बेनेदेत्तो क्रोचे का अभिव्यंजनावाद

अभिव्यंजनावाद के प्रवर्तक बेनेदेत्तो क्रोचे (Benedetto Croce) मूलतः आत्मवादी दार्शनिक हैं। उनका उद्देश्य साहित्य में आत्मा की अन्तः सत्ता स्थापित करना था। इनसे पूर्व काण्ट ने मन तथा बाह्य जगत् के तादात्म्य और समन्वय का प्रतिपादन करते हुए दृश्य जगत् की उपेक्षा की और हीगेल ने काण्ट की मान्यता स्वीकार करते हुए दृश्य जगत् को भी महत्त्व प्रदान किया। इसके विपरीत क्रोचे ने केवल मानसिक प्रक्रिया को ही महत्त्व दिया है। उनकी दृष्टि में बाह्य उपकरण गौण साधन मात्र हैं। क्रोचे का अभिव्यंजनावाद कला के मूल तत्त्व की खोज का प्रयास है। कला का वास्तविक तत्त्व क्या है अथवा उसकी आत्मा क्या है? इस विषय में क्रोचे ने अपना गम्भीर विवेचन प्रस्तुत किया है, जो सूक्ष्म भी है। क्रोचे के समस्त सौन्दर्य-विवेचन में आत्म-तत्त्व प्रतिष्ठित है। यह आत्म-तत्त्व कलाकार की चेतना है। इस आत्म-तत्त्व को क्रोचे ने आन्तरिक अभिव्यक्ति कहा है, जो इस जगत् में मुख्य रूप से दो प्रकार की प्रतिक्रिया करता है।

मानसिक व्यापारों की कोटियाँ

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क्रोचे के अनुसार मानसिक या ज्ञान की क्रियाओं के दो भेद हैं- सैद्धान्तिक या मानसिक और व्यावहारिक। इन्हीं को क्रोचे ने क्रमशः सांसारिक ज्ञान बोध (Knowledge) और सांसारिक क्रियाएँ (Action) कहा है।

कलाकार की मानसिक शक्ति या उसका सांसारिक बोध दो प्रकार से व्यक्त होता है। एक प्रकार सहज बोध का है, जो भावात्मक है। इसमें तर्क का आश्रय नहीं लिया जाता, अपितु हृदय की सहज गति को अंकित करने का प्रयास रहता है। इसे क्रोचे ने सहजानुभूति या अन्तःप्रज्ञात्मक (Intuitive) कहा है। इसी सहजानुभूति (स्वयं प्रकाश्य ज्ञान) से कला का जन्म होता है।

मानसिक बोध का दूसरा प्रकार बुद्धि प्रधान है। इसमें व्यक्ति विचार या तर्क द्वारा जगत् के रहस्यों को समझता है और उनके विषय में अपनी धारणा बनाता है। इसे क्रोचे ने तर्कज्ञान (Conceptual) कहा है।

व्यावहारिक क्रिया पक्ष के भी दो प्रकार हैं- एक आर्थिक (Economical) और दूसरा नैतिक (Moral)। आर्थिक का अर्थ है उपयोगिता तथा नैतिक का अर्थ है जीवन और जगत् के व्यवहारों का सामाजिक दृष्टि से मूल्यांकन।

इनमें सहजानुभूति क्रिया ही प्रमुख हैं। वही क्रोचे के कला-विवेचन का आधार प्रस्तुत करती है। ये चार व्यापार निम्नलिखित हैं-

  1. सहज-ज्ञान (Intuitive)
  2. तर्क-ज्ञान (Logical)
  3. आर्थिक (Economical)
  4. नैतिक (Moral)

सहज-ज्ञान और अभिव्यंजना

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सहज-ज्ञान या अन्तःप्रज्ञा और अभिव्यंजना का अभिन्न सम्बन्ध है। जहाँ सहज ज्ञान होगा वहाँ अभिव्यंजना अवश्य होगी। सहज-ज्ञान अभिव्यंजना के बिना या अभिव्यंजना सहज-ज्ञान के बिना सम्भव नहीं है। क्रोचे ने ‘अभिव्यंजना’ शब्द का प्रयोग व्यापक अर्थ में किया है, जो शाब्दिक अभिव्यंजना के बोध के साथ-साथ रेखा, स्वर, गीत आदि सभी माध्यमों का बोधक है। जिसे चित्र, संगीत, नृत्य आदि को किसी भी रूप में अभिव्यंजना होती है।

जो सहज-ज्ञान अभिव्यंजना का रूप धारण नहीं कर सकता वह वास्तव में सच्चा प्रतिभ-ज्ञान नहीं है, वह केवल प्राकृतिक तथ्य और संवेदन बनकर रह जाता है।

"Every true intuition is also expression. That, which does not objectify itself in expression, is not intuition but sensation and more natural fact."

उदाहरणार्थ, जब कोई चित्रकार किसी वस्तु की झलक मात्र देखता है तो हम यह नहीं कह सकते कि उसे सहज-ज्ञान हुआ है। हम सहज ज्ञान की उपलब्धि तब मानेंगे जब वह उसका प्रत्यक्षीकरण कर लेगा अर्थात् जब वह अपने अन्तर्मन में उसे पूरी तरह अभिव्यक्त कर लेगा। इस प्रकार क्रोचे सहजानुभूति को आन्तरिक अभिव्यंजना या आन्तरिक रूप-रचना मानता है, जो सौन्दर्य-तत्त्व को जन्म देती है। वह उसे आत्मा का अभिव्यंजनात्मक कर्म मानता है। इसी कर्म के द्वारा कलाकार भावनाओं तथा संवेगों के आवेग को नियंत्रण में रखता है और प्रभावों को बिम्बों में अभिव्यक्त कर स्वयं उनसे मुक्त हो जाता है। अतः क्रोचे सहजानुभूति को ही अभिव्यंजना मानता है। यह अभिव्यंजना आन्तरिक होती है, बाह्य नहीं।

सौन्दर्य-ज्ञान की व्याख्या करते हुए क्रोचे ने कलात्मक निर्माण की चार श्रेणियां स्थिर की हैं-

  • (१) अन्तःसंस्कार (Impression) - जब द्रष्टा किसी वस्तु को देखता है तो उसके चित्त पर कुछ संस्कार पड़ते हैं।
  • (२) अभिव्यंजना (Expression) - इन संस्कारों के जाग्रत होने पर मन-ही-मन इनकी आन्तरिक अभिव्यक्ति होने लगती है, जो अभिव्यंजना कहलाती है।
  • (३) आनुषंगिक आनन्द (Pleasure) - द्रष्टा के मन में सौन्दर्य-बोध से एक प्रकार के आनन्द की उत्पत्ति होती है।
  • (४) अभिव्यक्ति (Translated Beauty) - जब अभिव्यंजना आन्तरिक न रहकर शब्दों आदि के माध्यम से स्थूल रूप में अभिव्यक्त होती है।

किन्तु दूसरी श्रेणी में आने वाली आन्तरिक अभिव्यक्ति ही सच्ची अभिव्यंजना है, क्योंकि क्रोचे इसी को सर्वाधिक महत्त्व प्रदान करता है। क्रोचे का कवि कोई भाषा नहीं बोलता अपितु मन-ही-मन जो मूर्तिमान होता रहता है, वह उसका आनन्द उठाता है।

लेकिन जब तक बाह्य अभिव्यक्ति नहीं होती तब तक संसार में कविता का जन्म नहीं होता। वैसे भी सामान्य भाषा में अभिव्यंजना से प्रयोजन शब्दों द्वारा अभिव्यक्ति से ही है। कला में शब्दों के अतिरिक्त अभिव्यंजना के अन्य माध्यम भी होते हैं; जैसे- रंग, पत्थर आदि।

किन्तु अभिव्यंजना सिद्धान्त की मान्यता है कि बाह्य प्रकाशन अथवा सम्प्रेषण के बिना ही अभिव्यंजना की सम्पूर्ण क्रिया सम्पन्न हो जाती है।

सहजानुभूति और अन्य मानसिक व्यापार

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क्रोचे के सौंदर्य-दर्शन में केन्द्रीय तत्त्व है सहज-ज्ञान। उन्होंने पूर्ववर्ती इस धारणा का खण्डन किया कि बिना बुद्धि के सहज-ज्ञान सम्भव नहीं। सच तो यह है कि बौद्धिक तत्त्व भी सहज-ज्ञान में घुल-मिलकर उसी का रूप ग्रहण कर लेते हैं।

इसी प्रकार सहज ज्ञान और प्रत्यक्ष ज्ञान में भी भेद है। प्रत्यक्ष-ज्ञान का सम्बन्ध वास्तविक-अवास्तविक तथा देश-काल में रहता है, जबकि सहज-ज्ञान इनका भेद नहीं करता। सहज-ज्ञान की सीमा प्रत्यक्ष वस्तुओं तक ही नहीं अपितु दिशा और काल की परिधि से भी आगे तक स्पष्ट है।

सहज-ज्ञान और संवेदना में भी स्पष्ट अन्तर है, क्योंकि संवेदनाएँ (Sensation) समुचित बिम्ब अर्थात् रूप (मूर्ति) की सृष्टि नहीं कर पातीं, वह सहज-ज्ञान नहीं समझी जा सकतीं। सहज-ज्ञान प्रभावों की सक्रिय अभिव्यंजना है, जबकि संवेदना यांत्रिकता है, निष्क्रियता है। अतः सहजानुभूति ही अभिव्यंजना है। स्कॉट जेम्स का कथन है कि ‘‘क्रोचे के दर्शन के अनुसार कला कुछ नहीं, सहजानुभूति अथवा मानव-प्रभावों की अभिव्यक्ति है।’’ इस प्रकार सहज ज्ञान अन्य मानसिक व्यापारों से भिन्न है।

सहज-ज्ञान और कला.

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कला का सम्बन्ध सहजानुभूति से है। जिस समय सहजानुभूति जाग्रत होकर अभिव्यंजित होने लगती है तभी कला जन्म लेती है। क्रोचे के अनुसार कला की अभिव्यक्ति के लिए इतनी प्रक्रिया पर्याप्त है। सामान्यतः जब हम कला की चर्चा करते हैं तो हमारा अभिप्राय लिखित कृतियों अथवा रचनाओं से होता है। किन्तु क्रोचे जब कला की चर्चा करता है तो उसका अभिप्राय आन्तरिक अभिव्यक्ति से होता है, जिसका बाह्य अभिव्यक्तिकरण नहीं होता। जब सहजानुभूति स्फुरित होती है तो वह अभिव्यंजना के द्वारा कला में परिणत हो जाती है। यह पूरी प्रक्रिया आन्तरिक है, अर्थात् कला की सृष्टि तथा सिद्धि कलाकार के भीतर होती है, बाहर नहीं, क्योंकि-

The work of art (the aesthetic work) is always internal. And that is called external is no longer a work of art.

अतः कला की सृष्टि ही नहीं, उसकी सत्ता भी बाहर नहीं है।

क्रोचे के अनुसार कला आन्तरिक होने के साथ-साथ अखण्ड है, क्योंकि अन्तःप्रज्ञा या सहजानुभूति अखण्ड होती है। जब सहजानुभूति अखण्ड होगी तो उसकी अभिव्यंजना भी अखण्ड होगी, तब स्वभावतः कला भी अखण्ड होगी। वस्तुतः क्रोचे का अभिप्राय यह है कि कोई भी काव्य, चित्र या मूर्ति अपने पूर्ण, अखण्ड, अविभक्त रूप में ही कवि के मन में स्फुरित होती है और उस स्फुरण में ही वह अभिव्यंजना या कलात्मक रूप ग्रहण कर लेती है। बाद में कवि उस अन्तःस्थित रूप को कागज पर केवल लेखनीबद्ध करता है। इसलिए जिस कलाकार का प्रत्यक्षण एवं संवेदन जितना व्यापक, सूक्ष्म और समृद्ध होता है उसकी कला उतनी ही उत्कृष्ट, मनोरम तथा प्रभावशाली होती है। अतः क्रोचे के अनुसार-

  • सहज-ज्ञान और अभिव्यंजना में अभेद है।
  • प्रत्येक सहज-ज्ञान कला है।
  • कला-सृष्टि केवल आन्तरिक है।
  • कला वस्तु में नहीं अपितु रूप में है।
  • कला अखण्ड है।

प्रश्न उठता है कि अभिव्यंजनावाद में कलागत बाह्य प्रकाशन और सम्प्रेषण का क्या स्थान है? क्रोचे बाह्य-प्रकाशन चित्र, काव्य, मूर्ति आदि को ‘स्मरण दिलाने में सहायक’ अथवा ‘उत्तेजना प्रदान करने वाला’ मानता है। इसके द्वारा कलाकार फिर से उस सहज-ज्ञान को या उस क्षण की अनुभूति को लौटा लाता है जब उसके मन में उस सौन्दर्य का प्रादुर्भाव हुआ था। अतः बाह्य अभिव्यक्ति केवल व्यावहारिक उपयोग के लिए है। यही कारण है कि कला के सामाजिक उपयोग एवं सहृदय सम्वेध होने के लिए बाह्य प्रकाशन का आश्रय लेना पड़ता है। किन्तु बाह्य प्रकाशन की समस्त प्रक्रिया ज्ञान की अपेक्षा इच्छा-शक्ति से निकटतर सम्बन्ध रखती है। दूसरों के आनन्द के लिए, नैतिक परिवार के लिए, आलोचक के मन में पुनरावृत्ति के लिए अभिव्यंजना का बाह्य निरूपण के रूप में होना उसे गौण बना देता है।

अभिव्यंजनावाद में बाह्य प्रकाशन की व्यावहारिक उपयोगिता को तो माना गया है, किन्तु कला के मौलिक स्वरूप में उसका कोई उसका स्थान नहीं है। अभिव्यंजना ज्ञान-रूप है और बाह्य प्रकाशक कर्म-रूप। बिना ज्ञान के कर्म असम्भव है, किन्तु ज्ञान का अस्तित्व कर्म पर आश्रित नहीं रहता। वह अपने में ही परिपूर्ण है। निष्कर्षतः-

(१) अभिव्यंजना सिद्धान्त की स्वीकृति के उपरान्त ऐसी समस्त आलोचना, जो शिल्प-विधान और शैलीगत विशेषताओं पर आद्धृत है, अनावश्यक प्रतीत होने लगी।
(२) क्रोचे ने साहित्यिक वर्गीकरण को अमान्य घोषित कर दिया। उन्होंने अभिव्यंजना को अखण्ड मानते हुए कला के क्लासिकल, रोमांटिक, प्राचीन, अर्वाचीन आदि भेदों को निरर्थक बताया। वस्तुतः अभिव्यंजना के रूप को कोटियों, विधाओं और शैलियों में वर्गीकृत करके बांध देना न तो न्यायसंगत है और न वांछनीय।

अभिव्यंजना और सौन्दर्य

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क्रोचे ने सौन्दर्य जैसे विवादास्पद विषय को भी सरल ढंग से समझाते हुए कहा है- ‘‘सफल अभिव्यक्ति का ही दूसरा नाम सौन्दर्य है अथवा ‘‘सफल’’ विशेषण भी अनावश्यक है, केवल अभिव्यंजना को ही सौन्दर्य के नाम से जानना चाहिए, क्योंकि जो अभिव्यंजना सफल नहीं होती उसे अभिव्यंजना की संज्ञा नहीं दी जा सकती।‘‘

"Beauty is successful expression, or rather as expression and nothing more, because expression when it is not successful it is not expression."

क्रोचे की मान्यता है कि कला अन्तर की भावना या सहज-ज्ञान है और कलात्मक वस्तु का अस्तित्व उसके अभिव्यंजित होने में है। किसी कविता या सुन्दर प्राकृतिक दृश्य को हम उस समय सुन्दर मानते हैं जब हमारी भावनाएँ उसमें अभिव्यंजित होती हैं तथा हम उन वस्तुओं में अपनी भावनाओं की अभिव्यंजना करते हैं। कलाकार अपनी कलाकृति द्वारा अपनी भावनाओं को अभिव्यंजित करता है। उसका आनन्द लेने वाला वही हो सकता है जिसमें वह भावना विद्यमान है।

क्रोचे के अनुसार किसी कलाकार के काव्य अथवा शिल्प में ही सौन्दर्य की यथार्थ अभिव्यक्ति होती है। प्रकृति में कोई सौन्दर्य नहीं है और न सौन्दर्य की बाह्य सत्ता है। वस्तुतः सौन्दर्य-बोध ही सुन्दर होता है। अतः बाह्य वस्तु को सुन्दर कहना ‘सुन्दर’ शब्द का लाक्षणिक प्रयोग मानना चाहिए। क्रोचे के मतानुसार सौन्दर्य सहज-ज्ञान की अभिव्यक्ति है। चूँकि सहज-ज्ञान और अभिव्यंजना अभेदात्मक हैं इसलिए यह भी कहा जा सकता है कि सौन्दर्य सहज-ज्ञान है अथवा सौन्दर्य ही अभिव्यंजना है। इस प्रकार क्रोचे सौन्दर्य को सहज ज्ञान या अन्तर का धर्म मानता है। इसलिए उसकी बाह्य अभिव्यक्ति मानने में उसे संकोच है।

क्रोचे का मत है कि प्रत्येक व्यक्ति में कलाकार का अंश अवश्य रहता है। इसका अभिप्राय है कि प्रत्येक व्यक्ति में संवेदन-शक्ति है, उसमें सहजानुभूति और अभिव्यंजना की क्षमता है। साधारण व्यक्ति की अपेक्षा कलाकार में यह सहजानुभूति प्रखर होती है।

इस मत के अनुसार साहित्यालोचक कलाकृति का अध्ययन और मूल्यांकन तर्क से नहीं करता, अपितु उसके अध्ययन में अपनी भावना या अनुभूति का आश्रय होता है। वह कलाकृति में निहित अन्तर्दृष्टि या सहजानुभूति को हृदयंगम करता है। इस प्रकार आलोचक भी कलाकार-सिद्ध होता है। कलाकृति पर निर्णय देने के क्षण में आलोचक अपनी अनुभूति द्वारा कवि की आत्मा से एकीकरण स्थापित कर लेता है। इस प्रसंग में डॉ॰ सावित्री सिन्हा का मत उल्लेखनीय और विचारणीय है। उनकी धारणा है कि ‘‘सहजानुभूति पण्डित रामचन्द्र शुक्ल की मुक्तावस्था के निकट है। शुक्लजी ने माना है कि कविता की रचना करते समय कवि और कविता का रसास्वादन करते समय पाठक हृदय की मुक्तावस्था को प्राप्त करते हैं। शुक्लजी के विचार में काव्य-रचना अथवा काव्यास्वादन के समय व्यक्ति इतना भाव-विभोर हो उठता है कि वह अपने शरीर तथा शरीर-सापेक्ष सम्बन्धों की चिन्ता को कुछ समय के लिए स्वतः बिसार देता है। उसका शरीर-बुद्धि दोनों क्षीण हो जाते हैं, उसका अन्तःकरण आत्मा के सहज गुणों को ग्रहण करने लगता है। आत्मा के व्यापक और आनन्दमय होने के कारण उस क्षण व्यक्ति का हृदय व्यक्तिगत सीमाओं को पार करके व्यापक हो जाता है और अपूर्व आनन्द की अनुभूति प्राप्त करने लगता है। संक्षेप में मुक्तावस्था का अर्थ हुआ- हृदय की व्यापकता और आनन्दोपलब्धि।

डॉ॰ सिन्हा के मत को यदि स्वीकार किया जाए तो कलाकार या व्यक्ति सहजानुभूति की स्थिति में अपनी सीमाओं को भूल जाता है और उसकी अनुभूति इतनी प्रखर हो उठती है कि वह एकाग्र होने के कारण आनन्द की उपलब्धि करता है।

मूल्यांकन

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क्रोचे के अभिव्यंजनावाद की साहित्यिक दृष्टि से उपयोगिता विचारणीय है। क्रोचे ने काव्य के मूल तत्त्वों और कवि के मानस में काव्य-सृजन की प्रक्रिया का दिग्दर्शन इस सिद्धान्त द्वारा किया है। इस सिद्धान्त के अनुसार काव्य के रसास्वादन और आलोचना में भी उस आत्म-तत्त्व के हृदयंगम करने पर बल दिया गया है। जहाँ तक काव्य की आत्मा और इसकी रचना-प्रक्रिया का सम्बन्ध है, यह सिद्धान्त बड़ा मूल्यवान है।

किसी भी अनुभूति या कला का प्रकाशन कलाकृति के रूप में हो रहा है और वह सामाजिक व आलोचक के लिए सम्वेध बनते हैं, ऐसी स्थिति में सामाजिक के मध्य प्रेषण का माध्यम कलाकृति ही है। कला के सम्बन्ध में विचार करते समय कलाकृति की नितान्त उपेक्षा नहीं की जा सकती, भले ही कलाकृति के बाह्य रूप का इस सम्पूर्ण स्थिति में गौण महत्त्व क्यों न हो। इस बात को स्पष्ट करने के लिए मनुष्य की उपमा दी जा सकती है। मनुष्य में आत्म-तत्त्व या प्राण-तत्त्व ही प्रमुख है, इसके बिना उसके अस्तित्व की कल्पना नहीं की जा सकती है। किन्तु फिर भी मनुष्य के शारीरिक-तत्त्व की कदापि उपेक्षा नहीं की जा सकती। मनुष्य का शरीर भले ही गौण महत्त्व का हो किन्तु उस शरीर के बिना उसमें निहित आत्म-तत्त्व का प्रकाशन असम्भव है। शरीर के बिना प्राण-तत्त्व अपने अस्तित्व को व्यक्त नहीं कर सकता।

अतः स्पष्ट है कि क्रोचे के सिद्धान्त में कलाकृति के शिल्प-विधान की चर्चा को अनावश्यक समझकर अस्वीकार किया गया है। शिल्प अभिव्यंजना का अनिवार्य पक्ष है। इस पर यदि विचार नहीं किया जाएगा तो आत्म-तत्त्व की अभिव्यक्ति और उसे हृदयंगम करने की विधि में असुविधा होगी। क्रोचे के अनुसार शैलीगत विशेषताओं के आधार पर कलाकार की आलोचना निरर्थक होगी। यह सही है कि उपयोग और औचित्य का सम्बन्ध मूलतः सौन्दर्य या अभिव्यंजना से नहीं है। फिर भी जब काव्य-कला बाह्य प्रकाशन प्राप्त करके कलाकृति का रूप धारण करती है, उस समय जीवन के सहज नियम उपयोगिता और औचित्य उसके स्वाभाविक अंग बन जाते हैं। इस तथ्य की क्रोचे ने अवहेलना की है। जैसा कि कहा गया है, क्रोचे का यह सिद्धान्त बड़े महत्त्व का है, किन्तु यह नितान्त आत्मगत हो जाने के कारण एकांगी हो गया है।

हिन्दी में क्रोचे के सिद्धान्त को लेकर काफी भ्रम फैला है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अभिव्यंजना को ‘भारतीय वक्रोक्तिवाद का विलायती उत्थान’ कहकर उसे ‘वाग्वैचित्रयवाद’ की संज्ञा दी। शुक्ल जी के इस कथन के बाद से आचार्य कुन्तक के वक्रोक्तिवाद के साथ क्रोचे के अभिव्यंजनावाद की तुलना करने की परम्परा चल पड़ी है। किन्तु यह उचित प्रतीत नहीं होता। वस्तुतः क्रोचे के अभिव्यंजनावाद में उक्ति वैचित्रय नहीं है, इसे वक्रोक्तिवाद कहना भी गलत है।

संस्कृत के प्रसिद्ध आचार्य कुन्तक ने वक्रोक्ति को काव्य की आत्मा माना है। वक्रोक्ति से उनका अभिप्राय कथन की वक्रता से है। कुन्तक और क्रोचे के सिद्धान्तों में कुछ साम्य अवश्य है, परंतु वैषम्य कहीं अधिक है, जो संक्षेप में इस प्रकार है-

  • (१) क्रोचे और कुन्तक दोनों अभिव्यंजना को काव्य का प्राण-तत्त्व मानते हैं। इस दृष्टि से दोनों कलावादी आचार्य हैं।
  • (२) दोनों आचार्यों ने काव्य में कल्पना-तत्त्व को प्रमुखता प्रदान की है।
  • (३) दोनों आचार्य अभिव्यंजना अथवा उक्ति को मूलतः अखण्ड, अविभाज्य और अद्वितीय मानते हैं।
  • (४) दोनों आचार्य अभिव्यंजना अथवा सौन्दर्याभिव्यंजना में श्रेणियां नहीं मानते। अभिव्यंजना सफल होती है, कम या अधिक सफल नहीं।
  • (१) क्रोचे और कुन्तक में सबसे बड़ा अन्तर यह है कि मूलतः कुन्तक आलंकारिक आचार्य हैं, जबकि क्रोचे दार्शनिक। दोनों के दृष्टिकोण में मौलिक अन्तर है।
  • (२) कुन्तक आनन्द को सौन्दर्य की सिद्धि ही नहीं, अपितु कारण भी मानते हैं, जबकि क्रोचे के अनुसार सौन्दर्य और उसकी प्रतिरूप अभिव्यंजना अपना उद्देश्य आप ही है।
  • (३) क्रोचे की अपेक्षा कुन्तक के सिद्धान्त में वस्तु-तत्त्व की स्वीकृति अधिक गहती है।
  • (४) क्रोचे के अभिव्यंजनावाद में नीति-अनीति का प्रश्न ही नहीं उठता, जबकि वक्रोक्तिवाद भारतीय दर्शन और विचार-परम्परा के अनुरूप नीतिवादिता नहीं त्याग सका।
  • (५) क्रोचे के अनुसार काव्य की सहजानुभूति है, जबकि कुन्तक के अनुसार कवि-व्यापार।
  • (६) कुन्तक वक्रता और वार्ता में स्पष्ट भेद मानते हैं, जबकि क्रोचे उक्ति को कला का मूलाधार मानते हैं, किन्तु वक्रता और वार्ता आदि का भेद नहीं मानते।

इन्हें भी देखें

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