ईसाई विश्वास के अनुसार ईश्वर ने प्रेम से प्रेरित होकर मनुष्य को अपने परमानंद का भागी बनाने के उद्देश्य से उसकी सृष्टि की है। प्रथम मनुष्य ने ईश्वर की इस योजना को ठुकरा दिया और इस प्रकार संसार में पाप का प्रवेश हुआ (देखिए, आदिपाप)। मनुष्यों को पाप से छुटकारा दिलाने और उनके लिए मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करने के उद्देश्य से ईश्वर ने अवतार लिया और ईसा के रूप में प्रकट होकर मनुष्य के लिए धर्म का तत्व स्पष्ट कर दिया। ईसा ने सिखलाया कि ईश्वर का वास्तविक स्वरूप प्रेम में हैं; वह एक दयालु पिता है जो सभी मनुष्यों को अपनी संतान मानकर उन्हें अपने पास बुलाना चाहता है। मनुष्य को ईश्वर की यह योजना स्वीकार करनी चाहिए और अपने पापों के लिए पश्चात्ताप करना चाहिए, क्योंकि पाप ईश्वर के प्रति विद्रोह है। धर्म का सार इसमें है कि मनुष्य ईश्वर पर विश्वास करे, उसपर भरोसा रखे और उसके प्रति प्रेमपूर्ण आत्मसमर्पण करे।

इस प्रकार हम देखते हैं कि ईसाई धर्म भक्तिभावप्रधान धर्म है, यद्यपि इसमें कर्मकांड की अपेक्षा नहीं होती। ईसाइयों की भक्तिभावना निर्गुण ईश्वर की भक्ति तक सीमित नहीं होती है। वे ईसा को ईश्वर मानते हैं और ईसा के जीवन की घटनाओं पर, विशेषकर उनके दु:खभोग तथा उनकी क्रूस की मृत्यु पर, मनन और ध्यान करते हुए अपने हृदय में कोमल भक्तिभाव उत्पन्न करते हैं और जीवन की कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करने के लिए ईसा के उदाहरण से प्रेरणा लेते हैं।

रोमन काथलिक और प्राच्य चर्च में ईसा की माता मरियम तथा संतों से भी प्रार्थना की जाती है क्योंकि विश्वास किया जाता है कि वे भी मनुष्यों की बिनतियाँ सुनते हैं और ईश्वर के विधान के अनुसार उनकी सहायता करते हैं।


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