भूदेव मुखोपाध्याय

भारतीय दार्शनिक

भूदेव मुखोपाध्याय (१८२७ – १८९४) १९वीं शताब्दी के बंगाल के लेखक और बुद्धिजीवी थे। बंगाल के नवजागरण काल में उनकी रचनाओं में राष्ट्रवाद और दर्शन का सुन्दर रूप देखने को मिलता है। 'अङ्गुरिया बिनिमय' (१८५७) नामक उनका उपन्यास बंगाल का पहला ऐतिहासिक उपन्यास था। वे संस्कृत के महान विद्वान भी थे।

भूदेव मुखोपाध्याय
जन्म 22 फरवरी 1827
कलकता
मौत 15 मई 1894(1894-05-15) (उम्र 67 वर्ष)
कलकता
शिक्षा की जगह अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय
पेशा शिक्षाविद, लेखक

सन १८६२ में उन्हें सहायक विद्यालय निरीक्षक नियुक्त किया गया। उन्हें हावड़ा जिला स्कूल का प्रथम भारतीय प्रधानाचार्य बनाया गया। उसके बाद उन्हें विद्यालय निरीक्षक बनाया गया तथा उन्होंने इस पद पर बंगाल, बिहार और उड़ीसा में सेवाएँ दी। उनकी सेवाओं के कारण उन्हें ब्रितानी सरकार ने उन्हें १८७७ में सीआईई से सम्मानित किया।

जब वे बिहार के 'इंस्पेक्टर ऑफ स्कूल्स' थे तब सन् १८८६ में उन्होने न्यायालयों में फारसी के स्थान पर हिन्दी चलाने का आदेश दिया। उन्होने "सामाजिक निबन्ध" में लिखा, "भारतवर्ष में अधिकांश लोग हिन्दी कथोपकथन करने में समर्थ हैं। इसलिये शुद्ध भारतवासियों की सभाओं में अंग्रेजी के स्थान पर हिन्दी का ही प्रयोग होना चाहिये।" उन्होने सन् १९१९ में कांग्रेस कमिटी में सबसे पहले हिन्दी में भाषण दिया था। उन्होने बिहार में हिन्दी का प्रचार-प्रसार का कार्य किया।

हिन्दी सेवा

संपादित करें

सरकार की ओर से जब पहले-पहल बिहार में शिक्षा प्रसार की व्यवस्था हुई तब सन् 1875 ई. में पंडित भूदेव मुखोपाध्याय1 (1825-1894 ई.) ‘इंस्पेक्टर ऑफ स्कूल्स’ नियुक्त किये गये, जिन्होंने स्वयं हिन्दी में कई पाठ्य-पुस्तकें लिखीं। उनके नेतृत्व में कई हिन्दी लेखकों ने पाठ्य-पुस्तकें तैयार कीं। आप ही के निर्देशन में हिंदी का शब्दकोष, हिंदी व्याकरण एवं भूगोल, इतिहास, अंकगणित, ज्यामिति जैसे विषयों की पाठ्य-पुस्तकें तैयार की गईं। और जो उन्हीं के द्वारा स्थापित बोधोदय प्रेस में कैथी-लिपि में छपीं। उक्त बोधोदय प्रेस जब खड्गविलास प्रेस का नाम धारण करके बाबू रामदीन सिंह के अधिकार में (सन् 1880 ई. में) आया, तब कैथी-लिपि नामशेष हुई और नागरी-लिपि में हिन्दी-प्रचार बड़े वेग से होने लगा।2 यह बात भी उल्लेखनीय है कि बिहार पहला राज्य था जहां हिंदी को सरकारी काम-काज की भाषा की मान्यता प्रदान की गई थी। बाबू रामदीन सिंह ने भी अपने इस प्रेस द्वारा पाठ्य-पुस्तकों के अभावों को बहुत हद तक दूर करने का प्रयास किया। उन्होंने खुद पाठ्य-पुस्तकें तैयार कीं और कुछ अपने तथा तथा कुछ दूसरों के नाम से प्रकाशित किया।3 बाबू शिवनंदन सहाय ने लिखा है, ‘शिक्षा विभाग में उनका बड़ा मान था। डायरेक्टर तथा उनके सब कर्मचारी इनसे प्रेम रखते थे और इनका आदर करते थे। जब किंडर गार्टन की पढ़ाई प्रचलित हुई, तब उसी समय उन्होंने किंडर गार्टन की कई पुस्तकें लिखकर तैयार कर दीं।’4

कैथी-लिपि का प्रचलन बन्द कराके देवनागरी को लोकप्रिय बनाने में भूदेव मुखोपाध्याय की महती भूमिका रही थी। इस कार्य से बिहार के लोग इनसे काफी प्रसन्न हुए। इनकी प्रशंसा में कई गीत भी बनाये गये, जिनमें पंडित अम्बिकादत्त व्यास ने भी दो गीत लिखे।5 यह भी स्मरणीय है कि खड्गविलास प्रेस खुलवाने में भूदेव मुखोपाध्याय का काफी सहयोग था।6

भूदेव मुखोपाध्याय का दृढ़ विश्वास था कि बिहार की उन्नति हिन्दी से ही संभव है। पंडित रामगति न्यायरत्न को भेजे एक पत्र 7 में आपने स्पष्ट लिखा था, ‘(बिहार में) मेरे आने के पहले जातीय भाषा (हिन्दी) के स्कूलों की बहुत बुरी हालत थी; कोई उनका आदर नहीं करता था। मैंने आकर उन उपेक्षित स्कूलों पर ध्यान दिया और उनकी उन्नति की। अब यहाँ हिन्दी के स्कूलों की संख्या पहले से दस गुनी हो गई है। सन् 1839 ई. में बंगाल से फारसी के दफ्तर उठ गये और सच पूछो तो तभी से बंगाल की उन्नति हुई; क्योंकि तभी से वंग भाषा की श्रीवृद्धि का सूत्रपात हुआ। हिन्दी के प्रचार से क्या बिहार की वही दशा न होगी ? क्यों न होगी ? मुझे आशा है कि बंगाल में जितनी उन्नति 40 वर्षों में हुई है उतनी बिहार में 15-16 वर्ष के भीतर ही हो जायेगी। मैं अपने तुच्छ जीवन के छोटे-छोटे कामों में इस काम को बड़े महत्त्व की दृष्टि से देखता हूँ।’ हिन्दी की स्थिति को लेकर उनके मन में कोई भ्रम या द्वंद्व न था। अपनी एक पुस्तक में उन्होंने अत्यंत स्पष्ट शब्दों में लिखा है-‘भारत में जितनी भाषाएँ प्रचलित हैं, उनमें हिन्दी ही सबसे प्रधान भाषा है। वह पहले के मुसलमान-बादशाहों और कवियों की कृपा से एक प्रकार देश भर में व्याप्त हो रही है। इसलिए अनुमान किया जा सकता है कि उसी के सहारे किसी समय सारे भारत की भाषा एक हो जायेगी। भारत में अधिकांश लोग हिन्दी में बातचीत कर सकते हैं। इसलिए भारतवासियों की बैठक में अँगरेजी, फारसी का व्यवहार न होकर हिन्दी में बातचीत होनी चाहिए। साधारण पत्र-व्यवहार भी हिन्दी ही में होना चाहिए। हमारे पड़ोसी या इष्ट-मित्र-चाहे वे मुसलमान, कृस्तान, बौद्ध आदि कोई भी हों-सब सहज में हिन्दी समझ सकते हैं।’8 साथ ही उनका यह विश्वास भी काफी गहरा था कि विदेशी व्यक्तियों के जीवन-चरित पढ़ने से भारतीय बालकों की शिक्षा के एक अंग की विशेष क्षति होती है। अतएव आपने ‘चरिताष्टक’, ‘नीतिपथ’, ‘रामचरित’ आदि कई हिन्दी-पुस्तकें लिखवाईं। हिन्दी में ‘गया का भूगोल’ भी आपने अपने प्रोत्साहन से लिखवाया।

भूदेव मुखोपाध्याय के भाषा-संबंधी जो विचार हैं, ठीक उसी तरह के विचार इंग्लैंड के भाषाविद् एवं भारत-प्रेमी फ्रेडरिक पिन्काट के भी हैं। पिन्काट हिन्दी-प्रेमियों को सलाह देते लिखते हैं-‘देखो अस्सी बरस हुए बंगाली भाषा निरी अपभ्रंश भाषा थी। पहले पहल थोड़ी थोड़ी संस्कृत बातें उसमें मिली थीं। परंतु अब क्रम करके संवारने से निपट अच्छी भाषा हो गई। इसी तरह चाहिए कि इन दिनों में पंडित लोग हिंदी भाषा में थोड़ी थोड़ी संस्कृत बातें मिलावें।’

उस समय की पाठ्य-पुस्तकों से असंतुष्ट होकर भूदेव मुखोपाध्याय ने शिक्षा विभाग के डायरेक्टर के पास रिपोर्ट की कि पाठ्य-पुस्तकों में पूर्ण सुधार होना चाहिए। उत्तर में कहा गया कि ‘अच्छी पुस्तकें कहाँ से आवेंगी।’ इस पर आपने लिखा कि ‘हिन्दी एक जीवित भाषा है-इसकी मृत्यु कभी हो ही नहीं सकती-इसका भार हम पर छोड़ दिया जाये-हम हिन्दी के प्रचार का पूरा प्रबंध कर देंगे और प्रांजल भाषा में पाठ्य-पुस्तकें तैयार करा लेंगे।’9 कुछ दकियानूसी लोगों के द्वारा विरोध किये जाने पर आपने दो टूक कहा, ‘बिहारी हिन्दू बालक अपनी मातृभाषा हिन्दी, धर्म की भाषा संस्कृत और राजा की भाषा अँगरेजी सीखें और मुसलमान के लड़के प्रचलित भाषा हिन्दी, धर्म की भाषा अरबी और राजा की भाषा अँगरेजी सीखें, यही उचित होगा।

  • पारिवारिक प्रबन्ध (१८८२) - निबन्ध
  • सामाजिक प्रबन्ध (१८९२) - निबन्ध
  • आचार प्रबन्ध (१८९५) - निबन्ध
  • प्राकृतिक विज्ञान (दो भागों में, १८५८ और १८५९) - पुस्तक
  • पुराबृत्तसार (१८५८) - पुस्तक
  • इंग्लैण्डेर इतिहास (१८६२) पुस्तक
  • रोमेर इतिहास (१८६२) - पुस्तक
  • बांग्लार इतिहास (तृतीय भाग, १९०४) - पुस्तक
  • क्षेत्रतत्त्व (१८६२) - पुस्तक
  • पुष्पाञ्जलि (प्रथम भाग, १८७६) - पुस्तक
  • अङ्गुरिया बिनिमय (१८५७) - उपन्यास
  • ऐतिहासिक उपन्यास (१८५७) - ऐतिहासिक उपन्यास
  • स्वप्नलब्ध भारतबर्षेर इतिहास (१८९५) - उपन्यास

बाहरी कड़ियाँ

संपादित करें