मतिराम
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मतिराम, हिंदी के प्रसिद्ध ब्रजभाषा कवि थे। इनके द्वारा रचित "रसराज" और "ललित ललाम" नामक दो ग्रंथ हैं; परंतु इधर कुछ अधिक खोजबीन के उपरांत मतिराम के नाम से मिलने वाले आठ ग्रंथ प्राप्त हुए हैं। इन आठों ग्रंथों की रचना शैली तथा उनमें आए और उनसे सम्बंधित विवरणों के आधार पर स्पष्ट ज्ञात होता है कि मतिराम नाम के दो कवि थे। प्रसिद्ध मतिराम फूलमंजरी, रसराज, ललित ललाम और सतसई के रचयिता थे और संभवत: दूसरे मतिराम के द्वारा रचित ग्रंथ अलंकार पंचासिका, छंदसार (पिंगल) संग्रह या वृत्तकौमुदी, साहित्यसार और लक्षणशृंगार हैं।
जीवनी
संपादित करेंमतिराम का जन्म सन १६१७ में उत्तर प्रदेश के कानपुर जिले में स्थित तिकवांपुर (त्रिविक्रमपुर) में हुआ। वे आचार्य कवि चिंतामणि तथा भूषण के भाई थे।[1] इसका उल्लेख "वंशभास्कर" एवं "तजकिरए सर्वे आजाद हिंद" में हुआ है। भूषण ने अपने को कश्यप गोत्रीय कान्यकुब्ज त्रिपाठी रत्नाकर का पुत्र बताया है और चर्खारी नरेश विक्रमादित्य के राज्यकवि बिहारीलाल ने विक्रमसतसई की टीका रसचंद्रिका में अपना परिचय दिया है जिससे स्पष्ट है कि भूषण और बिहारीलाल एक ही गोत्र के थे और मतिराम उनके परबाबा थे, परनाना नहीं; अन्यथा वे मतिराम से अपना सम्बंध न जोड़कर अपने समगोत्रिय पूर्वज भूषण से अपना संबंध अधिक स्पष्ट करते। इसलिये दूसरे वत्सगोत्रीय मतिराम इन मतिराम से भिन्न हैं।
मतिराम और भूषण का भाई भाई का संबंध था, यह "ललित ललाम" और "शिवराज भूषण" में दिए गए अलंकारों के समान लक्षणों से भी स्पष्ट होता है। भूषण ने ललित ललाम से नि:संकोच लक्षण ग्रहण किए हैं। मतिराम का अधिकांश समय बूँदी दरबार में व्यतीत हुआ। वहाँ के हाड़ा राजाओं का वर्णन और चरित्रचित्रण उन्होंने बड़े प्रभावशाली ढंग से किया है। इन्होंने गढ़वाल के परमार वंश के राजा फतेहशाह के दरबार को भी सुशोभित किया था।
कृतियाँ
संपादित करेंइनकी प्रथम कृति 'फूलमंजरी' है जो इन्होंने संवत् 1678 में जहाँगीर के लिये बनाई और इसी के आधार पर इनका जन्म संवत् 1660 के आसपास स्वीकार किया जाता है क्योंकि "फूल मंजरी" की रचना के समय वे 18 वर्ष के लगभग रहे होंगे। इनका दूसरा ग्रंथ 'रसराज' इनकी प्रसिद्धि का मुख्य आधार है। यह शृंगाररस और नायिकाभेद पर लिखा ग्रंथ है और रीतिकाल में बिहारी सतसई के समान ही लोकप्रिय रहा। इसका रचनाकाल सवंत् 1690 और 1700 के मध्य माना जाता है। इस ग्रंथ में सुकुमार भावों का अत्यंत ललित चित्रण है। इनके अनेक छंद हिंदी साहित्य के उत्कृष्ट छंदों में परिगणित हैं। यह रसिकजनों का कंठहार रहा है और इसकी अनेक टीकाएँ हुईं हैं।
इनका तीसरा ग्रंथ 'ललित ललाम' बूँदी नरेश भावसिंह के आश्रय में लिखा गया अलंकारों का ग्रंथ है। इसका रचनाकाल संवत् 1720 के आसपास माना जाता है। इस ग्रंथ में लक्षण चंद्रालोक, कुवलयानंद नामक संस्कृत ग्रंथों के आधार पर हैं, पर उदाहरण अपने हैं। इसमें रसराज के भी कुछ छंद आए हैं। रसराज की निश्छल भावुकता के स्थान पर इसमें सूक्ष्म कल्पनाशीलता स्पष्ट होती है।
मतिराम की अंतिम रचना 'सतसई' है। यह संकलन संवत् 1740 के आसपास बिहारी सतसई के उपरांत किया गया जान पड़ता है। इसकी रचना भूप भोगनाथ के लिये की गई थी। सतसई में सरस एवं ललित ब्रजभाषा के दोहे हैं। अधिकांश विषय शृंगार और नीति संबंधी हैं।
यद्यपि मतिराम के सभी ग्रंथ महत्वपूर्ण हैं, फिर भी सबसे अधिक महत्वपूर्ण सतसई, रसराज और ललित ललाम हैं।
मतिराम (द्वितीय)
संपादित करेंद्वितीय मतिराम का परिचय केवल "वृत्तकौमुदी" के आधार पर प्राप्त होता है। इसके अनुसार इन मतिराम के पिता का नाम विश्वनाथ, पितामह का बलभद्र और प्रपितामह का गिरिधर था। ये वत्स गोत्रीय त्रिपाठी थे और इनका निवासस्थान बनपुर था। इनकी रचना "अलंकार पंचासिका" अलंकार पर संवत् 1747 विक्रम में लिखा संक्षिप्त ग्रंथ है। ग्रंथ के अंतर्गत 116 वें दोहे में रचनाकाल दिया हुआ है। यह कुमायूँ नरेश उदोतचंद्र के पुत्र ज्ञानचंद्र के लिये लिखा गया था। इसमें दोहा, कवित्त, सवैया आदि छंदों का प्रयोग है। 'साहित्यसार' दस पृष्ठों का छोटा सा ग्रंथ नायिकाभेद पर लिखा गया था। इसका रचनाकाल संवत 1740 विक्रम के आसपास है। "लक्षण शृंगार" शृंगार रस के भावों एवं विभावों का वर्णन करनेवाला ग्रंथ है।
द्वितीय मतिराम का सबसे बड़ा ग्रंथ वृत्त कौमुदी हैं। वृत्त कौमुदी के अनेक छंदों में छंदसार संग्रह नाम मिलता है। यह ग्रंथ संवत् 1758 में श्रीनगर (गढ़वाल) के राजा फतेहसाहि बुंदेला के पुत्र स्वरूप सिंह बुंदेला के आश्रय में लिखा गया। यह पाँच प्रकाशों में छंद संबंधी विविध सूचना देनेवाला ग्रंथ है। छंद पर यह एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है।
द्वितीय मतिराम यद्यपि प्रसिद्ध मतिराम के समान उत्कृष्ट प्रतिभावाले कवि न थे, फिर भी रीतिकालीन कवियों में इनका महत्वपूर्ण स्थान होना चाहिए।
सन्दर्भ
संपादित करें- ↑ हिन्दी साहित्य का अद्यतन इतिहास, डा० मोहन अवस्थी, सरस्वती प्रेस इलाहाबाद, संस्करण १९७३, पृष्ठ-१४७