जिसे वालटेयर तथा रूसो की रचनाओं से प्रोत्साहन मिला।

जुलाई १७८९ में बस्तील का विध्वंस फ्रांस की क्रांति की सबसे महत्वपूर्ण घटना मानी जाती है।

जब राष्ट्रीय ऋण बहुत बढ़ गया तब लूई 16वें को विवश होकर स्टेट्स-जनरल की बैठक बुलानी पड़ी। सामान्य जनता के प्रतिनिधियों ने अपनी सभा अलग बुलाई और उसे ही राष्ट्रसभा घोषित किया। यहीं से फ्रांसीसी क्रांति की शुरुआत हुई। सितंबर, 1792 में प्रथम फ्रेंच गणतंत्र उद्घोषित हुआ और 21 जनवरी 1793, को लूई 16वें को फाँसी दे दी गई। बाहरी राज्यों के हस्तक्षेप के कारण फ्रांस को युद्धसंलग्न होना पड़ा। अंत में सत्ता नैपोलियन के हाथ में आई, जिसने कुछ समय बाद 1804 में अपने को फ्रांस का सम्राट् घोषित किया। वाटरलू की लड़ाई (1815 ई.) के बाद शासन फिर बूरबों राजवंश के हाथ में आ गया। दसवें चार्ल्स ने जब 1830 ई. में नियंत्रित राजतंत्र के स्थान में निरंकुश शासन स्थापित करने की चेष्टा की, तो तीन दिन की क्रांति के बाद उसे हटाकर लूई फिलिप के हाथ में शासन दे दिया गया। सन्‌ 1848 में वह भी सिंहासनच्युत कर दिया गया और फ्रांस में द्वितीय गणतंत्र की स्थापना हुई। यह गणतंत्र अल्पस्थायी ही हुआ। उसके अध्यक्ष लूई नैपोलियन ने 1852 में राज्यविप्लव द्वारा अपने आपको तृतीय नैपोलियन के रूप में सम्राट् घोषित करने में सफलता प्राप्त कर ली। उसकी आक्रामक नीति के परिणामस्वरूप प्रशा से युद्ध छिड़ गया (1870-71), जिसमें फ्रांस को गहरी शिकस्त उठानी पड़ी। तृतीय नैपोलियन का पतन हो गया और तीसरे गणतंत्र की स्थापना की बुनियाद पड़ी।

तृतीय गणतंत्र का संविधान सन्‌ 1875 में स्वीकृत हुआ। इसने राज्य को चर्च के प्रभाव से पृथक्‌ रखने का वचन दिया और सार्वजनिक पुरुष मताधिकार के आधार पर चुनाव कराया। संविधान का एक बड़ा दोष यह था कि राष्ट्रपति मात्र कठपुतली जैसा था और कार्यपालिका भी शक्तिहीन थी। इसी से एक मंत्रिमंडल के बाद दूसरा मंत्रिमंडल बनता था और अत्यंत प्रभावशाली अवर सदन द्वारा पृथक्‌ कर दिया जाता था। फिर भी गणतंत्र ने दृढ़तापूर्वक उस स्थिति का सामना किया जो वामपंथियों और दक्षिणपंथियों के पारस्परिक झगड़ों के कारण उत्पन्न होती जा रही थी। इस समय तक एशिया तथा अफ्रीका के कतिपय क्षेत्रों पर फ्रांस का आधिपत्य स्थापित हो चुका था और प्रभाव तथा राज्यविस्तार की दृष्टि से उसका स्थान ब्रिटेन के बाद दूसरा था।

विंस्टन चर्चिल और जनरल डी गॉल

प्रथम महायुद्ध (1914-18) में फ्रांस को ब्रिटेन तथा अमरीका के साथ मिलकर जर्मनी, आस्ट्रिया तथा तुर्की से युद्ध में संलग्न होना पड़ा। विजय के परिणामस्वरूप यद्यपि अलसेस तथा लोरेन का औद्योगिक क्षेत्र पुन: फ्रांस को मिल गया, फिर भी लड़ाई मुख्यत: फ्रेंच भूमि पर ही लड़ी गई थी, इसलिए उसकी इतनी अधिक बर्वादी हुई कि वर्षों तक उसकी आर्थिक अवस्था सुधर न सकी। फरवरी, 1934 में दक्षिणपंथियों द्वारा किए गए व्यापक उपद्रवों के कारण वामपंथियों को अपनी ताकत बढ़ाने का अवसर मिल गया। सन्‌ 1936 के चुनाव में उन्हें सफलता मिली, जिससे लियाँ ब्लुम के नेतृत्व में तथाकथित 'जनता की सरकार' स्थापित की जा सकी। ब्लुम ने युद्ध का सामान तैयार करनेवाले कितने ही उद्योगों का राष्ट्रीयकरण कर दिया और कारखानों में 40 घंटे का सप्ताह अनिवार्य कर दिया। अनुदार या रूढ़िवादी दलों का विरोध बढ़ जाने पर ब्लुम को पदत्याग कर देना पड़ा। एड्डअर्ड दलादिए के नेतृत्व में सन्‌ 1938 में जो नई सरकार बनी उसका समर्थन, हिटलरी कारनामों से आसन्न संकट के कारण वामपंथियों ने भी किया। सितंबर, 1939 में ब्रिटेन के साथ साथ फ्रांस ने भी जर्मनी से युद्ध की घोषणा कर दी। 1940 की गर्मियों में जब जर्मन सेना ने बेल्जियम को ध्वस्त करते हुए पेरिस की ओर अग्रगमन किया तो मार्शल पेताँ की सरकार ने जर्मनी से संधि कर ली। फिर भी फ्रांस के बाहर जर्मनों का विरोध जारी रहा और जनरल डी गॉल के नेतृत्व में अस्थायी सरकार की स्थापना की गई। पेरिस की उन्मुक्ति के बाद डी गॉल की सरकार एलजीयर्स से उठकर पैरिस चली गई और ब्रिटेन, अमरीका आदि ने सरकारी तौर से उसे मान्यता प्रदान कर दी।

युद्ध समाप्त होने पर यद्यपि फ्रांस की आर्थिक स्थिति जर्जर हो चुकी थी, फिर भी सक्रिय उद्योग एवं अमरीका की सहायता से उसमें काफी सुधार हो गया। कार्यपालिका के अधिकारों के संबंध में मतभेद हो जाने से 1946 में डी गॉल ने पदत्याग कर दिया। दिसंबर में जो चतुर्थ गणतंत्र स्थापित हुआ, उसमें वही सब कमजोरियाँ थीं जो तृतीय गणतंत्र में थीं। सारा अधिकार राष्ट्रसभा के हाथ में केंद्रित था और विविध राजनीतिक दलों में एकता न हो सकने के कारण कोई भी मंत्रिमंडल स्थायित्व प्राप्त करने में असमर्थ रहा। इसी बीच उत्तर अफ्रीका तथा हिंदचीन में फ्रेंच शासन के विरुद्ध विद्रोह की व्यापकता बढ़ती गई। तब जनरल डी गॉल को पुन: प्रधान मंत्री के पद पर प्रतिष्ठित किया गया। नया संविधान बनाया गया जिसमें कार्यपालिका एवं राष्ट्रपति के हाथ मजबूत करने के लिए विशिष्ट अधिकार दिए गए। मतदाताओं ने अत्यधिक बहुमत से इसका समर्थन किया। नए चुनाव के बाद दिसंबर 1958 में डी गोल के नेतृत्व में पाँचवें गणतंत्र की स्थापना हुई। सन्‌ 1961 तक फ्रांस ने अपने अधीनस्थ कितने ही देशों को स्वतंत्र कर दिया। वे अब संयुक्त राष्ट्रसंघ के सदस्य बन गए हैं।

इन्हें भी देखें

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