योगशास्त्र हेमचंद्राचार्य द्वारा रचित योग-ग्रन्थ है। इसकी शैली पतंजलि के योगसूत्र के अनुसार ही है किंतु विषय और वर्णन क्रम में मौलिकता एवं भिन्नता है। ज्ञातव्य है कि जैनधर्म में मोक्षप्राप्ति के लिए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनों का होना अनिवार्य माना गया है। इन तीनों के योग-संयोग को मोक्षमार्ग या मोक्षोपाय बताया गया है। योगशास्त्र में इन्हीं तीनों से सम्बन्धित आद्योपान्त निरूपण है।

विशद् टीका सहित प्रथम चार परिच्छेदों में जैन दर्शन का विस्तृत और स्पष्ट वर्णन दिया ग्या है। योगशास्त्र नीति विषयक उपदेशात्मक काव्य की कोटि में आता है। योगशास्त्र जैन संप्रदाय का धार्मिक एवं दार्शनिक ग्रंथ है। वह अध्यात्मोपनिषद् है।

आचार प्रधान है तथा धर्म और दर्शन दोनो से प्रभावित है। योग शाश्त्र ने नीतिकाव्यों या उपदेश काव्यों की प्ररम्परा को समृद्व एवं समुन्नत किया है। योगशास्त्र विशुद्व धार्मिक एवं दार्शनिक ग्रंथ है। इसमें १२ प्रकाश तथा १०१८ श्लोक है।

इसके अंतर्गत मदिरा दोष, मांस दोष, नवनीत भक्षण दोष, मधु दोष, उदुम्बर दोष, रात्रि भोजन दोष का वर्णन है।

अंतिम १२ वें प्रकाश के प्रारम्भ में श्रुत समुद्र और गुरु के मुखसे जो कुछ मैं ने जाना है उसका वर्णन कर चुका हुं, अब निर्मल अनुभव सिद्व तत्वको प्रकाशित करता हुं ऐसा निदेश कर के विक्षिप्त, यातायात, इन चित-भेंदो के स्वरुपका कथन करते बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा का स्वरुप कहा गया है।

  • सदाचार ही ईश्वर प्रणिधान नियम है।
  • निर्मल चित्त ही मनुष्य का धर्म है।
  • संवेदन ही मोक्ष है जिसके सामने सुख कुछ नहीं है ऐसा प्रतीत होता है।

संवेदन के लिये पातच्जल योगसूत्र तथा हेमचंद्र योगशास्त्र में पर्याप्त साम्य है। योग से शरीर और मन शुद्व होता है। योग का अर्थ चित्रवृतिका निरोध। मन को सबल बनाने के लिये शरीर सबल बनाना अत्यावश्यक है।

योगसूत्र और योगशास्त्र में अत्यंत सात्विक आहार की उपादेयता बतलाकर अभक्ष्य भक्षणका निषेध किया गया है।

आचार्य हेमचंद्र सब से प्रथम 'नमो अरि हन्ताणं' से राग -द्वेषादि आन्तरिक शत्रुओं का नाश करने वाले को नमस्कार कहा है।

योगसूत्र तथा योगशास्त्र पास-पास है।

संसार के सभी वाद, संप्रदाय, मत, द्दष्टिराग के परिणाम है। द्दष्टिराग के कारण अशांति और दु:ख है। अतः विश्वशांति के लिये, द्दष्टिराग उच्छेदन के लिये हेमचंद्रका योगशास्त्र आज भी अत्यंत उपादेय ग्रंथ है।[किसके अनुसार?]

संरचना संपादित करें

योगशास्त्र में कुल 12 प्रकाश हैं। सब श्लोक 1012 हैं और उन पर श्रीहेमचन्द्राचार्य की ही 12750 श्लोक-परिमित स्वरचित व्याख्या है। पहले के तीनों प्रकाशों में योगविद्यामान्य यम-नियम, इन दोनों अंगों के रूप में पूर्वोक्त तीनों योगों का जैनदृष्टि से स्फुट वर्णन है। चौथे प्रकाश में आत्मा के परमात्मा से योग के लिए आत्मस्वरूप-रमण, कषायों और विषयों पर विजय, चित्तशुद्धि, इन्द्रिय-निग्रह, मनोविजय, समत्व, ध्यान, बारह अनुप्रेक्षाओं, मैत्री आदि चार भावनाओं एवं आसनों का विशद विवेचन है। पांचवें प्रकाश में प्राणायाम, मनःशुद्धि, पञ्चप्राणों का स्वरूप, प्राणविजय, धारणाओं, उनसे सम्बन्धित 4 मंडलों तथा प्राणवायु द्वारा ईष्ट-अनिष्ट, जीवन-मृत्यु आदि के ज्ञान एवं यंत्र, मंत्र, विद्या, लग्न, छाया, उपश्रुति आदि द्वारा कालज्ञान, नाडीशुद्धि एवं परकायप्रवेश आदि का वर्णन है। छठे प्रकाश में प्रत्याहार एवं धारणा का, सातवें प्रकाश में ध्यान के पिण्डस्थ आदि चार ध्येयों और पाथिवी आदि 5 धारणाओं का दिग्दर्शन कराया गया है। आठवें प्रकाश में पदस्थ-ध्येयानुरूप ध्यान का स्वरूप एवं विधि का संक्षिप्त वर्णन है। तदनन्तर नौवें में रूपस्थध्यान का और दशवें में रूपातीत का दिग्दर्शन है। फिर ग्यारहवें और बारहवें प्रकाश में समस्त चरणों सहित धर्मध्यान और शुक्लध्यान से ले कर निर्विकल्पक समाधि, मोक्ष तथा चित्त के प्रकारों आदि का अनुपम वर्णन है।

बाहरी कड़ियाँ संपादित करें