बद्रीनाथ (नगर)

उत्तराखंड स्थित पवित्र हिंदू स्थल
(बदरीनाथ से अनुप्रेषित)

बद्रीनाथ (Badrinath) भारत के उत्तराखण्ड राज्य के चमोली ज़िले में स्थित एक नगर व महत्वपूर्ण तीर्थस्थल है।[1][2][3]

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Badrinath
बद्रीनाथ शहर
बद्रीनाथ शहर
बद्रीनाथ is located in उत्तराखंड
बद्रीनाथ
बद्रीनाथ
उत्तराखण्ड में स्थिति
निर्देशांक: 30°44′38″N 79°29′35″E / 30.744°N 79.493°E / 30.744; 79.493निर्देशांक: 30°44′38″N 79°29′35″E / 30.744°N 79.493°E / 30.744; 79.493
ज़िलाचमोली ज़िला
प्रान्तउत्तराखण्ड
देश भारत
ऊँचाई2800 मी (9,200 फीट)
जनसंख्या (2011)
 • कुल2,438
भाषाएँ
 • प्रचलितहिन्दी, गढ़वाली
बद्रीनाथ मंदिर, सांयकाल पूजा के बाद
बद्रीनाथ घाटी और अलकनंदा नदी
बद्रीनाथ से नीलकंठ पर्वत
बद्रीनाथ में हिमालय

बद्रीनाथ हिन्दुओं एवं जैनो का प्रसिद्ध तीर्थ है। यह उत्तराखण्ड के चमोली जिले में स्थित एक नगर पंचायत है। यहाँ बद्रीनाथ मन्दिर है जो हिन्दुओं के चार प्रसिद्ध धामों में से एक है। यह पहले बौद्ध मंदिर था। यह धाम जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर भगवान आदिनाथ को भी समर्पित है। वैसे इसका नाम शास्त्रोशास aryan shandilya


- पुराणों में बदरीनाथ है।

माणा गाँव

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बदरीनाथ जाने के लिए तीन ओर से रास्ता है। हल्द्वानी रानीखेत से, कोटद्वार होकर पौड़ी (गढ़वाल) से ओर हरिद्वार होकर देवप्रयाग से। ये तीनों रास्ते रुद्रप्रयाग में मिल जाते है। रुद्रप्रयाग में मन्दाकिनी और अलकनन्दा का संगम है। जहां दो नदियां मिलती है, उस जगह को प्रयाग कहते है। बदरी-केदार की राह में कई प्रयाग आते है। रुद्रप्रयाग से जो लोग केदारनाथ जाना चाहतें है, वे उधर चले जाते है।

कभी हरिद्वार से इस यात्रा में महीनों लग जाते थे, लेकिन अब तो सड़क बन जाने के कारण यात्री मोटर-लारियों से ठेठ बदरीनाथ पहुंच जाते है। हफ्ते-भर से कम में ही यात्रा हो जाती है।

रुद्रप्रयाग से नौ मील पर पीपल कोटी आती है। पीपल कोटी में जानवरों की खालें, दवाइयां और कस्तूरी अच्छी मिलती है। बस की सड़क बनने से पहले रास्ते में चट्टियां थीं।

रास्ते में ठहरने के लिए जो पड़ाव बने होते थे, उन्हीं को 'चट्टी' कहते थे। कहीं कच्चे मकान, कहीं पक्के। सब चट्टियों पर खाने-पीने का सामान मिलता था। बर्तन भी मिल जाते थे। दूध, दही, मावा, पेड़े सब-कुछ मिलता था, जूते-कपड़े तक। जगह-जगह काली कमली वाले बाबा ने धर्मशालाएं बनवा दी थी। दवाइयां भी मिलती थीं। डाकखाने भी थे।

आगे रास्ते में गरुड़-गंगा आकर अलकनन्दा में मिलती है। यहां गरुड़ जी का मन्दिर है। कहते है, लौटती बार जो गरूड़-गंगा में नहाकर पत्थर का एक टुकड़ा पूजा करने के लिए घर ले जाता है, उसे सांपों का डर नहीं रहता। यहां से पाताल गंगा की चढ़ाई शुरू होती है। सारे रास्ते में चीड़ और देवदार के पेड़ है। उन्हें देखकर मन खिल उठता है। पातालगंगा सचमुच पाताल में है। नीचे देखों तो डर लगता है। पानी मटमैला। कम है, पर बहाव बड़ा तेज है। किनारे का पहाड़ हमेशा टूटता रहता है। दो मील तक ऐसा ही रास्ता चला गया है। पातालगंगा पर नीचे उतरे, फिर ऊपर चढ़े। गुलाबकोटी पहुंचे। कहते है, सतयुग में यहीं पर पार्वती ने तप किया था। वे शिवजी से विवाह करना चाहती थीं। इसके लिए सालों पत्ते खाके रहीं। इसीसे आज इस वन का नाम ‘पैखण्ड’ यानी ‘पर्ण खण्ड़ है। वहां जाने वाले सब लोग उस पुरानी कहानी को याद करते है और फिर ‘जोषीमठ’ पहुंच जाते है। जोषीमठ एक विशेष नगर है। सारे गढ़वाल में शायद यहीं पर फल होते है। फूलों को तो पूछों मत। जोषीमठ का नाम स्वामी शंकराचार्य के साथ ही जुड़ा हुआ है। यह शंकराचार्य दो हजार साल पहले हुए है। जब हिन्दू धर्म मिट रहा था तब ये हुए। कुल बत्तीस साल जीवित रहें। इस छोटी सी उमर में वे इतने काम कर गये कि अचरज होता है। बड़े-बड़े पोथे लिखे। सारे देश में धर्म का प्रचार किया। फिर देश के चारों कोनो पर चार मठ बनाये। पूरब में पुरी, पश्चिम में द्वारिका, दक्खिन में श्रृंगेरी और उत्तर में जोषीमठ। इन चारों मठों के गुरू शंकराचार्य कहलाते है। यही शंकराचार्य थे, जिन्होनें बदरीनाथ का मन्दिर फिर से बनवाया था। सरदी के दिनो में जब बदरीनाथ बरफ से ढक जाता है तो वहां के रावल मूर्ति यहीं आकर रहते है। बदरीनाथ के मन्दिर में जो मालाएं काम आती है, वे यहीं से जाती है। यहां के मन्दिर में पैसा नहीं चढ़ाया जाता। किसी बुरी बात को छोड़ने की कसम खाई जाती है। यहां पर कीमू (शहतूत) का एक पेड़ है। कहते है, इसके नीचे बैठकर स्वामीजी ने पुस्तकें लिखी थीं। नीचे नगर में कई मन्दिर है। उनमें से एक में नृसिंह भगवान की मूर्ति है। काले पत्थर की उस सुन्दर मूर्ति का बांया हाथ बड़ा पतला है। पूछने पर पता लगा कि वह हाथ बराबर पतला होता जा रहा है। जब वह गिर जायगा तब यहां से कोई आगे न बढ़ सकेगा। सब रास्ते टूट जायंगें।

यहां से आगें बढ़े तो जैसे पाताल में उतरते चले गये। दो मील की खड़ी उतराई है। पर बीच-बीच में मिलने वाले सुन्दर झरने सब थकान दूर कर देते है। नीचे विष्णु प्रयाग है, जहां विष्णु गंगा और धौली गंगा का मिलन होता है। इन नदियों का पुल लोहे का बना हुआ है।

पाण्डुकेश्वर के पास फूलों की घाटी है, जिसे देखने दुनिया भर के लोग आते है। यहीं पर लोकपाल है, जहां सिक्खों के गुरू गोविंदसिंह ने अपने पिछले जन्म में तप किया था। कहते है, पाण्डुकेश्वर को पाण्डवों के पिता पाण्डु ने बसाया था। पांडव यहीं पैदा हुए थे। स्वर्ग भी यहीं होकर गये थे। वह वे यहां कई बार आये थे। शिवजी महाराज से धनुष लेने अर्जुन यहीं से गये थे। भीम कमल लेने यही के वनों में आये थे। नदी के बांय किनारे के पहाड़ को ‘पाण्डु चौकी कहते है। इसकी चोटी पर चौपड़ बनी हुई है। यहां बैठकर उन लोगों ने आखिरी बार चौपड़ खेली थीं कहते है, यहां का ‘योगबदरी का मन्दिर’ उन लोगों ने ही बनवाया था। आगे का पहाड़ कहीं काला, कहीं नीला, कहीं कच्चा है। बीच में कहीं निरी मिट्टी, कहीं जमा हुआ बरफ। यहां भोज-पत्र बहुत है। जब कागज नहीं थे तब भोज-पत्र पर किताबें लिखी जाती थीं। यहां गंगा कई बार पार करनी पड़ती है। ’’

रास्तें बहुत से मन्दिर और तीर्थ है। यहां हनुमान चट्टी में हनुमान मन्दिर है। यहां पांडवो को हनुमान मिले थे। चढ़ते-चढ़ते कंचनगंगा को पार करके ‘कुबेर शिला’ आई। आंख उठाकर जो देखा, सामने विशालपुरी थी, जिसके लिए धर्मशास्त्र में लिखा है कि तीनों लोंको में बहुत से तीर्थ है, पर बदरी के समान न था, न होगा।

विशालपुरी अलकनन्दा के दाहिने किनारे पर बसी हुई है। छोटा-सा बाजार है। धर्मधालाएं है। घर है। थाना-डाकघर सबकुछ है। नारायण पर्वत के चरणो में बदरीनाथ का मन्दिर है, जिसके सुनहरे कलश पर सूरज की किरणें पड़ रही थीं। बरफ से ढके हुए आकाश को छूने वाले पहाड़ों के बीच वह छोटी नगरी बड़ी अच्छी लगती थी।

बदरीनाथ की ऊंम्चाई है- १0४८० फुट, यानी कोई दो मील। एक समय था जब पथ और भी बीहड़ थे।

यह मन्दिर बहुत पुराना है। लिखा हैं मुनियों ने मूर्ति को निकाला। वह सांवली है। उसमें भगवान बदरीनारायण पद्मासन लगाये तप कर रहे है। आज भी मन्दिर में यही मूर्ति है। इसको रेशमी कपड़े और हीरे-जड़े गहने पहनाये जाते है। मन्दिर बहुत सुन्दर है। पैड़ियां चढ़कर जो दरवाजा आता है, उसमें बहुत बढ़िया जालियां बनी है। ऊपर तीन सुनहरे कलश है। अन्दर चारो ओर गरुड़, हनुमान, लक्ष्मी और घण्टाकर्ण आदि की मूर्तिया है। फिर भीतर का दरवाजा है। अन्दर मूर्ति वाले कमरे का दरवाजा चांदी का बना है। उनके पास गणेश, कुबेर, लक्ष्मी, नर-नारायण उद्वव, नारद और गरूड की मूर्तिया है। यहां बराबर मंत्रों का पाठ, घंटों का शोर और भजनों की आवाज गूंजती रहती है। अखंड़ ज्योति भी जलती रहती है और चढावा ! चढ़ावे की बात मत पूछो। अटका आदि बहुत से चढ़ावे है। वैसे अब सब सरकार के हाथ में है। यहां के सभी पुजारी, जो ‘रावल’ कहलाते है, दक्षिण के है। इससे पता लगता है कि भारत के रहनेवाले सब एक है। वहां सात कुण्ड है। पांच शिलाएं है। ब्रह्म कपाली है। अनेक धाराएं है। बहुत सी गंगाएं है। जो मुनि, ऋषि या अवतार यहां रहते थे या आये थे, उनकी याद में यहां कुछ-न-कुछ बना है। जैसे नर-नारायण यहां से न लौटे तो उनके माता-पिता भी यहीं आ बसे।

ब्रह्माजी के दो बेटे थे। उनमें से एक का नाम था दक्ष। दक्ष की सोलह बेटियां थी। उनमें से तेरह का विवाह धर्मराज से हुआ था। उनमें एक का नाम था श्रीमूर्ति। उनके दो बेटे थे, नर और नारायण। दोनों बहुत ही भले, एक-दूसरे से कभी अलग नहीं होते थे। नर छोटे थे। वे एक-दूसरे को बहुत चाहते थे। अपनी मां को भी बहुत प्यार करते थे। एक बार दोनों ने अपनी मां की बड़ी सेवा की। माँ खुशी से फूल उठी। बोली, ‘‘मेरे प्यारे बेटा, मैं तुमसे बहुत खुश हूं। बोलो, क्या चाहते हो ? जो मांगोगे वही दूंगी।’’

दोनों ने कहा, ‘‘माँ, हम वन में जाकर तप करना चाहतें है। आप अगर सचमुच कुछ देना चाहती हो, तो यह वर दो कि हम सदा तप करते रहे।’’

बेटों की बात सुनकर मां को बहुत दुख हुआ। अब उसके बेटे उससे बिछुड़ जायंगें। पर वे वचन दे चुकी थीं। उनको रोक नहीं सकती थीं। इसलिए वर देना पड़ा। वर पाकर दोनों भाई तप करने चले गये। वे सारे देश के वनों में घूमने लगे। घूमते-घूमते हिमालय पहाड़ के वनों में पहुंचे।

इसी वन में अलकनन्दा के दोनों किनारों पर दों पहाड़ है। दाहिनी ओर वाले पहाड़ पर नारायण तप करने लगे। बाई और वाले पर नर। आज भी इन दोनों पहाड़ों के यही नाम है। यहां बैठकर दोनों ने भारी तप किया, इतना कि देवलोक का राजा डर गया। उसने उनके तप को भंग करने की बड़ी कोशिश की, लेकिन उसे सफलता नहीं मिली। तब उसे याद आया कि नर-नारायण साधारण मुनि नहीं है, भगवान का अवतार है। कहते है, कलियुग के आने तक वे वहीं तप करते रहें। आखिर कलियुग के आने का समय हुआ। तब वे अर्जुन और कृष्ण का अवतार लेने के लिए बदरी-वन से चले। उस समय भगवान ने दूसरे मुनियों से कहा, ‘‘मैं अब इस रूप में यहां नहीं रहूंगा। नारद शिला के नीचे मेरी एक मूर्ति है, उसे निकाल लो और यहां एक मन्दिर बनाओं आज से उसी की पूजा करना।

नारद ने भगवान की बहुत सेवा की थी। उनके नाम पर शिला और कुण्ड़ दोनों है। प्रह्राद की कहानी तो आप लोग ही है। उनके पिता को मारकर जब नृसिंह भगवान क्रोध से भरे फिर रहे थे तब यहीं आकर उनका आवेश शान्त हुआ था। नृसिंह-शिला भी वहां मौजूद है। ब्रह्म-कपाली पर पिण्डदान किया जाता है। दो मील आगे भारत का आखिरी गांव माना जाता है। ढाई मील पर माता मूर्ति की मढ़ी है। पांच मील पर वसुधारा है। वसुधारा दो सौ फुट से गिरने वाला झरना है। आगे शतपथ, स्वर्ग-द्वार और अलकापुरी है। फिर तिब्बत का देश है। उस वन में तीर्थ-ही-तीर्थ है। सारी भूमि तपोभूमि है। वहां पर गरम पानी का भी एक झरना है। इतना गरम पानी हैकि एकाएक पैर दो तो जल जाय। ठीक अलकनन्दा के किनारे है। अलकनन्दा में हाथ दो तो गल जाय, झरने में दो तो जल जाय।

इन्हें भी देखें

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बाहरी कड़ियाँ

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  1. "Start and end points of National Highways". मूल से 22 सितंबर 2008 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 23 April 2009.
  2. "Uttarakhand: Land and People," Sharad Singh Negi, MD Publications, 1995
  3. "Development of Uttarakhand: Issues and Perspectives," GS Mehta, APH Publishing, 1999, ISBN 9788176480994