भजनसिंह 'सिंह' (29 अक्टूबर 1905 - 10 अक्टूबर 1996) महान गढ़वाली कवि एवं साहित्यकार थे। गढ़वाली साहित्य में भजन सिंह ‘सिंह’ को युग प्रवर्तक के रूप में जाना जाता है। गढ़वाली साहित्य में स्वतन्त्रता पूर्व का युग ‘सिंह’ युग के नाम से जाना जाता है। सिंह ने पर्वतीय जनपदों में सुधारवादी आन्दोलन का नेतृत्व किया। अतः तत्कालीन सुधारवादी युग ‘सिंह’ युग के नाम से प्रसिद्ध हुआ। सैनिक पृष्ठभूमि से होने के साथ-साथ वे चिन्तक, अध्येता व सृजनकार भी थे।

भजन सिंह ‘सिंह’ जी का जन्म 29 अक्टूबर 1905 में हुआ। उनका जन्म कफोला वंश के अध्यापक पिता रतनसिंह बिष्ट के परिवार पौड़ी जनपद पट्टी सितोनस्यूं ग्राम कोटसाड़ा में हुआ था। जन्मते ही माता के स्वर्ग सिधारने से बुआ के असीम लाड़-प्यार तथा पिता के अनुशासन में वह बालक भजन सिंह तपे हुए सोने की भाँति निखरता चला गया। परिवार की दुर्बल आर्थिक स्थिति के साथ ही स्वाध्याय एवं परिश्रम के बल पर भजन सिंह ने अपने विशिष्ट व्यक्तित्व का निर्माण किया। देश की पुरातन सभ्यता एवं संस्कृति से उन्हें विशेष लगाव एवं गर्व था, साथ ही हिन्दी तथा गढ़वाली भाषा के संवर्धन में उन्हें गहरी एवं समान रुचि थी । समाज के असहाय और निर्बल वर्ग के प्रति उनकी गहरी संवेदना थी। सामाजिक बुराईयों, अंधविश्वासों एवं कट्टरपंथियों के वे सदैव घोर विरोधी रहे। अराष्ट्रीय, अमानवीय तथा अवैज्ञानिक दृष्टिकोण के प्रति विद्रोही किन्तु संयत तेवरों के कारण ही समालोचकों ने उन्हें "मर्यादित विद्रोह के अथक साधक" कहा। अपनी इन्हीं विशेषताओं के कारण 'सिंह' 'उत्तराखण्डी कबीर' कहलाए। 'सिंह' जी ने 'लोकगीत' एवं 'लोकोक्ति' संकलन के द्वारा भी गढ़वाली साहित्य की भी वृद्धि की। गढ़वाली कविता में काव्यशास्त्रीय परम्पराओं यथा - राग, रस-छन्द, अलंकार तथा गजलों, बहरे तबील आदि के प्रयोगों ने गढ़वाली कविता को अनूठी प्रौढ़ता एवं लोकप्रियता प्रदान की। उनकी अनेक गढ़वाली कविताएँ गढ़वाल के लोकगीतों की भाँति प्रसिद्ध हैं तथा उनकी बहुत सी रचनाएँ कैसेट रूप में भी प्रचलित हैं। उनका 'खुदेड़-बेटी' गीत-

बौडी-बौडी ऐगे ब्वै, देख पूष मैना।
गौं कि बेटी ब्वारी ब्वैे मैत आई गैना। (सिंहनाद)

इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है।

श्री भजन सिंह की गढ़वाल के वैभवशाली अतीत के प्रति गहरी जिज्ञासा थी। उन्होंने उत्तराखण्ड के इतिहास के विवादित विषय "आर्यों का आदि निवास" को लेकर तीस (30) वर्षों के गहन अध्ययन, मनन, अनुसन्धान के द्वारा इस सम्बन्ध में भ्रामक तथ्यों को दूर करने का प्रयत्न किया और भारतीय एवं पाश्चात्य विद्वानों एवं ग्रन्थों के सुस्पष्ट तथ्यों तथा प्रमाणों के साथ "आर्यों का आदि निवास मध्य हिमालय" सिद्ध किया। इसी क्रम में उनकी 'उत्तराखण्ड के वर्तमान निवासी', 'गढ़वाल और उसके कानूनी ग्रन्थ', 'कालिदास के ग्रन्थों में गढ़वाल' आदि शोधपूर्ण लघु पुस्तकें प्रकाशित हुईं।

गद्य एवं पद्य विधाओं को मिलाकर उन्होंने गढ़वाली एवं हिन्दी की 20 से अधिक कृतियों के माध्यम से साहित्य की महान सेवा की। उनकी सर्वप्रथम कृति 'अमृता वर्षा' किशोर वय का सफल प्रयास कहा जा सकता है। इसमें सिंह जी का जीवन-दर्शन उदात्त विचार, भाव-प्रवणता बीज रूप में स्पष्ट दृष्टिगोचर होते हैं। इस पुस्तक में चौदह-पन्द्रह वर्षीय बालक द्वारा सामाजिक कुरीतियों, ज्वलन्त समस्याओं एवं राष्ट्रीय-चेतना से सम्बन्धित कविताएँ कवि की अन्तर्दृष्टि एवं गहन संवेदनशीलता का परिचय दे देती हैं यथा -

हा ! सर्व गुण सम्पन भारत आज दीन-मलीन है।
था, जो जगत गुरु आज देखो ज्ञान-चक्षु विहीन है॥

‌उल्लेखनीय है कि कवि का समस्त साहित्य-सृजन आजीवन मातृशक्ति, मातृभाषा एवं मातृभूमि को समर्पित रहा। उनकी ' माँ ' खण्डकाव्य कृति मातृशक्ति के चरणों में चढ़ाया गया एक श्रद्धासुमन है। समस्त सृष्टि की स्त्री प्रजाति मात्र में अपनी सी माँ का मातृत्व अनुभव करना, वात्सल्य तलाशना सिंह के इस काव्य में उद्घाटित हुआ है। कल्पनातीत संवेदनशीलता तथा असाधारण भाव-भंगिमा 'माँ' काव्य की विशिष्टता है। एक सामान्य विषय को लेकर उसमें एक असामान्य प्रबन्ध लिख डालने की एक विशिष्ट परम्परा का सूत्रपात भी इस खण्डकाव्य के द्वारा हुआ है। इस रचना में कवि का एकमात्र संदेश है। -

पाठकगण! निस्वार्थ प्रीतिकर, माँसा कोई नहीं कहीं।
है सागर का पार, किन्तु माँ के गुण-ऋण का पार नहीं ॥

भजनसिंह सिंह लम्बे समय तक जिला पंचायत सदस्य के रूप में सामाजिक जीवन से जुड़े रहे तो पौड़ी में सृजन करने वालों के प्रेरणा श्रोत थे।

गढ़वाली भाषा के बारे में सिंह जी की सोच सुस्पष्ट और प्रखर रही है। 'सिंहनाद' के प्रथम खण्ड गढ़वाली भाषा और लोकसाहित्य शीर्षक के अंतर्गत उन्होंने भाषाविदों को आडे़ हाथों लेते हुए लिखा है-

भाषा विशेषज्ञों ने गढ़वाली भाषा को भारत की आर्य भाषाओं से पृथक ‘मध्य पहाड़ी’ भाषा नाम दिया है। भारतवर्ष के भाषा कोष में ‘मध्य पहाड़ी’ भाषा का कोई अस्तित्व नहीं है।

भजन सिंह ने तीन पुस्तकें प्रकाशित कीं। उनकी प्रकाशित और लोकप्रिय पुस्तकों में सिंहनाद (सन 1930), सिंह सतसई (सन 1985) और गढ़वाली लोकोक्तियां (सन 1970) शामिल हैं। ‘सिंहनाद’ और ‘सिंह सतसई’ मूलतः काव्य कृतियां हैं। गढ़वाली साहित्य में ‘सिंहनाद’ ने अद्वितीय लोकप्रियता हासिल की। साहित्य मर्मज्ञों ने इसे कविवर की श्रेष्ठतम कृति बताया।

भजन सिंह ‘सिंह’ लीक से हटकर चलने वाले रचनाकार रहे हैं। ‘सतसई’ में परंपरा 700 दोहों की है, परन्तु उनकी काव्यकृति ‘सिंह सतसई’ में 1259 दोहे शामिल हैं। अपने एक आत्मनिवेदन में उन्होंने ये पंक्तियां उदृत की हैं

लीक-लीक गाड़ी चले, लीकन्हि चले कपूत,
लीक छोड़ि तीनों चले, शायर, ‘सिंह’, सपूत।

भजन सिंह ‘सिंह’ शायर भी थे। वे उर्दू में अच्छी शायरी करते थे। इसका असर उनकी रचनाओं में भी दिखता है। सिंहनाद में ग़जल शैली की उनकी रचनाएं, खासकर मूर्त पत्थर की, काफी चर्चित रही है।

हालांकि सेवाकाल में वे लिखने -पढ़ने लगे थे किन्तु सेना की सेवा की मजबूरी के कारण वे खुल कर सामने न आ सके। इसलिये उनका लेखन सन् 1945 में गढ़वाल राइफल्स से सेवानिवृत्ति के बाद ही सामने आया। पौड़ी के समीप अपने गाँव कोटसाड़ा में आकर वे लेखन में लीन हो गये। सेवाकाल के बाद कई पुस्तकें सामने आती चली गईं। हालांकि इनमें से कुछ लेखन उन्होंने सेवाकाल में ही रचा। इनमें सबसे पहली पुस्तक हिन्दी मुक्तक ‘मेरी वीणा’ थी जो 1950 में प्रकाषित हुई। इसी साल उनकी सबसे चर्चित पुस्तक ‘सिंहनाद’ रही जिसके बाद में कई परिवर्धित संस्करण निकले। पुस्तक ‘सिंह सतसई’ गढ़वाली दोहों का संग्रह थी जिसका 1984 में प्रकाशन हुआ। उनकी कई पुस्तकें अप्रकाशित ही रहीं। इनमें ‘गढ़वाल के इतिहास के अस्पष्ट पृष्ठ’, ‘गढ़वाल के कानूनी ग्रन्थ’, ‘कालिदास के ग्रन्थों में गढ़वाल’ व ‘निबन्ध संग्रह सिंहनाद’ हैं। हिन्दी में उनकी इतिहास पर लिखी सबसे चर्चित पुस्तक ‘आर्यों का आदि निवास मध्य हिमालय’ थी और आज भी संस्कृति व इतिहास का शोधार्थी व लेखक इसके अध्ययन के बाद ही आगे बढ़ता है। इस शोध पुस्तक में सिंह जी ने उत्तराखण्ड हिमालय के समाज, भूगोल, संस्कृति, इतिहास पर पहली बार प्रकाश डालने का प्रयास किया। इसके लिये उन्होंने वेदों, पुराणों, रामायण, महाभारत आदि धार्मिक पुस्तकों से लेकर केदारखण्ड, तत्कालीन पुस्तकों, शिलालेखों, ताम्रपत्रों, यात्रा विवरणों को आधार बनाकर पहली बार इस क्षेत्र पर प्रमाणिक सामग्री देने का प्रयास किया। यह उस दौर की ऐसी पहली पुस्तक थी जिसमें उत्तराखण्ड के आद्य इतिहास पर रोशनी डाली गई थी।