मंखक (मङ्खक) , संस्कृत के महाकवि थे।

कश्मीर में सिंधु और वितस्ता के संगम पर महाराज प्रवरसेन द्वारा प्रवरपुर नामक नगर बसाया गया था। यह नगर वर्तमान श्रीनगर से 125 मील उत्तर पूर्व की ओर है। यहीं महाकवि मंखक का ब्रह्मभट्ट ब्राह्मण कुल मे जन्म हुआ था। पितामह मन्मथ बड़े शिवभक्त थे। पिता विश्ववर्त भी उसी प्रकार दानी, यशस्वी एवं शिवभक्त थे। वे कश्मीर नरेश सुस्सल के यहाँ राजवैद्य तथा सभाकवि थे। मंखक से बड़े तीन भाई थे शृंगार, भृंग तथा लंक या अलंकार। तीनों महाराज सुस्सल के यहाँ उच्च पद पर प्रतिष्ठित थे।

मंखक ने व्याकरण, साहित्य, वैद्यक, ज्योतिष तथा अन्य लक्षण ग्रंथों का ज्ञान प्राप्त किया था। आचार्य रुय्यक उनके गुरु थे। गुरु के अलंकारसर्वस्व ग्रंथ पर मंखक ने वृत्ति लिखी थी।

कृतियाँ संपादित करें

मंखक की दो कृतियाँ प्रसिद्ध हैं:

  • (१) श्रीकण्ठचरित् महाकाव्य, तथा
  • (२) मङ्खकोश।

श्रीकण्ठचरित 25 सर्गो का ललित महाकाव्य है जिसमें भगवान् शंकर एवं त्रिपुरासुर के युद्ध का वर्णन है। इसमें कथानक अल्प है पर महाकाव्य के नियमों का निर्वाह करने के लिए सात सर्गों में दोला, पुष्पावचय, जलक्रीडा, संध्या, चन्द्रोदय, प्रसाधन, पानकेलि, क्रीडा एवं प्रभात का सविस्तर वर्णन है। इस महाकाव्य के 25 वें सर्ग में कश्मीर के तत्कालीन कवियों का वर्णन है। इस महाकाव्य के कतिपय स्थलों पर आलोचनात्मक उक्तियां भी प्रस्तुत की गयी हैं जिनमें मंखक की कवि एवं काव्य सम्बन्धी मान्यताएं निहित हैं।

सूक्तौ शुचावेव परे कवीनां सद्यः प्रमादस्खलितं लभन्ते ।
अधौतवस्त्रे चतुरं कथं वा विभाव्यते कज्जलबिन्दुपातः ॥

(अर्थ - रमणीय कथन में दोष की उसी प्रकार प्रतीति हो जाती है जिस प्रकार धुले हुए वस्त्र में धब्बे का ज्ञान हो जाता है।)

श्रीकण्ठचरित के अंतिम सर्ग में कवि ने अपना, अपने वंश का तथा अपने समकालिक अन्य विशिष्ट कवियों एवं नरेशों का सुन्दर परिचय दिया है। अपने महाकाव्य को उन्होंने अपने बड़े भाई अलंकार की विद्वत्सभा में सुनाया था। उस सभा में उस समय कान्यकुब्जाधिपति गोविन्दचन्द (1120 ई.) के राजपूत महाकवि सुहल भी उपस्थित थे। महाकाव्य का कथानक अति स्वल्प होते हुए भी कवि ने काव्य संबंधी अन्य विषयों के द्वारा अपनी कल्पना शक्ति से उसका इतना विस्तार कर दिया है।

'मङ्खकोश' प्रसिद्ध नानार्थ पदों का संग्रह है। कुल 1007 श्लोकों में 2256 नानार्थपदों का निरूपण किया गया है।

समुद्रबन्ध आदि दक्षिण के विद्वान टीकाकारों ने मंखक को ही "अलंकारसर्वस्व" का भी कर्ता माना है। किन्तु मखक के ही भतीजे, बड़े भाई शृंगार के पुत्र जयरथ ने, जो "अलंकारसर्वस्व" के यशस्वी टीकाकार हैं, उसे आचार्य रुय्यक की कृति कहा है।

महाराज सुस्सल के पुत्र जयसिंह ने मंखक को "प्रजापालन-कार्य-पुरुष" अर्थात धर्माधिकारी बनाया था। जयसिंह का सिंहासनारोहण 1127 ई. में हुआ। अतः मंखक की जन्मतिथि 1100 ई. के आसपास मानी जा सकती है। एक अन्य प्रमाण से भी यही निर्णय निकलता है। मंखकोश की टीका का, जो स्वयं मंखक की है, उपयोग जैन आचार्य महेंद्र सूरि ने अपने गुरु हेमचंद्र के अनेकार्थ संग्रह (1180 ई.) की "अनेकार्थ कैरवकौमुदी" नामक स्वरचित टीका में किया है। अतः इस टीका के 20-25 वर्ष पूर्व अवश्य मंखकोश बन चुका होगा। इस प्रकार मंखक का समय 1100 से 1160 ई. तक माना जा सकता है।

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