लिंग

स्त्रीत्व और पुरुषत्व के बीच भेद करने वाले लक्षण
(मादा से अनुप्रेषित)

व्याकरण से सम्बन्धित 'लिंग' के लिये लिंग (व्याकरण) देखें।


मानव पुरुष और स्त्री

जीवविज्ञान में लिंग (sex, gender) से तात्पर्य उन पहचानों या लक्षणों से जिनके द्वारा जीवजगत् में नर को मादा से पृथक् पहचाना जाता है। जंतुओं में असंख्य जंतु ऐसे होते हैं जिन्हें केवल बाह्य चिह्नों से ही नर, या मादा नहीं कहा जा सकता। नर तथा मादा का निर्णय दो प्रकार के चिह्नों, प्राथमिक (primary) और गौण (secondary) लैंगिक लक्षणों (sexual characters), द्वारा किया जाता है। वानस्पतिक जगत् में नर तथा मादा का भेद, विकसित प्राणियों की भाँति, पृथक्-पृथक् नहीं पाया जाता। जो की सत्य है।

शब्दार्थ

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आज हिन्दी में लिंग यानि लिंग शब्द का अर्थ नर शिश्न से लगाया जाता है लेकिन मूल संस्कृत में इसका अर्थ चिह्न, प्रतीक अथवा लक्षण (यानि पहचान) के अर्थ में है। कणाद मुनि कृत वैशेषिक दर्शन ग्रंथ में यह शब्द कई बार आता है।

लिंग का विकास

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जनन का इतिहास देखा जाए तो ज्ञात होगा कि संसार के आदि जीवों की उत्पत्ति अलैंगिक (asexual) ढंग से हुई; जैसे प्रोटोज़ोआ (Protozoa) तथा प्रोटोफ़ाइटा (Protophyta) के अनेक रूपों में नर तथा मादा द्वारा मिलकर सृष्टि नहीं हुई। इन जीवों की उत्पत्ति शरीर विखंडन (fission), मुकुलन (budding) तथा बीजाणु निर्माण (spore formation) द्वारा हुई। विकास के दूसरे चरण में नर तथा मादा के अत्यंत सूक्ष्म लक्षण प्रकट होने लगे। प्रोटोज़ोआ श्रेणी के कुछ अन्य जीव संयुग्मन (conjugation) द्वारा संतानोत्पादन करने लगे। इसमें एक ही प्रकार के दो जीव आपस में मिलकर एकाकार होने पर फिर विभाजित होकर अनेक संख्या में उत्पन्न होने लगे, जैसे वॉल्वॉक्स (Volvox) के निवहों (colonies) में देखा जाता है। इसके पश्चात् लिंग विकास की तीसरी अवस्था आई, जिसमें एक ही प्राणी के अंदर नर तथा मादा दोनों जननांग विकसित हुए, जैसे, केंचुआ (earth-worm), जोंक (leech) आदि में। लिंग विकास की अंतिम अवस्था में नर तथा मादा जननांग सर्वथा पृथक् हो गए, जैसा कुत्तों, बंदरों, गाय, बकरियों तथा मनुष्यों आदि में देखा जाता है। प्राथमिक लैंगिक लक्षणों के अंतर्गत नर में वृषण (testes) तथा मादा में अंडाशय (ovaries) आते हैं। गौण लैंगिक लक्षणों में उन अंगों तथा लक्षणों की गणना की जाती है, जिनसे नर और मादा को उनकी आकारिकी (morphology) द्वारा ही पृथक् पहचान लिया जाता है, जैसे कुछ कशेरुकी (vertebrate) जंतुओं में मैथुनांगों (copulatory organs) को स्पष्टत: पृथक् देखा जा सकता है। नर प्राणी में शिश्न (penis) तथा मादा में भग (vulva) मैथुनांग होते हैं। कतिपय अन्य जीवों में गौण लैंगिक लक्षणों के अंतर्गत मूँछ, दाढ़ी, सुंदर तथा भड़कीले पंख, सिर की कलगी, सींग, स्तन, प्रभुत्व जमाना, मधुर स्वर, मातृत्व की इच्छा, आक्रमण क्षमता आदि आते हैं। इसी प्रकार वनस्पति जगत में भी फूलों की सुगंध, रंग, भड़कीलापन, फलोत्पादन आदि लैंगिक लक्षण होते हैं।

लिंग का निर्धारण

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प्राणियों में लिंग का निर्धारण तीन प्रकार से होता है :

(1) निषेचन (fertilization) के पहले ही,

(2) निषेचन के समय तथा

(3) निषेचन के बाद।

किंतु, सामान्यतः लिंग का निर्धारण निषेचन के ही समय होना माना जाता है। नर के शुक्राणु (sperm) का मादा के अंडाशय से संयुक्त होना निषेचन कहा जाता है। वातावरण में निषेचित अंडे, या युग्मनज (fertilized egg or Zygote) की क्रमश: वृद्धि होती रहती है।

नर तथा मादा का निर्धारण कुछ जटिल प्रक्रियाओं द्वारा होता है। वैज्ञानिकों ने इस संबंध में कई सिद्धांत उपस्थित किए हैं। इन सिद्धांतों में निम्नलिखित दो सिद्धांत अपेक्षाकृत अधिक प्रसिद्ध हैं : (1) गुणसूत्र, या क्रोमोसोम सिद्धांत तथा (2) हॉर्मोन सिद्धांत।




क्रोमोसोम सिद्धांत

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आनुवंशिक विज्ञान (Genetics) के अनुसार प्राणियों के शरीर में जो कोशिकाएँ (cells) पाई जाती हैं, उनमें कुछ ऐसी रचनाएँ होती है जो विशेष प्रकार के रंजकों और अभिरंजकों (dyes and stains) को ग्रहण कर लेती हैं, इन रचनाओं को क्रोमोसोम कहा जाता है। आनुवंशिक विज्ञान में विशेषकर युग्मकों, या लिंग कोशिकाओं (gametes or sex-cells) में पाए जाने वाले क्रोमोसोमों पर ही विचार किया जाता हे। भिन्न-भिन्न प्राणियों की जनन कोशिकाओं में क्रोमोसोमों की संख्या इस प्रकार पाई गई हैं :

प्राणी का नाम --- क्रोमोसोमों की संख्या

साइकन (Sycon) स्पंज -- 26

हाइड्रा (Hydra) --- 30 - 32

लंब्रिकस (Lumbricus) वंश की जोंक --- 32

यूनियो (Unio) सीप --- 32

तारामीन (Starfish) --- 36

झींगा (Squilla) मछली --- 48

बिच्छी (Buthus) --- 24

एक मछली (Scyllium) --- 24

ब्यूफोटोड (Bufo toad) --- 24 - 26

कच्छपगण (Chelonia) --- 56

मगर (Crocodile) --- 32

भेड़ (Sheep) --- 60

घोड़ा (Horse) --- 60 - 66

बंदर (Monkey) --- 48

मानव (Humans) --- 46

नेट्रिक्स (Natrix) --- 40

कपोतवंश या कोलंबा (Columba) --- 66

मुर्गा (Fowl) --- 18 - 20

चमगादड़ (Bat) --- 24

लीपस (Lepus) वंश का खरगोश --- 28 - 36

कुत्ता (Dog) --- 50 - 78

लोमड़ी (Fox) --- 38

बिल्ली (Cat) --- 66

चौपाए (Cattle) --- 38 - 60

बकरा (Goat) --- 60

भैंसा (Buffalo) --- 48 - 56

सूअर (Pig) --- 38 - 40

चिंपैंजी (Chimpanzee) --- 48

ऊँट (Camel) --- 70

सन् 1901-2 में मैक्क्लंग (Macclung) नामक विद्वान् ने क्रोमोसोम का पता लगाया। उसी ने कुछ सिद्धांत भी बनाए, जो कालांतर में वैज्ञानिक अनुसंधानों द्वारा पुष्ट होते गए। इस सिद्धांत में यह माना जाता है कि प्रत्येक प्राणी के कुछ विशिष्ट क्रोमोसोमों की संख्या पर उसका लिंग निर्भर करता है। क्रोमोसोमों की रचना को यदि अधिक शक्तिशाली सूक्ष्मदर्शी, जैसे इलेक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शी द्वारा देखा जाए तो उसमें भी कुछ बहुत ही सूक्ष्म रचनाएँ दिखाई पड़ेगी। इनको जीन (Genes) कहा जाता है और यह विश्वास किया जाता है कि ये ही जनक के आनुवंशिक (hereditary) गुणों को उनकी संतानों तक पहुँचाते हैं। जंतुओं और वनस्पतियों के क्रोमोसोमों तथा जीनों को लेकर बहुत अधिक अनुसंधान और प्रयोग हुए हैं।

यह पाया गया है कि प्रत्येक प्राणी की जनन कोशिकाओं में पाए जानेवाले क्रोमोसोमों में कुछ ऐसे होते हैं, जिन्हें अलिंगसूत्र (Autosomes) कहते हैं। ये नर तथा मादा दोनों में एक प्रकार के ही होते हैं और सदा युग्म (pair) में रहते हैं। कुछ दूसरे प्रकार के क्रोमोसोम भी पाए जाते हैं, जिन्हें लिंग निर्धारक (Sex determiner) कहा जाता है। अब तक जितने प्रकार के क्रोमोसोम पाए गए हैं, उन्हें एक्स (X), वाई (Y), डब्ल्यू (W), ज़ेड (Z) तथा ओ (O) की संज्ञा दी गई है। माना जाता है कि नर तथा मादा का निर्धारण इन्हीं लिंगनिर्धारक क्रोमोसोमों की सम तथा विषम संख्या द्वारा होता है, जैसे मनुष्यों में लिंग का निर्धारण इस प्रकार होता है :

21 अलिंग सूत्र + 1 एक्स + 1 वाई = पुरुष; तथा

21 अलिंग सूत्र + 2 एक्स = स्त्री।

क्रोमोसोमों की संख्या के अनुसार नर तथा मादा को विषमयुग्मकी (heterogamous) या समयुग्मकी (homogamous) कहा जाता है। किसी प्राणी में नर समयुग्मकी होती है, तो किसी में मादा। पक्षियों, तितलियों, मछलियों, जलस्थलचर (amphibians) आदि में मादा विषमयुग्मकी होती है। इन प्राणियों में लिंगनिर्धारक क्रोमोसोमों को ज़ेड (Z) तथा डब्ल्यू (W) नाम दिया जाता है, जबकि अन्य प्राणियों तथा वनस्पतियों में इन्हें एक्स (X) तथा वाई (Y) के नाम से संबोधित किया जाता है।

अनेक प्राणियों में एक्स तथा वाई ही नर या मादा लिंग का निर्धारण करते हैं। जब एक्स वाला शुक्राणु मादा के अंडे से संयुक्त होता है, तब युग्मनज को दो एक्स एक्स (XX) मिलते हैं और वह मादा बनता है। किंतु जब शुक्राणु का वाई मादा के अंडे के एक्स से संयुक्त होता है, तब युग्मनज को एक्स वाई, अर्थात् विषम संख्या प्राप्त होती है और वह नर होता है। मनुष्यों तथा अन्य प्राणियों के नर तथा मादा के क्रोमोसोमों में जो विभेद पाया जाता है, वह अगले पृष्ठ की सारणी में दिखाया गया है।

वनस्पतियों में क्रोमोसोम

जिस प्रकार जंतुओं में क्रोमोसोमों का अध्ययन किया गया है, उसी प्रकार वनस्पतियों में भी उनका अध्ययन किया गया है। अधिकतर बीज वाले पौधे उभयलिंगाश्रयी (monoecious) होते हैं, अर्थात् उनमें नर तथा मादा लिंग एक साथ होते हैं। क्रोमोसोमों की गणना होने पर भी लिंग की चर्चा केवल नर-मादा-विश्लेषण के ही सन्दर्भ में की जाती है, क्योंकि लिंग और आनुवंशिकता की समस्या वनस्पति जगत में नहीं है। कुछ जाति में नर तथा मादा पौधे पृथक् होते हैं। ऐसे पौधों के भी एक्स (X) तथा वाई (Y) क्रोमोसोमों का पता चला है, जैसे इलोडिया कैनाडेंसिस (Elodea canadensis), मिलैंड्रियम एल्बम (Milandrium album) आदि। बीजवाला एक पौधा, फ्रेगैरिया इलैटिऑर (Fragaria elatior), चिड़ियों की भाँति क्रोमोसोम वाला (abraxas type) बतलाया जाता है। कुछ अन्य पौधों में नर विषमलिंगी (heterogametic) होते हुए भी दो वाई (Y) तथा एक एक्स (X) धारण करता है। ह्रास विभाजन (meiosis) के समय दोनों वाई (Y) तथा एक्स (X) पृथक् हो जाते हैं और दो वाई (Y) जनन कोशिका से मिलकर नर तथा एक एक्स (X) मादा भ्रूण के रूप में परिवर्तित हो जाते हैं। इसी प्रकार लिंग का निर्धारण अन्य पौधों में भी होता है।

हार्मोन सिद्धांत

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प्राणियों के शरीर में कुछ ऐसी ग्रंथियाँ होती हैं जिन्हें वाहिनीहीन या अंत:स्रावी (Ductless, या Endocrine) कहा जाता है। कुछ विकसित विशेषकर कशेरुकी जंतुओं में इन ग्रंथियों के स्रावों का, जिन्हें हॉर्मोन कहते हैं, अध्ययन किया गया है। वनस्पतियों में भी हॉर्मोन होते हैं या नहीं, यह विवादग्रस्त विषय है। जंतुओं के शरीर में पाई जानेवाली ग्रंथियों के नाम हैं : पीयूष (Pituitary, या Hypophysio), पीनियल (Pineal), अवटुग्रंथि (Thyroid), पैराथाइरॉइड (Parathyroid), थाइमस (Thymus), पैक्रिअस या अग्न्याशय (Pancreas), वृक्क (Adrenal); जननग्रंथि (Gonads), नर में वृषण (Testis) तथा मादा में अंडाशय (Ovary)। इन ग्रंथियों से निकलने वाले हॉर्मोनों का अध्ययन विस्तार से किया गया है और यह पाया गया है कि नर प्राणी में पुरुषत्व (maleness) और मादा में स्त्रीत्व (femaleness) संबंधित गौण लैंगिक लक्षणों का अस्तित्व इन्हीं की क्रिया पर निर्भर करता है। जीन और क्रोमोसोम केवल यह निश्चित करते हैं कि युग्मनज नर होगा या मादा। वास्तविक पुरुषत्व और स्त्रीत्व का निर्धारण तथा उचित दिशा में उनका विकास वाहिनीहीन ग्रंथियों के स्रावों की सहायता से ही होता है। जैसे, कोई भ्रूण पुरुष के रूप में जन्म लेने वाला हो तो स्त्री हॉर्मोनों की सूई लगाकर अथवा उसे बधिया कर देने (castration) और उसके स्थान पर अंडाशय ग्रंथियों को आरोपित कर देने पर वह या तो पूर्णरूपेण स्त्री हो जाएगा, या उसमें स्त्रीत्व के लक्षण विकसित हा जाएँगे। ====

कुछ प्राणियों के नर तथा मादा क्रोमोसोमों की सारणी

नाम -- नर—मादा

कछुआ -- एक्स एक्स (XX) -- एक्स ओ (XO)

कबूतर—एक्स एक्स, या जेड जेड (XX या ZZ) -- एक्स ओ, या जेड डब्ल्यू (XO या ZW)

चमगादड़ -- एक्स ओ (XO) -- एक्स एक्स (XX)

चूहा -- एक्स वाई (XY) -- एक्स एक्स (XX)

चौपाए -- एक्स ओ (XO) -- एक्स एक्स (XX)

भेड़ -- एक्स वाई (XY) -- एक्स एक्स (XX)

चिंपैजी -- एक्स वाई (XY) -- एक्स एक्स (XX)

झींगुर, तेलचट्टा, टिड्डे -- एक्स ओ, या एक्स वाई (XO या XY) -- एक्स एक्स (XX)

सांड़ा -- एक्स एक्स (XX) -- एक्स ओ (XO)

मुर्गा-- एक्स एक्स, या जेड जेड (XX या ZZ) -- एक्स ओ या जेड डब्ल्यू (XO या ZW)

खरगोश -- एक्स वाई, या एक्स ओ (XY या XO) -- एक्स एक्स (XX)

कुत्ता -- एक्स वाई (XY) -- एक्स एक्स (XX)

भैंस -- एक्स वाई (XY) -- एक्स एक्स (XX)

घोड़ा -- एक्स वाई (XY) -- एक्स एक्स (XX)

बंदर—एक्स वाई (XY) -- एक्स एक्स (XX)

ड्रोसोफिला (a) -- एक्स वाई (XY) -- एक्स एक्स (XX)

लिंग निर्धारण का संतुलन सिद्धांत

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वनस्पतियों तथा जंतुओं का समुचित अध्ययन करने पर यह पाया गया है कि लिंग का निर्धारण नर और मादा प्रवृत्तियों का ही एकमात्र परिणाम नहीं होता। भ्रूण के विकास के साथ ही साथ नर और मादा निर्धारक तत्व भी समान रूप से ही विकसित होते हैं। कोई प्राणी नर या मादा केवल इसलिए नहीं हो जाता कि उसकी रचना विशेष संख्या वाले क्रोमोसोमों द्वारा हुई होती है, अपितु वह नर या मादा इसलिए भी हो जाता है कि उसने मादा या नर निर्धारक अन्य तत्वों को "दबा" (outweigh) दिया। सभी हॉर्मोनों का उत्पादन शरीर में होता रहता है, अत: जब स्त्रीत्व, या पुरुषत्व निर्धारक हॉर्मोन अधिक शक्तिशाली होंगे तब भ्रूण स्त्री, या पुरुष शरीर तथा प्रवृत्तियों की ओर अग्रसर होगा। हॉर्मोनों के संतुलन का ही यह परिणाम होता है कि प्राणी नर या मादा के रूप में जन्म लेता है। कर्ट स्टर्न (Curt Stern) ने यह दिखलाया है कि यदि किसी स्त्री में दो एक्स के स्थान पर तीन एक्स हों, तो उसमें अपेक्षाकृत अधिक स्त्रीत्व होगा। किंतु ऐसी स्त्री देर में ऋतुवती, अत्यधिक अल्पायु और सर्वथा वंध्या होगी। इसी प्रकार गोल्डश्मिट (Goldschmidt) ने लिमैट्रिया जैपोनिका नामक (Lymantria japonica) शलभ (moth) का अध्ययन कर यह बतलाया है कि जब बलवान नरों का निर्बल कीटों से संयुग्मन होता है तब 50% सामान्य नर और 50% अंतलिंगी मादा (intersexed femal) की उत्पत्ति होती है। किंतु जब अत्यधिक सशक्त नरों का निर्बल मादाओं से संयोग होता है तब 100% नर कीट उत्पन्न होते हैं। प्रो॰ एफ.ए.ई. क्रिउ (F.A.E. Crew) भी कहते हैं कि भ्रूण के लिंग का निर्धारण केवल क्रोमोसोमों से ही न होकर, उनमें पाए जानेवाले जीनों (genes) की तथा अलिंगसूत्रों (autosomes) में पाए जाने वाले जनकों की अंतक्रिया (interaction) से भी होता है, जैसे पक्षियों में मादा विषमलिंगी एक्स वाई (XY) तथा नर समलिंगी एक्स एक्स (XX) होते हैं। कीटों में लैंगिक विभाजन जनन ग्रंथियों पर निर्भर नहीं करता। उनके मुख्य जनकात्मक लक्षण इस प्रकार होते हैं : नर एक्स ओ (XO), या एक्स वाई (XY); मादा (XX) एक्स एक्स। फिंकलर (Finkler) ने सन् 1923 में कुछ नर कीटों के मस्तक काटकर मादाओं पर तथा मादाओं के मस्तक नरों पर लगा दिए। इन प्रयोगों में यह पाया गया कि कीटों ने अपने शरीर के अनुसार नहीं अपितु मस्तक के अनुसार काम किया, अर्थात् नर मस्तक वाली मादाओं ने नर की भाँति तथा मादा मस्तकवाले नरों ने मादा की भाँति लैंगिक लक्षण प्रकट किए।

लैंगिक द्विरूपता (Sexual Dimorphism)

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'कॉमन फीजैन्ट' के नर एवं मादा

बहुत से जन्तुओं के नर और मादा के आकार एवं स्वरूप में स्पष्ट अन्तर होता है। इसे लैंगिक द्विरूपता कहते हैं।

यह बतलाया जा चुका है कि लैंगिक विकास के तृतीय चरण में नर मादा के भेद प्रकट होने लग गए थे। धीरे-धीरे अंडाशय तथा वृषणों का विकास हुआ और सहायक अंग भी क्रमश: विकसित होते गए। अनेक निम्न जीवों में, तथा वनस्पतियों में भी नर तथा मादा जननांग एक ही शरीर में पाए जाते हैं। ज्यों ज्यों उच्च वर्ग की ओर बढ़ा जाएगा तो यह मिलेगा कि लिंग स्पष्ट ही पृथक् हो गए हैं और नर तथा मादा शरीर की रचना भी पृथक् है।

लैंगिक द्विरूपता का परिचित उदाहरण बोनेलिया विरिडिस (Bonellia viridis) नामक एक समुद्री कृमि है। इसकी मादा हरे रंग की तथा आकृति में बेर जैसी होती है। समुद्र के तल में पत्थरों के नीचे या उनके छिद्रों में, यह कृमि निवास करता है। वहीं से अपनी द्विशाखित (bifurcated) शुंड (proboscis) को बाहर लहराते हुए यह जीव आहार ढूँढता रहता है। नर कृमि अत्यंत सूक्ष्म होता है और जननांगों के अतिरिक्त इसके अन्य सभी अंगों का ह्रास हो गया होता है। मादा के शरीर के भीतर नर कृमि परोपजीवी की भाँति रहता है। निषेचित अंडाशय विकसित होकर जल में स्वतंत्र रूप से तैरते हुए लार्वा की भाँति होते हैं। यदि कोई लार्वा समुद्रतल में बैठ जाता है, अथवा किसी मादा के शुंड में पहुँच नहीं पाता है, तो वह मादा के रूप में विकसित होने लगता है। किंतु यदि किसी प्रकार वह मादा के शुंड में आकर्शित होकर पहुँच जाता है, तो वह नर के रूप में विकसित होता है। मादा के शुंड में बंदी बौना नर, सरकते हुए उसे मुँह में तथा वहाँ से भी धीरे धीरे नीचे सरकते हुए मादा की जनन नलिका में पहुँचकर, डिंबाशयों को निषेचित करता है। निषेचित अंडाशय पुन: जल में त्याग दिए जाते हैं और स्वतंत्र रूप से लार्वा की भाँति तैरने लग जाते हैं।

इसी प्रकार सैकुलाइना (Sacculina) नामक एक परजीवी क्रस्टेशिया (crustacea) नर तथा मादा केकड़ों पर आश्रित रहता है। गियार्ड (1887 <Ç.) तथा स्मिथ (1906 ई.) ने लिखा है कि इस क्रस्टेशिया का शरीर केकड़े के उदर में पलता है और कुछ भाग शरीर भेदकर बाहर भी निकल आता है। जिस केकड़े के शरीर में यह घुसता है, उसके जननांगों को यह चूस डालता है। इसके कारण वह वंध्या हो जाता है। अधिकांश केकड़े मर जाते हैं, कुछ नर मादा गुणों से युक्त हो जाते हैं, अथवा मादा केकड़े अंतर्लिंगी बनकर वृषण तथा डिंबाशय दोनों उत्पन्न करने लग जाते हैं।

लिंग सहलग्न वंशागति (Sex-linked Inheritance)

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लिंग सहलग्नता का अर्थ है, लैंगिक क्रोमोसोमों में पाए जानेवाले जीनों के अनुसार लिंगों में विभिन्नता। इन जीनों पर जो गुण या विशेषक (traits) निर्भर करते हैं, उन्हें लिंग सहलग्नता कहते हैं। इन गुणों या विशेषकों की पारेषण विधि को लिंग सहलग्न वंशागति कहते हैं, जैसे पुरुष में एक्स वाई (XY) तथा स्त्री में एक्स एक्स (XX) क्रोमोसोम होते हैं। कोई पुरुष यदि किसी आनुवंशिक दोष से दूषित है, तो केवल उसके पुत्र ही उस दोष को वंशगति में ग्रहण कर सकते हैं, पुत्रियाँ नहीं। सर्वप्रथम डॉंकास्टर (Doncaster) ने सन् 1908 में इस विषय पर प्रकाश डाला था। उन्होंने एक शलभ अब्रैक्सैस लैक्टिकलर (Abraxas lacticolor) की मादा का अब्रैक्सस ग्रॉस्सुलैरियाटा (Abraxas grossulariata) के नर से संयोग कराया। परिणामस्वरूप प्रथम पीढ़ी में सभी शलभ ग्रॉस्सुलैरियाटा वर्ग के कीट पाए गए। दूसरी पीढ़ी में ग्रॉस्सुलैरियाटा तथा लैक्टिकलर के अनुपात 3:1 थे, किंतु सभी लैक्टिकलर मादा निकले। इससे पता चला कि इस प्राणी में नर एक प्रकार के युग्मक (gametes) उत्पन्न करता है, किंतु मादा दो प्रकार के। अत: नर समयुग्मजी (homozygous) तथा मादा विषमयुग्मजी (Heterozygous) होती है। ब्रैवेल (Brambell) कहते हैं कि एक्स (X) क्रोमोसोम में कुछ अन्य प्रकार के आनुवंशिक कारक तथा जीन होते हैं। यदि यह सिद्धांत ठीक है, तो समयुग्मजी माता पिता के विशेषक (traits) उनके विषमयुग्मजी संतानों में चले जाएँगे। इस सिद्धांत को लिंग सहलग्नता (Sex linkage) कहा जाता है, जैसे फलमक्खी ड्रॉसोफिला (Drosophila) की मादा में दो एक्स (X) तथा नर में एक्स वाई (XY) क्रोमोसोम पाए जाते हैं। इसके एक्स (X) क्रोमोसोमों में लाल आँखों के जीन होंगे, या श्वेत आँखों के। लाल आँख वाले जीनों को प्रभावी (dominant) तथा श्वेत को अप्रभावी (recessive) कहते हैं। अत: जब श्वेत तथा लाल आँखों वाली मक्खियों का संयुग्मन होता है, तब लाल आँखों वाली संतान अधिक होती है। लिंग सहलग्नी रोगों में हीमोफिलिया (haemophilia) तथा रंगांधता (colour blindness) प्रमुख रोग माने जाते हैं।

अवियोजन (Non-disjunction)

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शुक्राणु तथा डिंब संयुक्त होकर एक युग्मज (zygote) का निर्माण करते हैं। खंडी भवन (segmentation) की प्रक्रिया में एक ही निषेचित डिंब अनेक खंडों में तब तक विभाजित होता रहता है, जब तक वह पूर्ण भ्रूण नहीं बन जाता।

इस प्रक्रिया में शुक्राणु के क्रोमोसोम तथा डिंब के क्रोमोसोम एक साथ मिलकर विभाजित होते रहते हैं। उदाहरण के लिए, पुरुष के 23 तथा स्त्री के 23 क्रोमोसोम मिलकर 46 क्रोमोसोम हो जाते है। विभाजन के समय 23 क्रोमोसोम एक छोर (pole) की ओर तथा 23 दूसरी ओर चले जाते हैं। इन दोनों छोरों को पुत्रीकोशिका केंद्रक (Daughter cell nucleus) भी कहते हैं। विभाजन की इस सामान्य प्रक्रिया में अनेक प्रकार के दोष उत्पन्न हो सकते हैं जैसे एक केंद्र में 22 क्रोमोसोम चले जाएँ तथा दूसरे में 24, या कोई अन्य दुर्घटना घट जाए तो इसे अवियोजन कहा जाएगा। इस सिद्धांत के साथ ब्रिजेज़ (Bridges) का नाम लिया जाता है। इन्होंने सन् 1916 में कुछ उत्परिवर्ती (mutant) प्राणियों का अध्ययन किया था। इन्होंने पाया कि एक्स एक्स एक्स (XXX) तथा एक्स एक्स वाई (XXY) वाले दोनों प्राणी मादा थे, एक्सओ (XO) वाला प्राणी नर, किंतु संतानोत्पादन में अक्षम था और ओवाई (OY) वाला प्राणी बढ़ा ही नहीं। जिस प्राणी में एक एक्स (X) कम था, उसे प्राथमिक तथा जिसमें एक एक्स (X) अधिक था, उसे गौण अवियोजित कहा गया।

लैंगिक असामान्यताएँ (Sexual abnormalities)

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अवियोजन की प्रक्रिया के परिणामस्वरूप लैंगिक असामान्यताएँ हो जाती हैं। ये असामान्यताएँ मुख्यत: तीन प्रकार की होती हैं : (1) स्त्री पुरूष (2) उभयलिंगी तथा (3) मध्यलिंगी।

स्त्रीपुंरूषता (Gynandromorphism) - स्त्रीपुंरूषता के अंतर्गत ऐसे प्राणी आते हैं जिनमें नर तथा मादा दोनों की विशेषताएँ पाई जाती हैं, जैसे तितलियों, पक्षियों तथा कीट पतंगों में से कुछ तो आधे आधे स्त्री पुरुष होते हैं तथा कुछ में वे विशेषताएँ भिन्न भिन्न अनुपात में होती हैं। वैज्ञानिकों का विश्वास है कि स्त्रीपुरूष प्राणी का जीवन मादा के, जिसमें एक्स एक्स (XX) उपस्थित है, रूप में आरंभ होता है। जब कोशिका विभाजन प्रांरभ होता है। उस समय विभाजित कोशिका के एक भाग में क्रोमोसेम की संख्या में घटबढ़ हो जाती है। फलस्वरूप एक विभाजित कोशिका में केवल एक वाई (Y) ही आ पाता है। इस प्रकार के क्रोमोसोमों की असमान संख्या के कारण नर तथा मादा की आकृतियों में भिन्नता होती जाती है। ऐसे स्त्री-पुंरूष वाले प्राणियों की आंतरिक रचना के परीक्षणों से पता चलता है कि उनके शुक्राणु तथा डिंब जननांग भी उपस्थित रहते हैं। यह असामान्यता उन में अधिक मात्रा में पाई जाती है जिनमें हॉर्मोनो का प्रभाव अत्यल्प होता है, अथवा सर्वथा नहीं होता। यही कारण है कि कुछ पक्षियों को छोड़कर स्त्रीपुंरूपता अन्य विकसित तथा उच्च प्राणियों में नहीं पाई जाती।

उभयलिंगता (Hermaphroditism) - संसार के लगभग सभी जीव उभयलिंगी होते हैं। पुरुषत्व तथा स्त्रीत्व की दिशा में किसी प्राणी का विकास किस आधार पर होता है, इस संबंध में सभी वैज्ञानिक एक मत नहीं हैं। कोशिका विभाजन के समय क्रोमोसोमों की संख्या में क्यों अंतर आ जाता है, अथवा लिंगनिर्माण के समय वोल्फ़ी तथा म्यूलरी वाहिनियों (Wolffian and Mullerian ducts) में से एक का क्यों ह्रास हो जाता है, या पुरुषत्व अथवा स्त्रीत्व निर्धारक हार्मोन किसी नियम, या मात्रा से, क्यों और कैसे नि:स्रवित होते हैं? इन सब प्रश्नों का कोई संतोषजनक उत्तर अभी वैज्ञानिक नहीं दे पाए हैं। अत: हम यह मान लेंगे कि स्त्री या पुरुष होना निरे संयोग की बात है।

प्रत्येक प्राणी में यह क्षमता होती है कि वह नर, या मादा में विकसित हो जाए। उभयलिंगता इसका ज्वलंत उदाहरण है। उभयलिंगी कई प्रकार के होते हैं, जैसे (1) ऐसे प्राणी जो स्वनिषेचन (self-fertilization) करते हैं, जैसे हाइड्रा (hydra), फीताकृमि (tapeworm), चपटाकृमि (flatworm) आदि (इन जंतुओं में इनका अपना ही शुक्राणु अपने ही डिबों को निषेचित करता है), (2) दूसरे ऐसे प्राणी होते हैं जो निषेचन के लिए एक दूसरे पर निर्भर करते हैं; जैसे केंचुआ, जोंक आदि।

वनस्पतियों की भी अनेक जातियों में एक ही पौधे में कुछ फूल पौधे के किसी विशेष भाग में ही पाए जाते हैं। उच्च श्रेणी के अनेक पौधों में एक ही फूल में स्त्रीकेसर (pistils) तथा पुंकेसर (stamens) समीपस्थ होते हैं ताकि गर्भाधान में सरलता हो।

उभयलिंगियों में नर तथा मादा के अंत: और बाह्य लक्षण एकसाथ पाए जाते हैं। भेकों (toads) की मादाओं में शुक्र तथा नरों में डिंब ग्रंथियाँ प्राय: साथ साथ पाई जाती हैं। कछुओं में भी अंडवृषण (ovotestes) पाए गए हैं। कबूतरों में नर की शुक्र ग्रंथि डिंब तथा तारामीन की मादा के डिंबाशय में वृषण पाए गए हैं। केकड़ों में वृषण तथा डिंबाशय साथ साथ पाए गए हैं। इलास्मोब्रैक (Elasmobranch) मछलियों में निष्क्रिय वृषण और सक्रिय डिंबाशय साथ साथ पाए गए हैं। कुछ मछलियाँ ऐसी भी पाई गई जिनमें दो डिंबाशय तथा एक वृषण था।

मध्यलिंगता (Intersexuality) - यह वह स्थिति है जब कोई प्राणी किसी एक लिंग की ओर विकसित होते होते सहसा, किसी कारणवश, दूसरे लिंग को भी धारण कर ले। मनुष्यों में हिजड़ों (eunuchs) की यही अवस्था होती है। आनुवंशिकविज्ञान के अनुसार ऐसी अवस्था का कारण तीन कायिक, या दैहिक क्रोमसोम समूह के साथ दो एक्स (X) क्रोमोसोमों का होना है। (गोल्डश्मिट्)। इस अनुपात के कारण मक्खियों की बाहरी आकृति नर तथा मादा का मिश्रण होती है, यद्यपि जनन से उनके शरीर में नर तथा मादा ऊतक (tissues) नहीं पाए जाते। वे आकृति में या तो नर ही होंगी, या मादा ही। ऐसे प्राणी वंध्या होते हैं। ब्रैवेल ने बतलाया है कि अंतर्लिगी की जनन ग्रंथियाँ तो एक ही प्रकार की होती हैं, किंतु कुछ या सभी सहायक अंग तथा गौण लक्षण दूसरे लिंग का निर्णय मात्र कर देते हैं उनका वास्तविक विकास हार्मोनों के प्रभाव से ही होता है। सन् 1923 में क्रिउ ने कुछ घरेलू पशुओं (बकरे, सूअर, घोड़े, चौपाए, भेड़ तथा ऊँट) की जाँच की और पाया कि उनमें मिथ्या मध्यलिंगता (pseudo-intersexuality) थी, अर्थात् कुछ में तो नारी जननांग अत्यंत संकुचित थे, कुछ में सीधे और स्पष्ट, किंतु अनपेक्षित लंबे थे, तथा कुछ में स्पष्टत: नर के समान, किंतु अपूर्ण नलिकायुक्त थे। कुछ में वृषण तथा डिंब ग्रंथियाँ भी उपस्थित थीं। पुरुषों (मनुष्यों) में कुछ को मासिक धर्म होते तथा कुछ को दूध पिलाते हुए पाया गया है। जननांग में घाव, या शल्यक्रिया, या हार्मोन प्रयोग द्वारा माध्यलिंगता उत्पन्न हो सकती हैं।

लैंगिक परिवर्तन (Sexual Reversals)

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अनेक प्राणियों में स्वत: लिंग परिवर्तन होता रहता है, उनका जीवनचक्र इस प्रकार होता है : नर (या मादा) र उभयलिंगी र मादा (या नर)। बोनेलिया, परजीवी केकड़ों, घोघों, मधुमक्खियों, तारामीनों तथा पक्षियों में लैगिक परिवर्तन प्राय: होते रहते हैं। प्राय: सभी वैज्ञानिकों ने मुर्गो में लैंगिक परिवर्तन का अध्ययन किया है और पाया है कि कोई मुर्गा आरंभ में मादा था और अंडे देता था, किंतु, डिंबाशय में रोग हो जाने के कारण अंडोत्पादन बंद हो गया। मुर्गी में धीरे धीरे मुर्गा के लक्षण प्रकट होने लगे और वह मुर्गियों में गर्भाधान करने लगी। क्रिउ का कहना है कि मादाओं में (चिड़ियों में) सामान्य डिंबाशय के साथ साथ एक छोटा, अल्पवर्धित वृषण भी होता है। डिंबाशय के निष्क्रिय होते ही वृषण सक्रिय हो जाता है। यही स्थिति उन मुर्गियों की हुई जिनकी डिंबग्रंथियाँ काटकर निकाल दी गई थीं।

चौपायों के जुड़वों (twins) में स्वतंत्र मार्टिन (Free Martin) नाम से एक असामान्य घटना का उल्लेख किया गया है। यह हॉर्मोन प्रभाव का उदाहरण है। जुड़वें तीन प्रकार के होते हैं : दोनों नर या दोनों मादा, या एक नर और एक मादा। अंतिम प्रकार में ऐसा होने की संभावना रहती है कि भ्रूणीय विकास में दोनों भ्रूणों में पारस्परिक रक्त का प्रवाह एक शरीर से दूसरे शरीर में होता रहे। ऐसी दशा में हॉर्मोनों का भी आदान प्रदान चल सकता है। नर हॉर्मोन पहले विकसित होता है और जुड़वों को नरत्व (maleness) की ओर ले चलता है। मादा हॉर्मोन देर में विकसित होता है और जुड़वों में से एक को मौलिक रूप से मादा बनाता है। फलस्वरूप जो मादा उत्पन्न होगी, उसमें नर के स्पष्ट लक्षण होंगे और वह वंध्या होगी। लिलि (Lillie) ने यह बतलाया है कि चौपायों के जुड़वों में सामान्य रक्तप्रवाह होता है और मादा को वास्तव में नर हॉर्मोनयुक्त रक्त प्राप्त होता है। अन्य पशुओं में जुड़वों में सामान्य रक्तप्रवाह की व्यवस्था नहीं होती, अत: उनमें स्वतंत्र मार्टिन नहीं होते।

लैंगिक परिवर्तन का प्रभाव मनुष्यों पर भी देखा जाता है। प्राय: समाचारपत्रों में पढ़ने को मिलता है कि अमुक का लिंग परिवर्तन हो गया। सन् 1935 तथा 36 के ओलिंपिक चैपियनों में दो स्त्रियाँ ऐसी पाई गई जो बाद में चलकर पुरुष हो गई। मनुष्यों में यौवनारंभ के पूर्व (Prepuberty) यदि स्त्री पुरुष की जननग्रंथियाँ काट दी जाएँ, तो उनका लिंग परिवर्तन तो हो जाएगा, किंतु वे पूर्णतया स्त्री, या पुरुष नहीं हो सकेंगे और न तो संतोनोत्पादन ही कर सकेंगे। उनके हाव-भाव अवश्य स्त्रियोचित, या पुरुषोचित हो जाएँगे। पक्षियों में लिंगपरिवर्तन स्त्रीत्व से पुरुषत्व की ओर ही होता है।

लिंग अनुपात

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इस का अर्थ है किसी प्राणी वर्ग में नर तथा मादा की उत्पत्ति, स्थिति तथा मृत्यु की दर। यह अनुमान किया जाता है कि कम से कम मनुष्यों में प्रथम संतान नर ही होती है। युद्ध के दिनों में भी अधिकांश संतानें नर होती हैं, क्योंकि प्रकृति स्वयं पुरुषों की कमी को पूरा करती है। प्राथमिक लिंग अनुपात की बात केवल मनुष्य ही नहीं, अपितु पशु जगत् में भी लागू होती है। वहाँ भी उन पशुओं में जो हरम बनाकर रहते हैं, नर अधिक होते हैं, जैसे बंदरों की कुछ जातियाँ, शहद की मक्खी, चींटी, दीमक आदि। एक घोड़ा अनेक घोड़ियों को गर्भित करता है। यदि वह अधिकाधिक बार मैथुन करे तो लिंगानुपात में अद्भूतपूर्व परिवर्तन हो सकता है। मुर्गी से बलपूर्वक बच्चे पैदा कराए जाएँ, तो मादा बच्चे अधिक पैदा होंगे। गौण लिंगानुपात के संबंध में क्रिउ (Crew) ने कुछ नियम बतलाए हैं :

(1) प्राणियों की जातियों (species) के साथ अनुपात घटता बढ़ता रहता है, जैसे 100 मादाओं के अनुपात में मनुष्य नर 103-107, घोड़ा 98.6, कुत्ता 118.5, चौपाए 107.3, भेड 97.7, सूअर 111.8, खरगोश, 104.6, मुर्गा 93.4-94.7, कबूतर 115, मछली, कोटस (Cottus) 188 तथा लोफियस (Lophius) 385 होते हैं।

(2) प्रजाति (race), नस्ल (breed) तथा गोत्र (strain) के अनुसार अनुपात में अंतर होता है, जैसे : अमरीका में 106, ग्रेट ब्रिटेन, में 93.5, स्पेन में 95.3, जर्मनी, में 96.9, फ्रांस में 97.9, बेल्जियम में 98.4, इटली में 99, पोलैंड में 100, जापान में 102, भारत में 104 तथा चीन में 125 और यहूदियों में 104-105 पुरुष प्रति 100 स्त्रियों पर पाए जाते हैं।

(3) लैगिक अनुपात में प्रति वर्ष अंतर होता रहता है।

(4) वर्ष की विशेष मैथुन ऋतु (breeding season) का भी प्रभाव पशुओं पर पड़ता है।

(5) माता पिता की आयु और शारीरिक अवस्था का प्रभाव संतानों के अनुपात पर पड़ता है।

(6) गर्भ की कालानुक्रम संख्या (chronological number) का प्रभाव लैंगिक अनुपात पर पड़ता है।

(7) दो गर्भों के बीच का क्रम भी प्रभावशाली होता है। कर्ट स्टर्न (Curt Stern) के अनुसार अवैध (illegitimate) संतानों में नर की संख्या मादाओं से कम होती है। दूसरों के अनुसार नागरीकरण (urbanization), संकरण (cross breeding), सामाजिक आर्थिक अवस्था (socio economic status), भौगोलिक वातावरण आदि का भी प्रभाव लिंगानुपात पर पड़ता है।

अन्य प्राणियों में लिंगपरिवर्तन द्वारा लिंगानुपात निर्धारित होता है, जैसे जिफोफोरस हिलेरी (Xiphophorus hilleri) के अपरिपक्व प्राणियों में नर तथा मादा का अनुपात 0.5:1 का होता है, किंतु परिपक्व (mature) प्राणियों में यह अनुपात विपरीत (1: 0.5) होता है।

इन्हें भी देखें

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बाहरी कड़ियाँ

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