रमैनी या रमनिनी 'बीजक' की प्रस्तावना है। कबीर ने रमैनी द्वारा हिंदू एवं मुस्लिम दोनों को समान रूप से धार्मिक शिक्षा दी है और अपने विचारों को निर्भयतापूर्वक समाज के समक्ष रखा है। रमैनी में चौरासी पद हैं। प्रत्येक पद में स्वतंत्र विचार हैं। प्रथम रमैनी में सृष्टि की उत्पत्ति का वर्णन, समष्टि और व्यष्टि भाव से किया गया है। द्वितीय रमैनी में व्यष्टि रूप से जीव तथा माया की त्रिगुणात्मक फाँस में जीवात्माओं के फँस जाने का वर्णन किया गया है। तीसरी एवं चौथी रमैनी में अनेक वाणियों एवं कर्मों के जाल का वर्णन किया गया है। पंचम पद में द्वंद्व के फंदे को मुक्ति का बाधक बतलाया गया है और छठे में आत्मा के असंग ज्ञान से माया के संग के परित्याग का विवेचन किया गया है। सातवें से लेकर दसवें तक वेदांत की चर्चा के साथ माया के बंधन और उनसे छूटने के मार्ग पर प्रकाश डाला गया है।

रमैनी में चार स्थलों पर जीवों को चेतावनी दी गई हैं। सर्वप्रथम ग्यारहवें पद में जीवों को संबोधित किया गया है कि भोगों की वासना, उन्हें माया के बंधनों में फाँस देती है। इक्कीसवे एवं बाइसवें पदों में यह चेतावनी दी गई है कि इस अपार दु:खमय जगत्‌ में केवल दु:ख ही दु:ख है। अत: विवेक धारण करना आवश्यक है। चौवालीसवें पद में तीसरी बार कबीर ने जीवों को बतलाया है कि सतसंग से सन्मार्ग मिलता है। अंतिम याने, चौरासीवें पद में चौथी बार उद्बोधन किया है कि मनुष्य स्वयं सचेत नहीं होता अत: स्वप्रमय संसार से मुक्ति नहीं पाता। यदि वह स्वयं चेते तो वह एक हो जाए।

रमैनी के शेष पदों में भ्रमजाल, अभिमान, अज्ञान, अविद्या, कर्मबंधन, संसारी गुरुओं की कहानी, जीव, ईश्वर और मन का ताना बाना और उसकी दशा, जैन आदि मत की समीक्षा, शास्त्रव्यवसायी पंडितों की दशा, ज्ञान की आवश्यकता, संसार की अनित्यता, माया ओर मन की प्रबलता, हठयोगियों की दशा, मनुष्य जाति का निरूपण, शैव हठयोगियों तथा वाचक ब्रह्मज्ञानियों की दशा, अवतारवाद, मायाफाँस और उसका विनाश, कालपुरुष और जीव का स्वरूप, विवेक की आवश्यकता, संसारवृक्ष की विलक्षणता एवं क्षत्रिय कर्तव्यविचार का आध्यात्मिक विवेचन किया गया है। कायागढ़ जीतने पर अधिक बल दिया गया है।

कबीर के बीजक ग्रंथ का वास्तविक सार एवं आध्यात्मिक रहस्य रमैनी में मिलता है जो प्राय: चौपाई छंद में हैं।

बीजक संपादित करें

गुप्तधन को बतानेवाले सांकेतिक लेख को 'बीजक' कहते हें। कबीर साहब की वाणियों को पुस्तक के रूप में भागोदास ने संकलित किया जो बीजक के नाम से विख्यात है। बीजक की भाषा ठेठ प्राचीन पूर्वी है। बीजक के सांकेतिक शब्द 'राम' का तात्पर्य अवतारी राम से और अधिकतर शुद्ध स्वरूप चैतन्य से है। इसी प्रकार हरि, जादवराम, गोविंद, गोपाल आदि का भी उसी अर्थ में प्रयोग किया गया है। मन के लिए मच्छ, मांछ, मीत, जुलाहा, साउज, सियार, रोझ, हस्ती, मतंग, निरंजन आदि का प्रयोग किया गया है। पुत्र, पारथ, जुलाहा, सिंह, मूलस, भँवरा, योगी आदि शब्द जीवात्मा को सूचित करते हैं। माया के बोधक शब्द माता, नारी, छेरी, गैया, बिलैया आदि और संसार के बोधक शब्द सायर, बन, सीकस आदि हैं। इसी प्रकार नर-तन के लिए यौवन, दिवस, दिन और इंद्रियों के लिए सखी, सहेलरी आदि सांकेतिक शब्दों का प्रयोग हुआ है। इसी ग्रंथ में 'हंस कबीर' मुक्तात्मा सूचक है, 'कहहिं कबीर' गुरुवचन (कबीर के लिए) कहैं कबीर 'और' 'कबीर' अन्योक्ति का, 'दास कबीर' ईश्वर के उपासकों का और 'कबीरा' तथा 'कबिरन' अज्ञानी तथा वंचक गुरुओं के लिए प्रयुक्त हुआ है।

बीजक ग्रंथ को स्पष्ट रूप से ग्यारह प्रकरणों में विभक्त किया गया है। प्रथम प्रकरण 'रमैनी' के नाम से प्रसिद्ध है, जिसका वर्णन ऊपर किया जा चुका है।

बीजक का दूसरा प्रकरण 'शब्द' कहलाता है। इसमें कबीर के 115 शब्दों का मार्मिक विवेचन है। कबीर ने क्रमश: सद्गुरुभक्ति, सदैव जाग्रत रहने का बोध, घर का झगड़ा, यह 'भ्रमभूत सकल जग खाया', माया की प्रबलता, चेतन की सत्ता, व्यापकता और प्रकाशता का वर्णन, मायिक अवतारों का वर्णन, जीवों की मूढ़ता, हिंदू और मुसलमानों के मतों की आलोचना, पुरोहित की समालोचना, प्रेमप्रथा और आत्मतुष्टि, माया की प्रबलता और उससे छूटने का उपाय, अध्यास फाँस, हिंसारत और प्रतिग्रहपरायण ब्राह्मणों की दशा, अवतारमीमांसा, राजमजपन विधि, रामरस का पान, भ्रम और आडंबर, सत्य-पद-प्रदर्शन, पुरुषोत्तम की बलिहारी, भक्तिविचार, विश्वात्मदर्शन, ज्ञानलक्षण भक्ति, वाणीरूप अद्भुत गाय, ब्रह्म ज्योति आदिक आनात्मोपासकों को उपदेश, राम और रहीम की एकता, प्रपंची गुरुओं की संगति का फल, शिक्षा और उद्बोधन, शरीरवियोग, निज भक्तों के लक्षण तथा हंसस्थिति, नामोपासकों की धारणा, मोहजाल, गुरुपद, आत्मविमुखता, अंधविश्वास, छूआछूत विचार ज्ञानियों की स्थिति, स्वरूपस्थिति एवं तत्वविचार, अनोखी नारी, मनुष्यों की अज्ञानता, मन की लीला, अनधिकार चर्चा, संसारतरु, 'कोइ काहू का हटा न माना, झूठा खसम कबीर न जाना, अंधा कहे अंधा पतियाय, जस विसवा का लगन धराय, सुरति (वृत्ति) के निरोध की आवश्यकता, बंध्य ज्ञानी (वाचक ज्ञानी) और हठयोगियों की दशा, कामना अग्नि का विचार, माया, अहिंसा, सहज भावना, एवं कल्पना का विचार, अमृत वल्ली, वीजेश्वरवादियों के मत की आलोचना, मन की कल्पना, शब्द और शब्दी, मांसभक्षण एवं चेतन की व्यापकता का विचार, शरीर की असारता, भारी भ्रम, जीवात्मा के स्वरूप का परिचय, एकजातिवाद (मनुष्य जाति), निज भ्रम विचार, स्वावलंबन विचार, ज्ञानोदय दशा का वर्णन, शून्यवाद, निरास तथा आत्मोन्मुखता, जीवित मुक्ति विचार, सुगम भक्ति (रामोपासना) का विचार, हिंस और अभक्ष्य-भक्षण-विचार, धर्म का पाखंड, धन और धाम की ममता का विचार, चेतावनी, स्मरणीय वस्तु 'तत्व', दु:खमय जगत्‌, संसार व्यवहार, ब्रह्मज्योति के पासकों से प्रश्न, कलि की प्रबलता का विचार, पाखंडविचार, नामचर्चा और आदि तथा अंतिम अवस्था का विचार, सहज योग, विंहगममार्ग, संवाद और उपदेश, भ्रमभूत विचार, कर्म एवं कामनाओं का विचार, अवतारोपासना का विचार, प्रारब्ध-फल-विचार, जीव पर मन की सेना का आक्रमण, आत्मदर्शन तथा आत्मपरिचय, मन का साम्राज्य, तत्वोपदेश एवं स्वरूपविस्मृति के वर्णन इत्यादि का चित्रण किया है।

बीजक का तीसरा प्रकरण 'ज्ञान चौंतीसा' के नाम से प्रसिद्ध है। इन चौंतीस पदों में कबीर ने हठयोग की समीक्षा की है। बीजक का चौथा प्रकरण 'विप्रमतीसी' के नाम से विख्यात है। इसमें विप्रकर्म मीमांसा का विशुद्ध वर्णन किया गया है। बीजक का पाँचवाँ प्रकरण 'कहरा प्रकरण' कहलाता है। इसमें सहजावस्था विषयासक्ति से आत्मप्रतीति का अभाव, आत्मपूजा, रामनाम के व्यवसायी, संसार की असारता का विचार, आत्मपरिचय की आवश्यकता का उल्लेख, संसार की असारता और विनाशिता, शरीर की हीनता और अनित्यता, राम राजा का आत्मपरिचय और राम कहानी, ननद और भावज का प्रपंच, गाली शब्द और माया के आखेट खेल का निरूपण किया गया है। बीजक का छठा और सातवाँ प्रकरण बसंत के नाम से विदित है। इनमें नित्य वसंत और अनित्य के साथ साथ मायिक वसंत, कर्मी और उपासकों की सम्मिलित प्रार्थना, झीनी माया, की कठपुतली का खेल, माया का विद्युद्विलास, 'अनित्यता', अहंकार की प्रबलता का विचार, काशी-सेवन-विधि एवं प्रबोधन का स्पष्ट वर्णन किया गया है।

बीजक के आठवें प्रकरण 'चाचर' में माया के फगुवा खेल एवं धोखे की टट्टी का विशद वर्णन है। बीजक के नवें प्रकरण 'बेली' में हंसोद्बोधन चेतावनी एवं जीवोद्बोधन चेतावनी का खरा विवरण है। बीजक का दसवाँ प्रकरण 'विरहुली' कहलाता है। इसमें कबीर ने तत्वोपदेश दिया है। बीजक का अंतिम 11वाँ प्रकरण 'हिंडोला' के नाम से विख्यात है। इसमें भ्रम का झूला, लोक लोकांतरों का झूला, मनमोहन झूले की रसीली पेंगे, प्रातिस्विक झूलों का वर्णन एवं साखी का विवरण है।

संदर्भ ग्रंथ संपादित करें

  • बीजक ग्रंथ (सं. स्वामी श्री हनुमानदास जी साहब षटशास्त्री);
  • कबीर साहब का बीजक ग्रंथ (सं.पं. मोतीदास जी चेतनदास जी)
  • डॉ॰ ताराचंद : इन्फ़्लूएंस ऑव इस्लाम ऑन इंडियन कल्चर।

इन्हें भी देखें संपादित करें