मूल्य छत (price ceiling) सरकार या अन्य आधिकारिक संस्था द्वारा किसी माल या सेवा की कीमत पर एक अधिकतम कीमत (मूल्य) का स्थापित करना होता है। यह उपभोक्ताओं की रक्षा करने के लिए लगाया जाता है। अक्सर यह अस्थाई रूप से बाज़ार में एकदम से किसी चीज़ का मूल्य अकारण बढ़ने से या किसी अन्य आपातकालीन स्थिति में अस्थाई रूप से करा जाता है। अगर ऐसा स्थाई रूप से किसी बाज़ार में करा जाए, तो इस से आर्थिक संतुलन गड़बड़ा जाता है, आर्थिक दक्षता में हानि होती है और मृतभार घाटा उत्पन्न होता है। यह अर्थव्यवस्था के लिए हानिकारक है और इस से आगे चलकर अभाव अर्थव्यवस्था उत्पन्न होती है, यानि बाज़ार में उस चीज़ की स्थाई रूप से कमी हो जाती है जिसपर मूल्य छत लगाई गई है। इस से काले बाज़ार को भी प्रोत्साहन मिलता है।[1][2][3]

इन्हें भी देखें

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  1. Varian, Hal R. (1992), Microeconomic Analysis, Vol. 3. New York: W.W. Norton.
  2. Anderson, James C., Dipak Jain, and Pradeep K. Chintagunta (1993), "Understanding Customer Value in Business Markets: Methods of Customer Value Assessment," Journal of Business-to-Business Marketing, 1 (1), 3–30.
  3. Case, Karl E.; Fair, Ray C. (1999). Principles of Economics (5th संस्करण). Prentice-Hall. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-0-13-961905-2.