बौधायन धर्मसूत्र के रचयिता बौधायन (या बोधायन) हैं। किन्तु स्वयं इस धर्मसूत्र में बौधायन के मत को कई स्थलों पर उद्धृत किया गया है। एक स्थान पर तर्पण के प्रसंग में अन्य सूत्रकारों के साथ काण्व बौधायन का उल्लेख भी किया गया है। इससे स्पष्ट है कि काण्व बौधायन वर्तमान धर्मसूत्र के कर्ता नहीं हो सकते। इस धर्मसूत्र की रचना के समय वे ॠषि माने जाते थे। वर्तमान धर्मसूत्र का कर्ता इनका ही वंशज है, जिसकी अर्वाचीनता स्वतः सिद्ध है। बौधायन धर्मसूत्र के टीकाकार गोविन्दस्वामी ने भी वर्तमान धर्मसूत्र के कर्ता को काण्वायन कहा है।

यह धर्मसूत्र चार प्रश्नों में हैं। प्रश्नों का विभाजन अध्याय तथा खण्डों में किया गया है।

  • प्रथम प्रश्न में 11 अध्याय तथा 21 खण्ड हैं।
  • द्वितीय प्रश्न में 10 अध्याय तथा 12 खण्ड हैं।
  • तृतीय प्रश्न में 10 अध्याय तथा 10 ही खण्ड हैं।
  • चतुर्थ प्रश्न में 8 अध्याय तथा 8 खण्ड हैं।

तृतीय तथा चतुर्थ प्रश्न के अध्याय तथा खण्डों में कोई अन्तर नहीं है। तृतीय प्रश्न में किसी महत्वपूर्ण विषय का विवेचन न करके पूर्व विवेचित विषयों पर ही अतिरिक्त नियम दिये गये हैं। इस प्रश्न का दशम अध्याय गौतम धर्मसूत्र से उद्धृत है तथा षष्ठ अध्याय विष्णु धर्मसूत्र के अड़तालीसवें अध्याय के तुल्य है। बौधायन धर्मसूत्र में विषयवस्तु के विभाजन में अस्तव्यस्तता है। कई विषय अनेक बार तथा बिना किसी क्रम-व्यवस्था के दोहराये गये हैं। यथा दायभाग के नियमों का प्रतिपादन प्रायश्चित-प्रकरण के मध्य है। अनध्यायों की चर्चा अष्टविध विवाह के प्रसंग में की गयी है। प्रथम प्रश्न के तृतीय अध्याय में तथा पुन: 2.3.10 में स्नातक के व्रतों की चर्चा की गयी है। इस धर्मसूत्र में एक ही स्थान पर किसी भी विषय के सभी नियमों को समाप्त नहीं कर दिया जाता, अपितु एक ही विषय का भिन्न-भिन्न अध्यायों में विवेचन किया गया है। यथा-उत्तराधिकार, प्रायश्चित, शुद्धि, पुत्र-भेद तथा अनध्याय भिन्न-भिन्न स्थलों पर चर्चित हैं।

भाषा एवं शैली

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बौधायन धर्मसूत्र की भाषा पाणिनि पूर्व प्रतीत होती है। इसमें अनेक अपाणिनीय प्रयोग भी उपलब्ध होते हैं 'अभिगच्छात्' तथा 'आनयित्वा' प्रयोग पाणिनीय व्याकरण के विरुद्ध हैं। यह सूत्रग्रन्थ गद्य-पद्यमय है। ब्राह्मण-ग्रन्थों की शैली के सदृश लम्बे गद्यात्मक अंश तथा छोटे-छोटे सूत्र भी इसमें हैं। इस धर्मसूत्र में अनेक वेदमन्त्र सम्पूर्ण रूप में या आंशिक रूप में उद्धृत हैं। वैदिक मन्त्रों अथवा मन्त्रांशों का निर्देश 'इति श्रुति:' तथा 'इति विज्ञायते' द्वारा किया गया है। 'अथाप्युदाहरन्ति' कहकर अनेक श्लोकों को इसमें उद्धृत किया गया है। बौधायन प्राय: विरोधी मत को उपस्थित करने के पश्चात ही अपना मत देते हैं। इस सूत्रग्रन्थ की शैली अन्य धर्मसूत्रों की अपेक्षा सरल है। गोविन्दस्वामी ने इस तथ्य की ओर इंगित किया है कि बौधायन लाघवप्रिय नहीं हैं। विभाजन की अस्त-व्यस्तता के कारण ऐसा माना जाता है कि समय-समय पर इसमें परिवर्तन एवं परिवर्धन किये जाते रहे हैं, जिस कारण इस धर्मसूत्र का कुछ अंश प्रक्षिप्त है। यथा चतुर्थ प्रश्न बाद में जोड़ा गया प्रतीत होता है। इसके चार अध्यायों में प्रायश्चित्त का विवेचन किया गया है, जिसका प्रतिपादन पहले ही द्वितीय प्रश्न के प्रथम अध्याय में 'अथात: प्रायश्चित्तानि' कहकर दिया गया है।

बौधायन धर्मसूत्र का समय

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बौधायन धर्मसूत्र में हिरण्यकेशि, आपस्तम्ब तथा काण्व बौधायन तीनों का नाम-निर्देशपूर्वक उल्लेख हुआ। पुनरपि हिरण्यकेशि श्रौतसूत्र के भाष्यकार महादेव ने बौधायन को आपस्तम्ब से प्राचीन माना जाता है। बौधायन ने अपने धर्मसूत्र में दो बार गौतम का नाम लेकर उल्लेख किया है तथा गौतम धर्मसूत्र के 19वें अध्याय के अनेक सूत्रों को ज्यों-का-त्यों[1] तथा अनेक सूत्रों को परवर्ती रूप में अपने धर्मसूत्र में ग्रहण कर लिया है। अत: बौधायन धर्मसूत्र निश्चित रूप से गौतम धर्मसूत्र से परवर्ती रचना है। इसी प्रकार बौधायन तथा आपस्तम्ब धर्मसूत्रों में भी कई स्थानों पर समानता है। आपस्तम्ब में प्राप्त कई सूत्रों को बौधायन 'इति' लगाकर उद्धृत करते हैं। इससे यही सिद्ध होता है कि बौधायन ने इन सूत्रों को आपस्तम्ब से ग्रहण किया है। आपस्तम्ब की भाषा तथा शैली अधिक अव्यवस्थित है, साथ ही इसमें पुराने अर्थों में ही शब्दों का प्रयोग किया गया है। इस आधार पर आपस्तम्ब को बौधायन से पूर्ववर्ती माना जाता है। ब्यूहलर बौधायन को आपस्तम्ब से पूर्ववर्ती मानते हैं। उनका तर्क है कि आपस्तम्ब द्वारा प्रतिपादित मत बौधायन की अपेक्षा परवर्ती है तथा आपस्तम्ब ने बौधायन के मतों की आलोचना भी की है।

प्रतिपादित विषय

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बौधायन धर्मसूत्र में प्रतिपादित विषयों को संक्षेप में इस प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है-

प्रथम प्रश्न

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  • अध्याय-1 धर्म, आर्यावर्त, विभिन्न प्रदेशों के आचार, ब्रह्मचर्य तथा उपनयन, अभिवादन के नियम।
  • अध्याय-2 शिष्य की योग्यता तथा ब्रह्मचर्य का महत्व।
  • अध्याय-3 स्नातक के कर्तव्य।
  • अध्याय-4 कमण्डलु का महत्व।
  • अध्याय-5 आचमन तथा वस्त्रों एवं पात्रों की शुद्धि, शुद्ध वस्तुएँ, ब्याज का नियम, अशौच एवं अस्पृश्यता, भक्ष्याभक्ष्य।
  • अध्याय-6 भूमि एवं पात्र की शुद्धि।
  • अध्याय-7 यज्ञ के नियम।
  • अध्याय 8-9 पत्नी, विवाह, पुत्र के प्रकार।
  • अध्याय-10 कर का अंश, वर्णधर्म, वर्णानुसार मनुष्य-वध का दण्ड, साक्षी की योग्यता।
  • अध्याय-11 विवाह के भेद और अनध्याय।

द्वितीय प्रश्न

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  • अध्याय-1 पातक कर्मों के प्रायश्चित, पतनीय कर्म, कृच्छव्रत के भेद।
  • अध्याय-2 सम्पत्ति विभाजन तथा पुत्र के भेद, स्त्री की परतन्त्रता एवं स्त्री-धर्म।
  • अध्याय-3 स्नान, दान एवं भोजन की विधि, निवासयोग्य स्थान एवं पूज्य व्यक्ति।
  • अध्याय-4 सन्ध्योपासन, गायत्री एवं प्राणायाम।
  • अध्याय-5 शारीरिक शुद्धि एवं तर्पण।
  • अध्याय-6 गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं संन्यासी के कर्तव्य।
  • अध्याय-7 आत्मज्ञान।
  • अध्याय-8 श्राद्ध एवं दान की विधि।
  • अध्याय-9 सन्तान-उत्पत्ति का महत्व।
  • अध्याय-10 सन्यास तथा आत्मयज्ञ।

तृतीय प्रश्न

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  • अध्याय-1 परिव्राजक के भेद।
  • अध्याय-2 छ: प्रकार की जीवन-वृतियाँ।
  • अध्याय-3 वानप्रस्थ के भेद।
  • अध्याय-4 व्रतभंग का प्रायश्चित।
  • अध्याय 5-9 अघमर्षण, यावकव्रत, कूष्माण्डहोम, चान्द्रायण, अनश्नत्पारायण।
  • अध्याय-10 प्रायश्चित्त के नियम।

चतुर्थ प्रश्न

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  • अध्याय-1 प्रायश्चित्त, कन्यादान का काल, ॠतुगमन का महत्व, प्राणायाम।
  • अध्याय-2 भ्रूणहत्या का प्रायश्चित्त, अवकीर्णी का प्रायश्चित्त।
  • अध्याय-3 रहस्यप्रायश्चित्त।
  • अध्याय-4 शास्त्र-सम्प्रदाय।
  • अध्याय-5 जप तथा विविध व्रत।
  • अध्याय-6 प्रायश्चित्त के नियम।
  • अध्याय-7 धर्मपालन की प्रशंसा।
  • अध्याय-8 गणहोम।

प्रतिपाद्य का विश्लेषण

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बौधायन धर्मसूत्र में व्यक्ति के व्यक्तिगत एवं सामाजिक आचार तथा कर्तव्यों का विशद विवेचन किया गया है। भारतीय संस्कृति का आधार वर्ण-व्यवस्था रही है। इस धर्मसूत्र में सभी वर्णों एवं आश्रमों के कर्तव्यों पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। बौधायन के अनुसार ब्राह्मण का कर्तव्य वेदाध्ययन, दान लेना-देना तथा यज्ञ करना है। वेदाध्ययन के साथ-साथ यज्ञ करना, दान देना, प्राणियों की रक्षा करना क्षत्रियों के कर्तव्य हैं तथा अध्ययन, यज्ञ, कृषि, व्यापार तथा पशुपालन वैश्यों के कर्तव्य हैं। शूद्र का केवल एक ही कर्तव्य है तीनों वर्णों की सेवा करना। यद्यपि सामान्यत: इन कार्यों का विधान किया गया है, किन्तु इनमें व्यवस्थित क्रम भी देखने को मिलता है- यथा 1-5-10 में ब्राह्मणों को खेती करने की छूट भी दी गयी है। इसी प्रकार विशेष स्थिति में ब्राह्मण तथा वैश्य को भी शस्त्र ग्रहण करने का विधान किया गया है। एक स्थान पर यह भी कहा गया है कि पशुपालक, व्यापार करने वाले, भृत्यों का कार्य करने वाले तथा सूदखोर ब्राह्मणों के साथ शूद्र के समान आचरण करें। वैश्य सूद पर धन दे सकता है किन्तु अधिक ब्याज लेना पाप है।

चार आश्रम

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इस धर्मसूत्र में मनुष्य जीवन को ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा परिव्राजक के रूप में चार आश्रमों में विभक्त करके पृथक-पृथक सबके कर्तव्य गिनाये गये हैं। ब्रह्मचर्य के नियमों में ब्रह्मचारी की भिक्षा, यज्ञोपवीत, सन्ध्या, आचमन, अनध्याय आदि के सम्बन्ध में जो कुछ भी कहा गया है वह वर्तमान मनुस्मृति में निर्दिष्ट ब्रह्मचारी के कर्तव्यों के समान ही है। इतना ही नहीं, अपितु ऐसे अनेक श्लोक भी बौधायन धर्मसूत्र में उपलब्ध होते हैं, जो कि मनुस्मृति में भी विद्यमान हैं। गृहस्थ के लिए अन्य धर्मग्रन्थों की भाँति बौधायन ने भी आठ विवाह माने हैं। गृहस्थाश्रम से पूर्व विद्या समाप्त करके तीन प्रकार के स्नातकों का उल्लेख यहाँ पर किया गया है-

  • वेदस्नातक,
  • व्रतस्नातक तथा
  • वेदव्रतस्नातक।

गृहस्थ के लिए बौधायन ने देवयज्ञ, पितृयज्ञ, भूतयज्ञ, मनुष्ययज्ञ तथा ब्रह्मयज्ञ के रूप में पंच महायज्ञों का विधान किया है तथा इनको महासत्र कहा है। स्वाध्याय पर पर्याप्त बल दिया गया है, यहाँ तक कि उसे ब्रह्मयज्ञ कहा गया है। स्वाध्याय के साथ-साथ गायत्री-जप, प्राणायाम तथा सन्ध्योपासन का विधान भी यहाँ पर किया गया है। सूत्रकार का इन क्रियाओं पर सम्भवत: इसलिए बल है कि ये कार्य व्यक्ति को सन्मार्ग की ओर प्रेरित करते हैं। वैखानस अर्थात संन्यासी के लिए दस प्रकार की दीक्षा का विधान यहाँ पर किया गया है।

विवाह के विविध नियम

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यद्यपि बौधायन ने विवाह के विविध नियम बना कर स्त्री-पुरुषों की कामप्रवृत्ति को उचित दिशा देने का यत्न किया है, तथापि उन्हें पता है कि कुमार्गगामियों द्वारा समाज में अनैतिक सम्बन्ध भी पनप जाते हैं। इसी को ध्यान में रखते हुए बौधायन ने सन्तान के कई प्रकार गिनाए हैं-यथा- कानीन, दत्तक, कृत्रिम, अपविद्ध, सहोढ, क्रीत तथा पौनर्भव। इनमें से कुछ पर विचार करना आवश्यक है। अविवाहित कन्या से उत्पन्न पुत्र कानीन कहलाता है। प्रतीत होता है कि समाज में तब ऐसे पुत्र को स्वीकार कर लिया जाता था। पाणिनि ने भी इसके लिए एक सूत्र का निर्माण किया है। विवाह काल में गर्भिणी के उदर में सुरक्षित पुत्र सहोढ कहलाता है। क्लीब या पतित पति को छोड़कर अन्य पति से उत्पन्न संतान पौनर्भव कहलाती थी। इससे नियोग प्रथा की ओर संकेत मिलता है। उक्त सभी पुत्र दायभाग के अधिकारी थे। व्यभिचार के लिए बौधायन कठोरतम दण्ड का विधान करते हैं, यहाँ तक कि अग्नि में जीवित जला देने का भी।

बौधायन धर्मसूत्र में ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य के लिए क्रमशः चार, तीन तथा दो पत्नियों का विधान भी किया गया है। शूद्र के लिए केवल एक पत्नी ही विहित है। यद्यपि यह उच्च आदर्श नहीं है, साथ ही वर्णों के प्रति पक्षपात भी है; किन्तु संभव है कि उस समय समाज में यह सब कुछ स्वीकृत हो। इसी प्रसंग में बौधायन ने वर्णसंकरों का उल्लेख भी किया है। प्रतिलोम विवाह से उत्पन्न संतानों को इस धर्मसूत्र के प्रथम प्रश्न के नवम अध्याय में चाण्डाल, रथकार, कुक्कुट, वैदेहक, श्वपाक, पाराशव, निषाद आदि अनेक नामों से पुकारा गया है कि सभी वर्णसंकर संतानें हैं जो वर्णों के परस्पर संबंधों से उत्पन्न हुई हैं। प्रतीत होता है कि बौधायन धर्मसूत्र की रचना के समय समाज में उक्त अवस्था उत्पन्न हो रही थी। विवाह की वैदिक मर्यादा टूटकर वर्णसंकरता के कारण नई–नई जातियाँ बनती जा रहीं थीं। धर्मसूत्रों ने इन सबको सामाजिक मान्यता देने का उपक्रम किया जिससे कि इनकी उपेक्षा न होने पाए तथा किसी रूप में सामाजिक बंधन भी बना रहे।

दण्ड–विधान

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गौतम की भाँति बौधायन भी मानते हैं कि मनुष्य बुरे कार्यों में लिप्त हो जाता है। एतदर्थ बौधायन ने अनेक प्रकार के प्रायश्चितों तथा चन्द्रायण आदि व्रतों का विधान किया है जिससे व्यक्ति अपने पाप–भार को छोड़कर पुनः सन्मार्ग–गामी बन सके। उन्होंने इस संदर्भ में पातकों तथा उपपातकों की गणना भी की है तथा सभी के लिए दण्ड–विधान किया है। इनमें से कई दण्ड तो अत्यंत कठोर हैं – यथा – सुरापान का दण्ड जलती हुई सुरा पीकर शरीर को जलाना है। मनुस्मृति में भी इस दण्ड का विधान इसी प्रकार किया गया है। सम्भवतः कठोर दण्ड इसलिए है जिससे व्यक्ति पाप–मार्ग में प्रवृत्त ही न हो सके। बौधायन ने समान अपराध के लिए सभी वर्णों के लिए दण्ड में भेद किया है। ब्राह्मण के लिए यद्यपि कठोर दण्ड का विधान तो मिलता है तथापि उसे सभी अपराधों में अवध्य कहा गया है। वर्णाश्रम के साथ–साथ बौधायन ने राजा के अधिकार एवं कर्त्तव्यों पर भी पर्याप्त प्रकाश डाला है। राजा को प्रजा से आय का छठा भाग कर के रूप में लेना चाहिए, जिससे वह प्रजा की रक्षा कर सके। अभिज्ञानशाकुन्तलम् में भी दुष्यन्त द्वारा कर के रूप में षष्ठ भाग का ही उल्लेख किया गया है।

बौधायन ने यज्ञ के समय नए वस्त्र धारण करने का विधान किया है, साथ ही नाम लेकर यह भी कहा है कि यजमान, यजमान पत्नी तथा ऋत्विक ये सभी शुद्ध वस्त्र पहनें। इस कथन से स्पष्ट है कि स्त्रियों को भी पति के साथ यज्ञ में बैठने का अधिकार था। बौधायन ने स्त्रियों की स्वतंत्रता पर रोक लगाई है तथा इस विषय में एक श्लोक भी उद्धृत किया है, जो वर्तमान मनुस्मृति में में भी स्वल्प शब्द–भेद से उपलब्ध है। बौधायन धर्मसूत्र के अनुसार, दायभाग में भी स्त्रियों का अधिकार नहीं है। बौधायन ने कश्यप के नाम से एक श्लोक भी उद्धृत किया है – जो स्त्री द्रव्य से क्रय की जाती है उसे पत्नी का नहीं अपितु दासी का स्थान प्राप्त होता है। इस प्रकार कुल मिलाकर इस धर्मसूत्र में स्त्री की स्थिति अच्छी नहीं है। स्त्रियों के समान शूद्रों की भी बहुत अच्छी स्थिति नहीं है। एक स्थान पर उतने समय तक अनध्याय करने का विधान किया गया है, जितने समय तक शूद्र दिखलायी पड़े या उसकी ध्वनि सुनायी दे।

बौधायन धर्मसूत्र के प्रथम प्रश्न के पंचम अध्याय के अनेक सूत्रों में मांसभक्षण का प्रसंग भी चलाया गया है। सभी विद्वान ऐसा मानते हैं कि इस धर्मसूत्र में समय समय पर अनेक परिवर्तन एवं परिवर्धन होते रहे हैं, जिससे प्रतीत होता है कि यह मांस–प्रकरण तथा स्त्री एवं शूद्रों की दीनावस्था के प्रतिपादक प्रकरण भी इसमें प्रक्षिप्त कर दिए गए। इस प्रकार इस धर्मसूत्र में मानव जीवन से संबन्धित प्रायः सभी कर्त्तव्यों का विधान करके उसे प्रशस्त करने का यत्न किया गया है। तात्कालिक परिस्थितियों का प्रभाव सूत्रकार पर पड़ा ही होगा, उसी का दिग्दर्शन अनेकत्र इस धर्मसूत्र में देखने को मिलता है। इस धर्मसूत्र का प्रतिपाद्य मनुस्मृति से पर्याप्त साम्य रखता है।

बौधायन धर्मसूत्र के व्याख्याकार

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इसकी गोविन्दस्वामीकृत विवरण ‘नाम्नी’ एकमात्र व्याख्या उपलब्ध है। इस व्याख्या में गोवन्द स्वामी ने अनेक स्मृतियों के उद्धरण दिए हैं। इसके अतिरिक्त उन्होंने शातातप, शंखलिखित, महाभाष्य, योगसूत्र, भगवद्गीता तथा शाबरभाष्य से भी अनेक उद्धरण दिए हैं। श्रौतसूत्रों के भी पर्याप्त उद्धरण इसमें प्राप्त होते हैं। इन सबसे गोविन्द स्वामी की विद्वता का अनुमान किया जा सकता है। इन उद्धरणों से निश्चय ही गोविन्द स्वामी की व्याख्या के गौरव में वृद्धि हुई है।

बौधायन धर्मसूत्र के संस्करण

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सर्वप्रथम ई. हुल्त्श (E. Hultsch) ने लीपजिग से 1884 ई. में इसे प्रकाशित किया था। यह संस्करण गोविन्द स्वामी की ‘विवरण’ टीका सहित है।

सैक्रेड बुक्स ऑफ दि ईस्ट–भाग 14 में इसी संस्करण का ब्यूह्लरकृत आंग्ल भाषानुवाद ऑक्सफोर्ड से प्रकाशित हुआ। इसी का द्वितीय संस्करण 1965 ई॰ में दिल्ली में प्रकाशित हुआ। मैसूर गवर्नमेन्ट ओरियण्टल लाइब्रेरी से 1907 में एक संस्करण प्रकाशित हुआ। ‘आनन्दाश्रम स्मार्त्तसमुच्चय’ के अन्तर्गत 1929 ई. में पूना से प्रकाशित है।

1924 ई. में चौखम्बा संस्कृत सीरिज ऑफिस वाराणसी ने भी एक संस्करण प्रकाशित किया जिसका सम्पादन पण्डित चिन्नस्वामी शास्त्री ने किया है। इस संस्करण के अंत में बौधायन धर्म के सूत्रों में आये हुए प्रत्येक पद की सूची भी दी हुई है। 1972 में चौखम्बा संस्कृत सीरिज वाराणसी से ही इसका द्वितीय संस्करण प्रकाशित हुआ है, जिसका सम्पादन डॉ॰ उमेश चन्द्र पाण्डेय ने किया है। इसमें सूत्रों का हिन्दी अनुवाद भी है। प्रस्तावना में अनेक उपयोगी विषयों की विवेचना है।

इन्हें भी देखें

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बाहरी कड़ियाँ

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