रमेशचन्द्र दत्त

भारत के प्रसिद्ध प्रशासक, आर्थिक इतिहासज्ञ तथा लेखक

रमेशचंद्र दत्त (13 अगस्त 1848 -- 30 नवम्बर 1909) भारत के प्रसिद्ध प्रशासक, आर्थिक इतिहासज्ञ तथा लेखक तथा रामायणमहाभारत के अनुवादक थे। भारतीय राष्ट्रवाद के पुरोधाओं में से एक रमेश चंद्र दत्त का आर्थिक विचारों के इतिहास में प्रमुख स्थान है। दादाभाई नौरोज़ी और मेजर बी. डी. बसु के साथ दत्त तीसरे आर्थिक चिंतक थे जिन्होंने औपनिवेशिक शासन के तहत भारतीय अर्थव्यवस्था को हुए नुकसान के प्रामाणिक विवरण पेश किये और विख्यात ‘ड्रेन थियरी’ का प्रतिपादन किया। इसका मतलब यह था कि अंग्रेज अपने लाभ के लिए निरंतर निर्यात थोपने और अनावश्यक अधिभार वसूलने के जरिये भारतीय अर्थव्यवस्था को निचोड़ रहे हैं।

रमेश चन्द्र दत्त

रमेश चन्द्र दत्त
जन्म 13 अगस्त 1848
कोलकाता, बंगाल, ब्रितानी भारत
मौत 30 नवम्बर 1909(1909-11-30) (उम्र 61 वर्ष)
बड़ोदा राज्य, ब्रितानी भारत
राष्ट्रीयता भारतीय
जाति बंगाली
शिक्षा की जगह कोलकाता विश्वविद्यालय
युनिवर्सिटी कॉलेज, लन्दन
पेशा इतिहासकार, अर्थशास्त्री, भाषाशास्त्री,
सिविल सेवक, राजनेता
राजनैतिक पार्टी भारतीय राष्त्रीय कांग्रेस
धर्म हिन्दू
जीवनसाथी मनमोहिनी दत्त
रमेशचन्द्र दत्त

रमेश चंद्र दत्त का जन्म 1848 में कोलकाता के एक ऐसे परिवार में हुआ था जिसने ईस्ट इण्डिया कम्पनी के तहत व्यापार करके काफी सम्पत्ति अर्जित की थी। सन्‌ 1868 में ये आइ.सी.एस. की परीक्षा देने के लिए इंग्लैंड गए तथा 1869 में इस परीक्षा में तीसरा स्थान पाकर उत्तीर्ण हुए। सन्‌ 1871 में ये भारत वापस आए। इन्होंने अपने इन तीन वर्षो के इंग्लैंड प्रवास के विषय में एक पुस्तक 'थ्री ईयर्स इन इंग्लैड' लिखी। भारत आने के बाद इन्होंने अनेक प्रशासनिक पदों का कार्यभार सँभाला तथा उड़ीसा के कमिश्नर एवं पोलिटिकल एजेंट, बड़ौदा के दीवान और रॉयल कमीशन के सदस्य रहे।

रमेश चन्द्र दत्त 1882 में बंगाल के विभिन्न जिलों में प्रशासनिक कामकाज देखते रहे। 1883 में जिला मजिस्ट्रेट बनने के बाद 1894 में बर्धमान जिले के डिप्टी कमिश्नर नियुक्त किये गये। उन्नीसवीं सदी में इतने बड़े पद पर पहुँचने वाले वे पहले भारतीय थे। 1897 में उन्होंने आईसीएस से अवकाश ग्रहण किया और 1904 तक की अवधि  युरोप में गुजारी। वे लंदन के युनिवर्सिटी कॉलेज में इतिहास के प्रोफेसर भी रहे। 1899 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन ने उन्हें अपना अध्यक्ष निर्वाचित किया।

सन्‌ 1897 से 1904 तक ये लंदन विश्वविद्यालय में भारतीय इतिहास के प्राध्यापक रहे। उनका निधन 1909 में हुआ।

योगदान : ब्रिटिश आर्थिक नीतियों की आलोचना

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अपने गहन अनुसंधान और विश्लेषण से दत्त ने दिखाया कि ब्रिटिश शासन न केवल भारत की भौतिक स्थिति सुधारने में विफल रहा, बल्कि उसके काल में भारत का वि-उद्योगीकरण हुआ। ब्रिटिश आर्थिक नीति के परिणामस्वरूप भारत के दस्तकारी उत्पादन में ज़बरदस्त गिरावट आयी और उसकी भरपाई के रूप में औद्योगिक उत्पादन में बढ़ोतरी नहीं हुई। न ही भारतीय उद्योगों को किसी भी तरह का संरक्षण प्रदान किया गया। नतीजे के तौर पर भारतीय अर्थव्यवस्था पहले से कहीं ज़्यादा खेती पर निर्भर होने के लिए मजबूर हो गयी। भारतीय समाज का देहातीकरण होता चला गया। दत्त का कहना था कि ब्रिटिश उपनिवेशवाद के कथित रचनात्मक कदमों से भी भारत को लाभ नहीं हुआ। अंग्रेज़ों द्वारा शुरू किये गये रेल- परिवहन के कारण पारम्परिक परिवहन सेवाएँ मारी गयीं और ट्रेनों का इस्तेमाल ब्रिटिश कारख़ानों में बने माल की ढुलाई के लिए होता रहा। दत्त का निष्कर्ष था कि भारतीय अर्थव्यवस्था अविकसित नहीं है, बल्कि उसका विकास अवरुद्ध कर दिया गया है। उनके द्वारा लिखा गया इतिहास विद्वानों के एक हिस्से में प्रचलित उस मार्क्सवादी धारणा को झुठलाता है जिसके मुताबिक ब्रिटिश उपनिवेशवाद की भूमिका प्रगतिशील ठहरायी जाती है।

आर्थिक इतिहासकार के अलावा रमेश चंद्र दत्त एक प्रतिभाशाली और कुशल सांस्कृतिक इतिहासकार भी थे। बंगीय साहित्य परिषद् के संस्थापक अध्यक्ष रहने के साथ-साथ उन्होंने महाभारत और रामायण का अंग्रेज़ी में संक्षिप्त कव्यानुवाद भी किया।  संस्कृत साहित्य के प्रमाणों के आधार पर दत्त ने भारत की प्राचीन सभ्यता के इतिहास की रचना भी की।

ब्रिटिश आर्थिक नीति के दुष्परिणामों पर प्रकाश डालने के अलावा आर्थिक विचारों के विकास में दत्त का दूसरा प्रमुख योगदान यह था कि उन्होंने अर्थव्यवस्था में सरकारी हस्तक्षेप की सीमा निर्धारित करने की वकालत की। यह सिफ़ारिश उन्होंने बीसवीं सदी की शुरुआत में एक ऐसे समय में की जब अन्य भारतीय अर्थशास्त्री आर्थिक जीवन में सरकार के हस्तक्षेप को कम करने की माँग कर रहे थे। दत्त का कहना था कि सरकार को निजी पहलकदमी घटाने वाले हस्तक्षेपों से बचना चाहिए, लेकिन ख़ास परिस्थितियों में दख़लअंदाज़ी के लिए तैयार रहना चाहिए ताकि अस्थाई किस्म के संकटों से बचते हुए हितों का टकराव टाला जा सके। यथार्थ का आकलन करने की दत्त की पद्धति भी उस ज़माने के हिसाब से अलग तरह की थी। वास्तविकता के अनेक कारणों में एक को प्रमुख और दूसरों को उसका प्रभाव मान कर चलने के बजाय दत्त ने आर्थिक और राजनीतिक तथ्यों की परस्पर निर्भरता की अवधारणा विकसित की। उनकी मान्यता थी कि समाज के तंत्र में हर चीज़ एक-दूसरे पर निर्भर है, परस्पर जुड़ी हुई है इसलिए संतुलन बिगाड़ने जैसा कोई भी काम नहीं करना चाहिए। लेकिन, साथ में दत्त यह भी समझते थे कि संतुलन हमेशा एक जैसा नहीं रहता है। वह लगातार बदलता रहता है। इसलिए सरकार को हस्तक्षेप करते समय की फ़ौरी स्थिति की अंतर्निहित गतिशीलता पर अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिए, वरना उसके हस्तक्षेपकारी कदमों का परिणाम विपरीत भी निकल सकता है।

अर्थशास्त्र पर दत्त की रचनाओं का प्रकाशन 1900 से शुरू हुआ। उनकी पहली पुस्तक थी भारत में पड़ने वाले अकालों का अध्ययन करने वाली 'फ़ेमिंस ऐंड लैण्ड एसेसमेंट इन इण्डिया' जिसकी सराहना रूसी अराजकतावादी दार्शनिक प्रिंस क्रोपाटकिन ने भी की थी। उनकी इस कृति से ज़ाहिर था कि वे भारतीय किसान की जीवन-स्थितियों में कितनी दिलचस्पी रखते हैं और उनका आर्थिक चिंतन किस तरह से उसकी स्थिति सुधारने पर केंद्रित है। दत्त ने सवाल उठाया कि 1858 के बाद से चालीस साल की अवधि में भारत की जनता को दस भीषण अकालों का सामना क्यों करना पड़ा? उन्होंने पूछा कि इस दौरान हुकूमत ईस्ट इण्डिया कम्पनी के बजाय सम्राज्ञी के हाथ में थी।  इस दौरान आमतौर पर शांति रही और केवल एक ही युद्ध हुआ। हुकूमत के पास प्रशिक्षित प्रशासक थे जिन्हें भारतीय परिस्थितियों का पर्याप्त अनुभव था। ज़मीन उपजाऊ थी, किसान उद्यमी और किफ़ायतशार थे। ऐसी अनुकूल परिस्थितियों के बावजूद ऐसा क्यों हुआ कि इन अकालों के दौरान करीब डेढ़ करोड़ लोग भूख के शिकार हो कर जान से हाथ से धो बैठे?  दत्त यह मानने के लिए तैयार नहीं हुए कि अकालों का कारण आबादी में तेज़ रक्रतार से हुई बढ़ोतरी है या भारत के किसान लापरवाह, काहिल और फ़िज़ूलख़र्च हैं। उन्होंने यह भी स्वीकार नहीं किया कि किसानों का सूदखोर महाजनों के शिकंजे में फँसा होना अकाल का कारण हो सकता है। दत्त ने अपने अध्ययन में दिखाया कि भारत में आबादी बढ़ने की रफ्तार इंग्लैण्ड के मुकाबले न केवल हमेशा कम रही, बल्कि उनके अध्ययन से पहले के दस वर्षों में इस देश की आबादी में बढ़ोतरी रुक ही गयी थी। दत्त के अनुसार भारत से ज़्यादा परिश्रमी और कम ख़र्च में गुज़र-बसर करने वाले किसान दुनिया में और कहीं नहीं हैं। उन्होंने अकाल के कारणों की जाँच करने वाले आयोगों की रपटों का हवाला देते हुए कहा कि सरकारी राजस्व की कठोरतापूर्वक वसूली के कारण ही किसानों को महाजनों पर निर्भर होना पड़ता है। अंग्रेज़ सरकार को आईना दिखाते हुए दत्त ने प्रदर्शित किया कि अकाल के बावजूद ऐसा कोई साल नहीं था जब सारी फ़सलें चौपट हो गयी हों। सरकारी गोदामों में अनाज हमेशा भरा रहा। एक प्रांत में अगर फ़सल ख़राब हो गयी हो, तो दूसरे प्रांत में फ़सल अच्छी हुई। खेती का विस्तार हुआ है, वह सघन भी हुई है, पहले के मुकाबले पैदावार भी बढ़ी है, खेतिहर उपज की कीमतें भी बढ़ी हैं, पर इसके बाद भी किसानों की हालत लगातार ख़राब होती गयी है। इसके लिए दत्त ने ब्रिटिश नीतियों को ज़िम्मेदार ठहराया।

1902 में दत्त के महान ग्रंथ 'द इकॉनॉमिक हिस्ट्री ऑफ़ ब्रिटिश इण्डिया' का पहला खण्ड प्रकाशित हुआ। इसे ब्रिटिश हुकूमत पर लिखे गये सबसे बेहतरीन ग्रंथ की संज्ञा दी जाती है। इसमें 1757 में अंग्रेज़ों की सत्ता की स्थापना से लेकर सम्राज्ञी की हुकूमत लागू होने तक का आर्थिक इतिहास पेश किया गया था। इसमें ईस्ट इण्डिया कम्पनी के तहत अपनायी गयी खेती और भूमि बंदोबस्त संबंधी नीतियों, व्यापार और कारख़ाना उत्पादन संबंधी नीतियों के साथ-साथ वित्त और प्रशासन संबंधी नीतियों का विश्लेषणात्मक विवरण था। पुस्तक के ब्रिटिश समीक्षकों ने भी इसकी निष्पक्षता और गहराई का लोहा माना। 1904 में इस महाग्रंथ का दूसरा खण्ड प्रकाशित हुआ। उन्होंने प्रामाणिक तथ्यों के आधार पर दावा किया कि ब्रिटिश शासन के प्रारम्भिक वर्षों में अपनायी गयी स्वार्थपूर्ण नीतियाँ भारतीय उद्योगों के पतन के लिए ज़िम्मेदार रही हैं।

दत्त ने भारत में ग़रीबी के कारणों पर प्रकाश डालते हुए साबित किया कि अंग्रेज़ों की नीति के कारण देशी उद्योग और हस्तकलाओं को तबाह हो जाना पड़ा। लाखों लोग बेरोज़गार हो गये जिससे जीवन-यापन के लिए उनके सामने खेती के अलावा कोई और चारा नहीं रह गया। इस तरह खेती के भरोसे जीवित रहने वालों की संख्या हद से ज़्यादा बढ़ गयी और सभी के रहन-सहन का स्तर गिर गया। इसके साथ-साथ अंग्रेज़ भारत पर हुकूमत करने के लिए भारी धन ख़र्चते रहे जिसका मुल्क को कोई फ़ायदा नहीं पहुँचा। राजकोषीय नीति और भू-राजस्व प्रणाली कुछ इस तरह की बनायी गयी कि किसान के पास सिर्फ़ ज़िंदा बचे रहने लायक संसाधन ही रह गये। दत्त के पास इन समस्याओं का इलाज करने का नुस्ख़ा भी था। उन्होंने सिफ़ारिश की कि भारतीय मिल उद्योग से उत्पादन शुल्क हटा लिया जाए, नीची दरों के नरम लगान के अलावा बाकी सभी टैक्सों से किसानों को छुटकारा दिया जाए, इंग्लैण्ड में होने वाली फ़ौजी और शाही ख़र्च भारत से नहीं वसूले जाने चाहिए और भारत में भी फ़ौजी ख़र्च घटाये जाने चाहिए।

दत्त ने जैसे ही ये सुझाव दिये, ब्रिटिश हुकूमत और उसके हिमायतियों ने उनकी चौतरफ़ा आलोचना शुरू कर दी। उनके तथ्यों और विश्लेषण को ख़ारिज करने की कोशिश की गयी। ध्यान रहे कि दत्त इण्डियन सिविल सर्विसेज़ के वरिष्ठ अधिकारी थे और ब्रिटिश शासन की सेवा करने के दायित्व से बँधे हुए थे। लेकिन, अपनी बात पर जमे रह कर उन्होंने अपने विरोधियों के साथ बहस की और सरकार से लगातार अनुरोध किया कि वह भारत की आर्थिक दशा में सुधार के लिए नीतियाँ बदले।

इनकी विलक्षण प्रतिभा केवल प्रशासनिक कार्यों तक ही सीमित नहीं थी, वरन्‌ ये मौलिक लेखक तथा इतिहासज्ञ भी थे। अपने लेखनकाल के आरंभ में इन्होंने अंग्रेजी में लिखा, पर बाद में बंकिमचंद्र के प्रभाव से बँगला में भी रचना की। इनके मुख्य ग्रंथ निम्नलिखित हैं :

  • 1. ए हिस्ट्री ऑव सिविलिजेशन इन एंशेंट इंडिया (तीन खंड); -- बाबू श्यामसुन्दरदास ने इसके भाग एक और भाग दो का सरल हिंदी में अनुवाद किया जो धर्म कूप काशी द्वारा प्रकाशित सन् १९२० में द्वितीय बार मूल्य दो रूपये में उपलब्ध की गई।[1][2]
  • 2. लेटर हिंदू सिविलिजेशन;
  • 3. इकानामिक हिस्ट्री ऑव इंडिया, भाग-१; इकानामिक हिस्ट्री ऑव इंडिया, भाग-२
  • 4. इंडियंस इन दि विक्टोरियन एज;
  • 5. ए हिस्ट्री ऑव दि लिटरेचर ऑव बंगाल;
  • 6. दि महाभारत ऐंड दि रामायण;
  • 7. लेज़ ऑव एंशेंट इंडिया;
  • 8. ग्रेट एपिक्स ऑव एंशेंट इंडिया;
  • 9. शिवाजी (अंग्रेजी और बँगला);
  • 10. लेक ऑफ पाम्स;
  • 11. दि स्लेव गर्ल ऑफ आगरा;
  • 12. थ्री ईयर्स इन इंग्लैंड;
  • 13. दि पेजैंट्री ऑफ बंगाल;
  • 14. ऋग्वेद (बँगला अनुवाद);
  • 15. इंग्लैड ऐंड इंडिया
  • 16. बंगबिजेता (१८७४)
  • 17. माधबीकंकण (१८७७)
  • 18. महाराष्ट्र जीबन-प्रभात (१८७८)
  • 19. राजपूत जीबन-सन्ध्या (१८७९)
  • 20. संसार (१८८६)
  • 21. समाज (१८९४)
  • 22. शतबर्ष, (बंगबिजेता, राजपुत जीबन-सन्ध्या, माधबीकंकण तथा महाराष्ट्र जीबन-प्रभात एकसाथ, १८७९)
  • 23. संसार कथा – ('संसार' उपन्यास का परिवर्तित संस्करण, १९१०)

1. मीनाक्षी मुखर्जी (2009), ऐन इण्डियन फ़ॉर आल सीज़ंस : द मेनी लाइव्ज़ ऑफ़ आर.सी. दत्त, पेंगुइन, नयी दिल्ली.

2. पॉलिन रूल (1977), द परसूट ऑफ़ प्रोग्रेस : अ स्टडी ऑफ़ इंटलेक्चुअल डिवेलपमेंट ऑफ़ रमेश चंद्र दत्त, 1848-1888, एडीशंस इण्डियन, कोलकाता.

3. पी.के. गोपालकृष्णन (1980), भारत में अर्थशास्त्र संबंधी विचारों का विकास, पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस, नयी दिल्ली.

4. जे.एन.बी. गुप्त (1911), लाइफ़ ऐंड वर्क ऑफ़ रमेश चंद्र दत्त, जे.एम. डेंट ऐंड संज़, लंदन.

बाहरी कड़ियाँ

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