बाह्य प्रत्यक्षवाद ज्ञानमीमांसा का एक सिद्धान्त है जिसके अनुसार बाह्य वस्तु का ज्ञान अनुमान से नहीं वरन् प्रत्यक्ष प्राप्त होता है। प्रत्यक्ष ज्ञान संभव माने बिना अनुमान नहीं लगाया जा सकता। यदि बाह्य वस्तु का प्रत्यक्ष कभी न हुआ हों, तो मानसिक प्रतिरूपों से बाह्य वस्तु का अस्तित्व सिद्ध ही नहीं हो सकता। इसलिए बाह्य वस्तु का ज्ञान अनिवार्य रूप से प्रत्यक्ष ही होता है। इंद्रियों के द्वारा जो कुछ दिखाई या सुनाई पड़ता है, बाह्य वस्तुएँ वैसी ही होती हैं।

अरस्तू जिसके दर्शन में बाह्य प्रत्यक्षवाद तत्व उपलब्ध हैं।

भारत में बौद्ध दर्शन की वैभाषिक शाखा के प्रवर्तक इस सिद्धांत को स्वीकार करते हैं। वे बाह्य वस्तु और मन दोनों का अस्तित्व मानते हैं। मन में बाह्य वस्तु का प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त होता है। यह प्रत्यक्ष ज्ञान इंद्रियों के माध्यम से होता है। इंद्रियाँ बाह्य जगत् के साथ संपर्क में आकर उससे एक प्रकार का संस्कार प्राप्त करती हैं। वे उन संस्कारों के साथ चित्त को प्रबुद्ध कर उसमें चेतना उत्पन्न कर देती हैं। तभी चित्त में संसार के ज्ञान का उदय होता है। जो वस्तु इंद्रियग्राह्य नहीं है, उसे मन भी नहीं जान सकता। अत: इंद्रियातीत वस्तुओं की सत्ता (जैसे आत्मा) वैभाषिकों को स्वीकार नहीं है।

पश्चिम में आधुनिक नव्यवस्तुवादी (नियो रियलिस्ट) भी बाह्यप्रत्यक्षवाद का समर्थन करते हैं। वस्तुवादी विचारधारा नई नहीं है और न बाह्यप्रत्यक्षवाद। मनुष्य स्वभाव से ही इस सिद्धांत को आदि काल से मानता आ रहा है। अरस्तू के दर्शन में इसके तत्व उपलब्ध हैं। संत टॉमस एक्विनस् ने १३वीं शताब्दी में इसका पुन: प्रतिपादन किया। आधुनिक युग में बाह्यप्रत्यक्षवादी विचारधारा जर्मनी में उदित हुई। वहाँ वस्तुवादी दार्शनिक फ्रेंज ब्रेंटानो, एलेकजेंडर मीनांग, एडमंड हसरल आदि ने बाह्य-प्रत्यक्षवाद का समर्थन किया। उनसे प्रभावित इंग्लैंड के दार्शनिक जी. ई. मूर, बट्रेंड रसेल आदि ने भी इस सिद्धांत को स्वीकार किया। इसके उपरांत अमरीका तथा अन्य अनेक देशों में इसके अनुयायी पैदा हो गए।

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