बैकुण्ठ शुक्ल (15 मई 1907 – 14 मई 1934) भारत के एक राष्ट्रवादी एवं क्रांतिकारी थे। वे योगेन्द्र शुक्ल के भतीजे थे जो हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के संस्थापकों में से एक थे। बैकुण्ठ शुक्ल ने फणीन्द्र नाथ घोष की हत्या कर दी थी क्योंकि वह अंग्रेज सरकार का मुखवीर था। इसके लिए अंग्रेज सरकार ने उन्हें 14 मई 1934 को गया के केन्द्रीय जेल में फाँसी पर लटका दिया था। वह हिंदुस्तान सेवा दल और हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी जैसे क्रांतिकारी संगठनों से जुड़े थे।

आरम्भिक जीवन संपादित करें

बैकुंठ शुक्ला का जन्म 15 मई 1907 को जलालपुर गांव में हुआ था जो वर्तमान में बिहार के लालगंज प्रखण्ड के मुजफ्फरपुर जिले में है। उनके चाचा योगेन्द्र शुक्ल भी एक महान क्रांतिकारी थे जो बिहार में हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोशिएसन का नेतृत्व कर रहे थे। उनके सानिध्य का बैकुण्ठ शुक्ल पर गहरा प्रभाव पड़ा और १८ वर्ष की आयु में ही वे सपत्नीक आजादी की लड़ाई में कूद पड़े।

उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा अपने गाँव में प्राप्त की और गाँव मथुरापुर में एक निम्न प्राथमिक विद्यालय में शिक्षक बन गए। उन्होंने 1930 के सविनय अवज्ञा आन्दोलन में बढ़-चढ़ कर भाग लिया जिसके लिये उन्हें पटना कैम्प जेल में सजा भुगतनी पड़ी। यहीं से बैकुंठ शुक्ला की जेल यात्रा प्रारम्भ हुई। गांधी-इरविन समझौते के बाद उन्हें अन्य सत्याग्रहियों के साथ रिहा किया गया था। रिहा होने के बाद 1931 में मुजफ्फरपुर के ऐतिहासिक तिलक मैदान में पत्नी राधिका देवी के साथ झंडा फहराया। राधिका देवी तो बच निकलीं पर बैकुण्ठ पकड़ लिए गए। बाद में 1932 में पत्नी भी पकड़ ली गईं।

सेंट्रल एसेम्बली बम कांड में भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को 1931 में फांसी की जो सजा हुई थी वह बेतिया निवासी फणीन्द्र नाथ घोष के इकबालिया गवाह के रूप में दिए गए बयान के कारण हुई थी। फणीन्द्रनाथ हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन का सदस्य था किन्तु उसने सरकारी गवाह बनकर अपने ही साथियों से गद्दारी की थी।[1] बिहार पर यह कलंक था। 1932 के उत्तरार्ध में देश के अन्य क्रांतिकारियों ने यह संदेश भेजकर पूछा कि इस कलंक को धोओगे या ढोओगे? यह कथन बड़ा गूढ़ अर्थ वाला था। इसे लेकर सशस्त्र क्रांतिकारी पार्टी सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी की बैठक हुई। फनीन्द्रनाथ घोष की हत्या के लिये लगाई गई गोटी बैकुंठ शुक्ला और चंद्रमा सिंह के नाम निकली। अब दोनों फणीन्द्र घोष की तलाश में निकल पड़े। पता चला कि वह बेतिया में ही कहीं छुपा है। साइकिल से वहां पहुंचकर उसे मार गिराया और साइकिल सड़क पर छोड़ कर भाग निकले। तब फणीन्द्र नाथ घोष अपने मित्र गणेश प्रसाद गुप्त से बात कर रहा था। गणेश ने बैकुंठ शुक्ल को पकड़ने का प्रयास किया तो उस पर भी प्रहार किये गये। फणीन्द्र नाथ घोष का अन्त 17 नवंबर को हुआ, जबकि गणेश प्रसाद का २० नवंबर १९३२ को मर गया। जाँच से इस बात की पुष्टि हुई कि फनीन्द्रनाथ घोष की हत्या बैकुंठ शुक्ल और चंद्रमा सिंह ने की है।

फणीन्द्र की मौत से ब्रिटिश सरकार की नींव हिल गयी थी। जोर-शोर से हत्यारों की तलाश शुरू हुई। अंग्रेज सरकार ने बैकुंठ शुक्ल की गिरफ्तारी पर इनाम की घोषणा कर दी। 5 जनवरी 1933 को कानपुर से चंद्रमा सिंह की गिरफ्तरी हुई। 06 जुलाई 1933 को सोनपुर के गंडक पुल पर अंग्रेजों की फौज ने जबरदस्त घेराबंदी करते हुए बैकुंथ शुक्ल को पकड़ लिया। गिरफ्तारी के समय उन्होंने ‘इंकलाब जिंदाबाद’ और ‘जोगेन्द्र शुक्ल की जय’ के नारे लगाये। मुजफ्फरपुर में दोनों पर फणीन्द्र नाथ घोष की हत्या का मुकदमा चलाया गया। उन्होंने चंद्रमा सिंह को बचाते हुए हत्या की सारी जिम्मेवारी अपने ऊपर ले ली। 23 फरवरी 1934 को सत्र न्यायाधीश ने फैसला सुनाते हुए बैकुंठ शुक्ल को फांसी की सजा दे दी, जबकि चंद्रमा सिंह को दोषी नहीं पाते हुए छोड़ दिया गया। बैकुंठ शुक्ल ने सत्र न्यायाधीश के फैसले के खिलाफ पटना उच्च न्यायालय में अपील की, लेकिन 18 अप्रैल 1934 को हाईकोर्ट ने सत्र न्यायाधीश के फैसले की पुष्टि कर दी।

13 मई को रात भर वे देश भक्ति के गीत गाते रहे थे। अन्य कैदियों ने भी रात में खाना नहीं खाया। 14 मई 1934 को गया जेल में बैकुंठ शुक्ल को फांसी दे दी गयी। उन्होने "सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है जोर कितना बाजू-ए- कातिल में है" गाते हुए फांसी का फंदा चूम लिया।[2]

बिहार राज्य सरकार ने बैकुण्ठ शुक्ल की आदमकद प्रतिमा मुजफ्फरपुर में लगाई है। उनके नाम पर गया केन्द्रीय जेल का नाम रखने की मांग विभिन्न संगठनों द्वारा समय-समय पर उठती रहती है।

सन्दर्भ संपादित करें

  1. "भगत सिंह की मौत का बदला लेने वाले बिहार के महान बलिदानी बैकुंठ शुक्ल". मूल से 14 अगस्त 2022 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 14 अगस्त 2022.
  2. बिहार को गर्व है महन बलिदानी बैकुंठ शुक्ला पर

इन्हें भी देखें संपादित करें