बृहत्संहिता
बृहत्संहिता वाराहमिहिर द्वारा ६ठी शताब्दी संस्कृत में रचित एक विश्वकोश है जिसमें मानव रुचि के विविध विषयों पर लिखा गया है। इसमें खगोलशास्त्र, ग्रहों की गति, ग्रहण, वर्षा, बादल, वास्तुशास्त्र, फसलों की वृद्धि, इत्रनिर्माण, लग्न, पारिवारिक सम्बन्ध, रत्न, मोती एवं कर्मकाण्डों का वर्णन है।
नीचे बृहद्संहिता के अध्याय ५७ (प्रतिमालक्षणाध्याय) के कुछ पद्य दिये गये हैं-
- (हलधर)
- बलदेवो हलपाणिः मदविभ्रमलोचनश्च कर्तव्यः ।
- विभ्रत् (बिभ्रत्) कुण्डकमेकं शंखेन्दुमृणालगौरतनुः (वपुः) ॥३६॥
- एकानंशा कार्या देवी बलदेवकृष्णयोः मध्ये ।
- कटिसंस्थितवामकरा सरोजमितरेण चौद्वहती ॥३७॥
- कार्या चतुर्भुजा या वामकराभ्यां सपुस्तकं कमलम् ।
- द्वाभ्यां दक्षिणपार्श्वे वरमर्थिष्वक्षसूत्रं च ॥३८॥
- वामोऽथवाष्टभुजायाः (वामेष्वष्टभुजायाः) कमण्डलुश्चापमंबुजं शास्त्रम् ।
- वरशरदर्पणयुक्ताः सव्यभुजाः साक्षसूत्राश्च ॥३९॥
- (साम्ब)
- शांबश्च गदाहस्तः प्रद्युम्नश्चापभृत् सुरूपश्च ।
- अनयोः स्त्रियौ च कार्ये खेटकनिस्त्रिंशधारिण्यौ ॥४०॥
- (ब्रह्मा, कुमार)
- ब्रह्मा कमण्डलुकरश्चतुर्मुखः पङ्कजासनस्थश्च ।
- स्कन्दः कुमाररूपः शक्तिधरो बर्हिकेतुश्च ॥४१॥
संरचना
संपादित करेंवृहत्संहिता में १०६ अध्याय हैं। यह अपने महान संकलन के लिये प्रसिद्ध है।
- १-२६. पीठिका, विविध ज्यौतिषोपयोगी विषय, ग्राहचार, ग्रहभुक्ति, ग्रहयुद्ध इत्यादि ।
- (१- परिचय , २- ज्योतिष, ३-आदित्यचार, ४-चन्द्रचार, ५-राहुचार, ६-भौमचार, ७-बुधचार, ८-बृहस्पतिचार, ९-शुक्रचार, १०-शनैश्चरचार, ११-केतु, १२-अगस्त्य, १३-सप्तर्षि, १४-कूर्मविभाग, १५-नक्षत्रव्यूह, १६-ग्रहभक्तियोग, १७-ग्रहयुद्ध, १८-शशिग्रहसमागम, १९-ग्रहवर्षाफल, २०-ग्रहशृंगाटक, २१-गर्भलक्षण, २२-गर्भधारण, २३-प्रवर्षण, २४-रोहिणीयोग, २५-स्वातियोग, २६-आषाढ़ीयोग)
- २७-वातचक्र,
- २८-सद्योवर्षण (वर्षा का पूर्वानुमान),
- २९-कुसुमलता (समृद्धि, आरोग्य, वृष्टि, दुर्भिक्ष आदि का पूर्वानुमान)
- ३०-सन्ध्यालक्षण (संध्या काल में दिखने वाले विविध वर्णों के आधार पर सम्भावित घटनाओं का पूर्वानुमान
- ३१-दिग्दाह
- ३२-भूकम्पलक्षण
- ३३-उल्का
- ३४-परिवेक्षालक्षण (कभी कभार सूर्य और चन्द्रमा के चारों ओर दिखने वाली वृत्ताकार प्रकाश-रेखा)
- ३५-इन्द्रायुधलक्षण
- ३६-गन्धर्वनगरलक्षण
- ३७-प्रतिसूर्यलक्षण
- ३८-रजस्-लक्षण (धूलभरी आंधी के लक्षण)
- ३९-वात्या (आकाशीय बिजली)
- ४०-सश्य-जातक
- ४१-द्रव्य-निश्चय
- ४२-नक्षत्रराश्यानुगुण्येन वित्तस्फातिः, महार्घता, और मौल्यह्रास
- ४३-इन्द्रध्वज
- ४४-नीराजनविधि
- ४५-खञ्जनकलक्षण
- ४६-उत्पाताध्याय
- ४७-मयूराचित्रक
- ४८. पुष्यस्नान (पुष्य मास में राजाओं द्वारा किया जाने वाला मङ्गलस्नान)
- ४९. पट्ट (राजाओं द्वारा धारण किए जाने वाले मुकुट)
- ५०. खड्गलक्षण (खड्गों के लक्षण)
- ५१. अङ्गविद्या (शरीर के अंगों की परीक्षा से प्राप्त भवितव्य)
- ५२. पिटकलक्षण (मुहांसों से सूचित होने वाले भवितव्य)
- ५३. वास्तुवुद्या
- ५४. उदकार्गल (अर्थात्, पृथ्व्याः बाह्यैः कैश्चिन् चिह्नैरन्तर्जलानां शोधनं, वापीकूपतटाक निर्माणायोत्खननप्रसंगे मध्ये जायमानानां शिलानां भङ्गर्थम् अभ्युपायाः, लब्धे जले पानानर्हे तस्य पानार्हतासंपादनार्थं क्रियमाणाः क्रमाः । )
- ५५. वृक्षायुर्वेद (बागवानी)
- ५६. प्रासादलक्षण (मन्दिरों से सम्बन्धित)
- ५७. वज्रलेपलक्षण (अतिदृढ वज्रलेप (सीमेन्ट) का निर्माण)
- ५८. प्रतिमालक्षण (मन्दिरों में स्थापित की जाने वली प्रतिमाओं से सम्बन्धित)
- ५९. वनसंप्रवेश (वन में प्रवेश)
- ६०. प्रतिमाप्रतिष्ठापन (मूर्ति की स्थापना)
- ६१-६७ गो-श्व –कुक्कुट- कूर्म –च्छागा –श्व –गजानां लक्षणानि ।
- ६८-पुरुषलक्षण
- ६९-पञ्चपुरुष या पञ्चमहापुरुष (पांच महान पुरुषों के लक्षण)
- ७०-कन्यालक्षण (स्त्रियों से सम्बन्धित)
- ७१. वस्त्रछेदलक्षण (वस्त्र के फटने से सम्बन्धित शकुन)
- ७२-चामरलक्षण (चामर से सम्बन्धित)
- ७३-छत्रलक्षण (छाते से सम्बन्धित)
- ७४. स्त्रीप्रशंसा
- ७५. सौभाग्यकरणम् (personality development)
- ७६. कान्दर्पिका (वीर्यवृद्धि के उपाय आदि)
- ७७. गन्धयुक्ति (सुगन्ध द्रव्य का निर्माण)
- ७८- पुंस्त्रीसमायोग (संभोग से सम्बन्धित कुछ विचार)
- ७९. शय्याशन (शय्या (बिस्तर) से सम्बन्धित)
- ८०-८३ मुक्ता पद्मरागमरकतानां लक्षणम्
- ८४. दीपलक्षणम्
- ८५. दन्तधावनार्थानां काष्ठानां लक्षणम्
- ८६-९६. विविधानि शुकनानि ।
- ९७. केषुचन नैसर्गिकेषु वैपरीत्येषु संभूतेषु तत्फल- जननसमयावधिः
- ९८-१००. तिथिनक्षत्रकरण संबध्दानां नित्यनैमित्तिकानां कर्मणां सुमुहूर्तदुर्मुहूर्तानि
- १०१-जन्मनक्षत्रा नुगुण्येन भविष्यकथनम्
- १०२- खगोलीयानां राशीनां विभागः
- १०३- विवाहपटल -- विवाहप्रसंगे ग्रहनक्षत्रादीनां स्थितिगतीरवलम्ब्य पूर्वानुमेयानि भवितव्यानि; विविधच्छन्दोबन्धानाम् उदाहरणनि च
- १०४-ग्रहगोचर
- १०५-रूपसत्र (नक्षत्रपुरुषोपासना)
- १०६. उपसंहार ।
बृहत्संहिता में गणित
संपादित करेंबृहत्संहिता में सांयोजिकी (combinatorics) से सम्बन्धित यह श्लोक विद्यामान है-
- षोडशके द्रव्यगणे चतुर्विकल्पेन भिद्यमानानाम्।
- अष्टादश जायन्ते शतानि सहितानि विंशत्या॥
- (अर्थ: सोलह प्रकार के द्रव्य विद्यमान हों तो उनमें से किसी चार को मिलाकर कुल १८२० प्रकार के इत्र बनाए जा सकते हैं।
आधुनिक गणित की भाषा में कहें तो, 16C4 = (16 × 15 × 14 × 13) / (1 × 2 × 3 × 4) = 1,820
बृहत्संहिता के अनुसार सूर्य और चंद्र के दश ग्रास
संपादित करें- सव्यापसव्यलेहग्रसननिरोधावमर्दनारोहा: ।
- आघ्रातं मध्यतमस्तमोऽन्त्य इति ते दश ग्रासा:॥ (बृहत्संहिता, राहुचाराध्यायः, श्लोक ४३)
पृथ्वी के विभिन्न भागों में प्राय: चंद्र ग्रहण एक रूप का तथा सूर्य ग्रहण अलग-अलग आकृति का दिखता है।
- (१) सव्यग्रास : ग्रहण के समय में सूर्य या चंद्र से सव्य (दक्षिण भाग) में होकर राहु गमन करे तो संसार हर्षित, भय रहित और जल से पूर्ण होता है । संसार में सूख, शांती होती है ।
- (२) अपसव्य : यदि राहु वाम भाग से होकर भ्रमण करें तो अपसव्य ग्रास होता है, जिसके कारण राजा और चोरों को पीडा होती है तथा प्रजा का नाश होता है ।
- (३) लेह ग्रास : यदि राहु, सूर्य तथा चंद्रबिंब को जिभ से चाटता हुआ प्रतित हो तो लेह नामक ग्रास होता है जिसके कारण पृथ्वी हर्षित होकर सम्पूर्ण प्राणियों से युत तथा जल पूर्ण होती है ।
- (४) ग्रसन ग्रास : यदि सूर्य या चंद्र का बिंब राहु द्वारा तृतीयांश, चतुर्थांश या आधा ग्रसित होता हो तो ग्रसन नामक ग्रास होता है। जिसके कारण स्फीत देश के राजा का धन नाश होता है तथा वंहा के रहिवासियों को अत्यंत पीडा होती है।
- (५) निरोध ग्रास : यदि सूर्य या चंद्रमंडल को राहु चारो ओर से ग्रसित करके मध्य भाग में पिंडाकार होकर बैठा हो तो निरोध नामक ग्रास होता है। यह ग्रास संसार के सभी प्राणियों को आनंद देने वाला होता है।
- (६) अवमर्दन ग्रास : यदि सूर्य या चंद्रमंडल के संपूर्ण भाग को ढककर राहु बहुत समय तक स्थिर रहे तो अवमर्दन ग्रास होता है। जिसके कारण प्रधान राजा और उस देश का नाश करता है।
- (७) आरोहण ग्रास : यदि सूर्य या चंद्रमा के ग्रहण के बाद उसी समय फिर से राहु दिखाई दे तो आरोहण नामक ग्रास होता है। विषेशत: यह ग्रास गणित सिद्ध न होने के कारण ऐसी स्थिती नहीं बनती, लेकिन आचार्य ने पूर्व शास्त्र के अनुसार इसे लिखा है।
- (८) आघ्रात ग्रास : यदि सूर्य या चंद्र का मंडल ग्रहण के समय भाप निकलती हुई नि:श्वास वायु से मलिन हुए दर्पण की तरह दिखाई दे तो आघ्रात नामक ग्रास होता है । जिसके कारण अच्छी बारिश होती है तथा प्राणियों की वृद्धी होती है ।
- (९) मध्यतम ग्रास : यदि सुर्य या चंद्रमा का मध्य भाग राहु से ढका हो और चारो ओर निर्मल बिंब हो तो मध्यतम नामक ग्रास होता है । जिसके कारण पेट की बीमारिया और मध्य भाग में स्थित देशो का नाश होता है।
- (१०) तमोन्त्य ग्रास : यदि सूर्य या चंद्र मंडल के बाहरी भाग में अधिक और मध्य भाग में कम राहु देखने में आवे तो तमोन्त्य नामक ग्रास होता है । जिसके कारण धान्यो की समाप्ति और प्राणियो को चोर का भय होता है ।
बृहत्संहिता में जलविज्ञान
संपादित करेंबृहत्संहिता में एक उदकार्गल (या दकार्गलम्, या जलार्गलम् ; शाब्दिक अर्थ - 'जल संचयन') नामक अध्याय है। 125 श्लोकों के इस अध्याय में भूगर्भस्थ जल की विभिन्न स्थितियाँ और उनके ज्ञान संबंधी संक्षेप में विवरण प्रस्तुत किया गया है। विभिन्न वृक्षों-वनस्पतियों, मिट्टी के रंग, पत्थर, क्षेत्र, देश आदि के अनुसार भूगर्भस्थ जल की उपलब्धि का इसमें अनुमान दिया गया है। यह भी बताया गया कि किस स्थिति में कितनी गहराई पर जल हो सकता है। पुनः अपेय जल को शुद्ध कर कैसे पेय बनाया जाय, यह संकेत दिया गया है।[1]
- धर्म्यं यशस्यं च वदाम्यतोऽहं दकार्गलं येन जलौपलब्धिः ।
- पुंसां यथाङ्गेषु शिरास्तथैव क्षितावपि प्रोन्नतनिम्नसंस्थाः ॥
- एकेन वर्णेन रसेन चाम्भश्च्युतं नभस्तो वसुधाविशेषात् ।
- नानारसत्वं बहुवर्णतां च गतं परीक्ष्यं क्षितितुल्यमेव ॥ -- बृहत्संहिता 54.1-2 [2]
- अर्थ - धर्म व यश को देने वाला दकार्गल को बताता हूँ जिससे भूमि में स्थित जल का ज्ञान होता है तथा उसके प्राप्ति के उपायों को करते हुए भूमि में स्थित जल को प्राप्त किया जा सके जो मानव जीवन के लिए उपयोगी सिद्ध हो। जिस प्रकार मानव जीवन में नाड़ियाँ हाती हैं जिनसे रक्तप्रवाह होता है उसी प्रकार भूमि में भी ऊँची-नीची अनेक जल शिराएं होती हैं जिनके द्वारा जलप्रवाह होता रहता है।
- वर्षा का जल सर्वत्र एक ही स्वाद वर्ण का होता है परन्तु भूमि के सन्सर्ग से उसका वर्ण व स्वाद अलग-अलग हो जाता है, अतः जल की परीक्षा भूमि के समान ही करनी चाहिए अर्थात् जिस प्रकार की भूमि होगी उसी प्रकार का जल उस स्थान पर प्राप्त होगा।
भूमि के संसर्ग से जल के स्वाद का विवेचन करते हुए वराहमिहिर ने लिखा है, “जो भूमि सशर्करा व ताम्रवर्ण की हो वहाँ जल का स्वाद कसैला होता है। कपिल वर्ण की भूमि हो तो उस स्थान का जल क्षारीय होता है। पाण्डु वर्णी भूमि का जल नमकीन होता है व नीलवर्ण की भूमि का जल मीठा होता है।
वस्तुतः दकार्गल का वर्णन ज्योतिष शास्त्र के संहिता स्कन्ध में अत्यन्त विस्तृत रूप से करते हुए विभिन्न आचार्यों ने वृक्ष, गुल्म, विवर (बिल), पिपीलिका (चींटी), मण्डूक (मेंढ़क), तृण (घास), शिला (पत्थर) आदि से युक्त इस प्रकार की भूमि पर लक्षणों के आधार पर जलप्राप्ति की संभावनाओं पर विचार किया है। भूगर्भ स्थित जल की शिराओं (नाड़ियों) का भी विस्तृत वर्णन करते हुए दकार्गल के अध्ययन से जल भण्डार की मात्रा का ज्ञान भी आचार्यों ने दिया है। जलप्राप्ति हेतु खनन के लिए प्राचीन काल में गहराई के माप हेतु प्रचलित हस्त (हाथ), पुरुष आदि मापकों का प्रयोग किया गया है।
- अतृणे सतृणा यस्मिन् सतृणे तृणवर्जिता मही यत्र ।
- तस्मिच्छिरा प्रदिष्टा वक्तव्यं वा धनं चास्मिन्
- तृणहीन स्थान पर कोई तृणयुक्त स्थान हो, या वहाँ सब दूर घास हो पर एक स्थान पर हरी घास न हो तो वहाँ साढ़े चार पुरुष नीचे शिरा होती है, या गड़ा धन होता है।[3]
बाहरी कड़ियाँ
संपादित करें- बृहत्संहिता (संस्कृत विकिस्रोत)
- वराहमिहिर द्वारा रचित बृहत्संहिता
- बृहत्संहिता का अंग्रेजी अनुवाद (भाग-१)
- वराहमिहिर की बृहत्संहिता में भूमिगत जलशिराओं का सिद्धान्त
- वराहमिहिर का उदकार्गल Archived 2020-10-26 at the वेबैक मशीन (जल की रुकावट ; भाग-१)
- वराहमिहिर का उदकार्गल Archived 2020-10-24 at the वेबैक मशीन (भाग-२)
- वराहमिहिर का उदकार्गल Archived 2020-10-27 at the वेबैक मशीन (भाग-३)
- बृहत्संहिता, चतुर्थ भाग (हिन्दी व्याख्या सहित)