मीनसरीसृप
मीनसरीसृप (इक्थियोसॉरिया, Ichthyosauria) लुप्त जलीय सरीसृप हैं, जिनका आकार मछली के जैसा होता था। अत: मीनसरीसृप नाम पड़ा। जीवाश्म सरीसृपों में इनका पता सबसे पहले लगा था। कोनीबियर और मैंटल ने इसका सर्वप्रथम वर्णन किया। ये ऐसे चतुष्पदीय जीव थे जिनका जीवन ट्राइऐसिक कल्प में, बहुत बड़े परिणाम में, थलीय से जलीय जीवन में बदल गया। ये पूर्ण रूप से जल अनुकूलित हो गए और जलीय जीवन बिताने लगे थे। तृतीय महाकल्प में जो स्थान सूँस (dolphin), शिंशुक (porpoise) और ह्वेल (whale) का था, वही स्थान ट्राइऐसिक कल्प में मीनसरीसृप का हो गया। मध्यजीवी महाकल्प (Mesozoic era) के अधिक भाग तक इनका सर्वाधिक आधिपत्य रहा। जलीय जीवनयापन के बाद ये बिल्कुल लुप्त हो गए और इनके स्थान को स्थलीय जीवन बिताने वाले अन्य जीवों ने ले लिया।
इनके पूर्वजों के संबंध मे विशेष ज्ञान प्राप्त हो सका है। संभवत: इनका विकास, जैसा इनके शरीर की रचना से पता लगता है, कोटिलोसॉरिया (Cotylosauria) से हुआ है। इस विचार से कि इनकी उत्पति किसी उभयचारी, आद्यसरीसृप (protosaur) श्से पार्मियन (Permian) युग में हुई थी, कोई मतभेद नहीं है। ऐसा विचार किया जाता है कि ये आद्यसरीसृप अपने अवयवों के ्ह्रास से जलीय जीवन के अनुकूल हो गए, न कि प्लिसियोसॉरस (Plesiosaurus) जल सरीसृपों के समान अवयवों के वर्धन से।
केवल कुछ ही मीनसरीसृपों के जीवाश्म संसार के विभिन्न भागों में, उत्तर में यूरोप से लेकर दक्षिण में न्यूजीलैंड तक मिले हैं। इनका प्रारूपिक रूप इक्थियोसॉरस का है, यद्यपि ट्राइऐसिक युग के मिक्सोसॉरस (Mixosaurus) और आैंफैलोसॉरस (Omphalosaurus) भी प्राप्त हुए हैं। इनके अतिरिक्त यूरिटेरिजियस (Eurepterygius), स्टेनोटैरीजियस (Stenopterygius) और यूरिनोसॉरस (Eurhinosaurus) भी मिले हैं।
अधिकांश मीनसरीसृपों की आकृति और गुण समान होते हैं, केवल कुछ व्यक्तिगत गुणों में ही विभिन्नता पाई जाती है। अत: यहाँ केवल इक्थियोसॉरस का ही वर्णन किया जा रहा है, जिसके जीवाश्म संसार के प्राय: सब खंडों में, उत्तर से दक्षिण तक, पाए गए हैं। ये संसार की मध्यजीवी कल्प की चट्टानों में और उत्तर यूरोप की जूरैसिक युग की चट्टानों में प्रचुरता से मिले हैं। ये एक मीटर से लेकर 10-12 मीटर तक लंबे पाए गए हैं। जीवाश्मों से इनके शरीर और कोमल अंगों तक का विस्तृत विवरण प्राप्त हो सका है। इनका शरीर जलीय जीवन के लिये बिल्कुल अनुकूल और थलीय जीवन के लिये सर्वथा अयोग्य था। इनकी आकृति मछली जैसी थी। इनका जीवनक्रम भी मछली जैसा ही था। इनमें अधिक वेग से तैरने की क्षमता थी। इनका शरीर त्वचा की महीन झिल्ली से ढँका हुआ था। इनकी चाल शरीर की तालबद्ध गति के कारण होती थी। शरीर की प्रगति की लहर अगले अंगों से पूँछ की तरफ होती थी। पूँछ पतवार का कार्य करके शरीर को आगे बढ़ाने में सहायक होती थी। अगले और पिछले अंग क्षेपणी (paddle) का कार्य करते थे तथा जल में शरीर को संतुलित कर अंगों पर नियंत्रण रखते थे। इन्हीं अंगों के द्वारा शरीर को खेया या रोका जाता था। इनका शरीर धारारेखित (streamlined) था। शरीर का आकार सिर से पैर तक बढ़ा जाता था। वास्तविक गर्दन नहीं थी। सिर शरीर से जुड़ा हुआ प्रतीत होता था। शरीर चिपटा सा हो गया था। पक्ष क्षेपणी का रूप लेकर तैरने में सहायक हो गया था। कलाई टखने और अँगुलियों की हड्डियाँ असाधारण रूप से चपटी, षट्कोणीय, जुड़ी, छोटी हड्डियों के समान रह गई थीं। अंगुलियाँ लंबी और चौड़ी हो गई थीं। अंगुलियों की संख्या पाँच से बढ़ या घट गई थीं। इनमें शार्क मछली की भाँति विषमपालि (heterocercal) पँूछ उत्पन्न हो गई थी। जीवाश्मों में पृष्ठरेखा (dorsal line) कंकालविहीन मांसल अंग के रूप में दृष्टिगोचर होती है। जबड़ों के लंबे होने के कारण सिर लंबा और तुंडाकार था। आँखें बहुत बड़ी थीं और अक्षिपट (sclerotic plates) के दृढ़ बलय से घिरी हुई थीं। नेत्र कोटर के समीप ही नासाद्वार था। दाँत अनेक और नुकीले, प्रत्येक जबड़े के खाँचे में एक पंक्ति में थे। अग्रपाद की तुलना में पश्चपाद बहुत छोटा था।
खोपड़ी की ऊपरी हड्डियाँ संपीडित हो गई थीं और शंख खात (temporal fossa), पश्च ललाट (postfrontal) और ऊर्ध्वशंख (supratemporal) हड्डियों से मिलकर बनी थीं। वलयक (stapes) हड्डी काफी विशालकाय हो गई थी, जबकि सरीसृपों में यह पतली होती है। मेखलाओं का अस्थिकरण नहीं हुआ था और श्रेणी मेखला (pelvic girdle) पृष्ठदंड से अलग हो चुकी थी। प्रगंडिका (humerus) और ऊर्विका (femur) के अतिरिक्त अन्य लंबी हड्डियाँ गोल और छोटी हो गई थीं।
मीनसरीसृप अंडज थे या जरायुज, इसका बहुत दिनों तक निर्णय न हो सका था, पर अब यह निश्चय हो गया कि ये जरायुज थे। कुछ जीवाश्मों में शरीर के अंदर छोटे शिशु या भ्रूण मिले हैं, जिससे जरायुज होने का स्पष्ट प्रमाण मिलता है। जीवाश्मों की आँतों में समुद्र फेनी या कटलफिश, या मछलियों के मिलने से पता लगता है कि ये मछलियों को खाते थे। संभवत: ये अपने शिशुओं का भी भक्षण करते थे। एक समय ऐसा समझा जाता था कि मीनसरीसृप मछलियों के विकास से बने हैं, पर अब यह निश्चित है कि ये स्थलीय सरीसृपों से ही ऐसे बने हैं कि उनकी थलीय प्रकृति बिल्कुल नष्ट हो गई है और जलीय जीवनयापन के अनुकूल बन गई है।
संदर्भ ग्रंथ
संपादित करें- कोलबर्ट, ई0 एच0 : 'इवोल्युशन ऑव वर्टिब्रेट्स' (1955),
- जे0 बिली ऐंड संस, न्यूयॉर्क,
- रोमर, ए0 एम0 : 'दि वर्टिब्रेट स्टोरी' (1959) युनिवर्सिटी शिकागो प्रेस, शिकागो।