बाबूराव विष्णु पराडकर

बाबूराव विष्णु पराड़कर (16 नवम्बर 1883 - 12 जनवरी 1955) हिन्दी के जाने-माने पत्रकार, साहित्यकार एवं हिन्दीसेवी थे। उन्होने हिन्दी दैनिक 'आज' का सम्पादन किया। भारत की आजादी के आंदोलन में अखबार को बाबूराव विष्णु पराड़कर ने एक तलवार की तरह उपयोग किया। उनकी पत्रकारिता ही क्रांतिकारिता थी। उनके युग में पत्रकारिता एक मिशन हुआ करता था।

वाराणसी- उनका ज्नम स्थान

एक जेब में पिस्तौल, दूसरी में गुप्त पत्र 'रणभेरी' और हाथों में 'आज', 'संसार' जैसे पत्रों को संवारने, जुझारू तेवर देने वाली लेखनी के धनी पराडकरजी ने जेल जाने, अखबार की बंदी, अर्थदंड जैसे दमन की परवाह किए बगैर पत्रकारिता का वरण किया। मुफलिसी में सारा जीवन न्योछावर करने वाले पराडकर जी ने आजादी के बाद देश की आर्थिक गुलामी के खिलाफ धारदार लेखनी चलाई।

मराठीभाषी होते हुए भी हिंदी के इस सेवक की जीवनयात्रा अविस्मरणीय है।

बाबूराव विष्णु पराड़कर का जन्म वाराणसी में मंगलवार, 16 नवम्बर 1883 ई. (कार्तिक शुक्ल 6, सं. 1940 वि.) को हुआ। माता अन्नपूर्णाबाई और पिता विष्णु शास्त्री महाराष्ट्र से आकर वाराणसी में बसे थे। संस्कृत की प्रारंभिक शिक्षा के बाद 1900 ई. में भागलपुर से मैट्रिक परीक्षा पास की। 1903 में पहला विवाह हुआ।

1906 ई. में 'हिंदी बंगवासी' के सहायक संपादक होकर कलकत्ता गए। छह महीने बाद हिंदी साप्ताहिक 'हितवार्ता' के संपादक हुए और चार वर्ष तक वहीं रहे। साथ ही बंगाल नैशनल कालेज में हिंदी और मराठी पढ़ाते थे। 1911 ई. में 'भारतमित्र' के संयुक्त संपादक हुए जो उस समय साप्ताहिक से दैनिक हो गया था। 1916 ई. में राजद्रोह के संदेह में गिरफ्तार होकर साढ़े तीन वर्ष के लिए नजरबंद किए जाने के समय तक इसी पद पर रहे। कलकत्ता पहुँचने के पहले ही से आपका क्रांतिकारी दल से संपर्क था। वहाँ युगांतर क्रांतिकारी दल के सक्रिय सदस्य रहे।

सन्‌ 1920 में नजरबंदी से छूटने पर वाराणसी आ गए। उसी वर्ष 5 सितंबर को दैनिक 'आज' का प्रकाशन हुआ जिसकी रूपरेखा की तैयारी के समय से ही संबद्ध रहे। पहले चार वर्ष तक संयुक्त संपादक और संपादक तथा प्रधान संपादक मृत्यु पर्यंत रहे। बीच में 1943 से 1947 तक 'आज' से हटकर वहीं के दैनिक 'संसार' के संपादक रहे। वाराणसी में भी अपने पत्रकार जीवन के समय वर्षों तक उनका क्रांतिकारी गतिविधियों से सक्रिय संपर्क रहा।

सन्‌ 1931 में हिंदी साहित्य सम्मेलन के शिमला अधिवेशन के सभापति चुने गए। सम्मेलन ने उन्हें 'साहित्य वाचस्पति' की उपाधि से विभूषित किया। गीता की हिंदी टीका और प्रख्यात बँगला पुस्तक 'देशेर कथा' का हिंदी में अनुवाद इन्होंने किया ('देश की बात' नाम से)। हिंदी भाषा को सैकड़ों नए शब्द इन्होंने दिए। लिखने की विशिष्ट शैली थी जिसमें छोटे-छोटे वाक्यों द्वारा गूढ़ से गूढ़ विषय की स्पष्ट और सुबोध अभिव्यक्ति होती थी। उनकी मृत्यु वराणसी में 12 जनवरी 1955 को हुई।

उनके पौत्र आलोक पराड़कर भी पत्रकार हैं। उन्होंने वाराणसी में 'आज'और 'हिन्दुस्तान'तथा लखनऊ में 'दैनिक जागरण','हिन्दुस्तान'और 'अमर उजाला'समाचार पत्रों में कार्य किया है। वह लखनऊ से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका 'नादरंग'के सम्पादक हैं। यह पत्रिका कला, संगीत और रंगमंच पर आधारित है।

राष्ट्रीय दूरदर्शन ने बाबूराव पर वृत्तचित्र का निर्माण भी किया है जिसका प्रसारण २०११ में १६ नवम्बर को उनके जन्मदिन पर किया गया था। इसका शोध और आलेख आलोक पराड़कर का था जबकि निर्देशन लखनऊ दूरदर्शन के कार्यक्रम अधिशासी आत्म प्रकाश मिश्र ने किया। वृत्तचित्र का फिल्मांकन नागरी प्रचारिणी सभा, पराड़कर निवास, पराड़कर स्मृति भवन, आज सहित कई जगहों पर किया गया है जबकि कई बातचीत शामिल की गयी है। बाबूराव पराड़कर पर डाक विभाग ने डाक टिकट भी निकाला है।

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