शब्द

सबसे छोटा भाषाई तत्व, जिसे शब्दार्थ या व्यावहारिक सामग्री के साथ अलग किया जा सकता है

एक या एक से अधिक वर्णों के मेल से बनी हुई स्वतंत्र सार्थक इकाई शब्द कहलाती है। भारतीय संस्कृति में शब्द को ब्रह्म कहा गया है। वाक्य में प्रयुक्त शब्द पद कहलाते हैं।

शब्दों का वर्गीकरण

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भाषा कुछ शब्द स्वयं बनाती है, तो कुछ शब्द अन्य भाषाओं से ग्रहण करती है। शब्दों का वर्गीकरण पाँच आधारों पर किया जाता है:

  • व्युत्पत्ति/रचना के आधार पर
  • स्रोत/उत्पत्ति के आधार पर
  • अर्थ के आधार पर
  • व्याकरणिक प्रकार्य के आधार पर
  • प्रयोग के आधार पर

व्युत्पत्ति/रचना के आधार पर शब्द-भेद

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शब्द कई प्रकार से बनते हैं। कुछ शब्द एक से अधिक शब्दों को जोड़कर बनाए जाते हैं। सभी शब्दों का अपना अर्थ होता है। एक शब्द जब दूसरे शब्द के साथ जुड़ता है, तब वह भिन्न अर्थ देता है। रचना के आधार पर शब्दों के तीन भेद होते हैं:

रूढ़/मूल शब्द

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वे शब्द जिनके खंड करने पर कोई अर्थ न निकलता हो तथा जो पूर्ण रूप से स्वतंत्र होते हैं, रूढ़ शब्द कहलाते हैं। जैसे: कल, कपड़ा, आदमी, घर, घास, पुस्तक, घोड़ा आदि।

यौगिक शब्द

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दो अथवा दो से अधिक शब्दों के योग (मेल) से बनने वाले सार्थक शब्द, यौगिक शब्द कहलाते हैं। जैसे:

देश + भक्ति = देशभक्ति

विद्या + आलय = विद्यालय

योगरूढ़ शब्द

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वे शब्द, जो यौगिक तो हैं, किन्तु सामान्य अर्थ को न प्रकट कर किसी विशेष अर्थ को प्रकट करते हैं, योगरूढ़ कहलाते हैं। जैसे: हिमालय, पीतांबर, नीलकंठ, पंकज, जलद चतुर्भुज आदि।

स्रोत/उत्पत्ति के आधार पर शब्द-भेद

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स्रोत के आधार पर शब्दों के चार भेद हैं:

तत् (उसके) + सम (समान) अर्थात उसके समान। जो शब्द संस्कृत भाषा (मूल भाषा) से ज्यों के त्यों हिंदी में आ गए हैं, वे तत्सम शब्द कहलाते हैं। इनका प्रयोग हिंदी में भी उसी रूप में किया जाता है, जिस रूप में संस्कृत में किया जाता है, जैसे: अग्नि, क्षेत्र, रात्रि, सूर्य, मातृ, पितृ, आदि।

जो शब्द रूप बदलने के बाद संस्कृत से हिन्दी में आए हैं वे तद्भव कहलाते हैं। जैसे: आग (अग्नि), खेत (क्षेत्र), रात (रात्रि), सूरज (सूर्य), माता (मातृ), पिता (पितृ) आदि।

जो शब्द क्षेत्रीय प्रभाव के कारण परिस्थिति व आवश्यकतानुसार बनकर प्रचलित हो गए हैं वे देशज कहलाते हैं। जैसे-पगड़ी, गाड़ी, थैला, पेट, खटखटाना पगड़ी, मनई, मेहरारू आदि।

विदेशी जातियों के संपर्क से उनकी भाषा के बहुत से शब्द हिन्दी में प्रयुक्त होने लगे हैं। ऐसे शब्द विदेशी अथवा विदेशज कहलाते हैं। जैसे: स्कूल, अनार, आम, कैंची, अचार, पुलिस, टेलीफोन, रिक्शा आदि। ऐसे कुछ विदेशी शब्दों की सूची नीचे दी जा रही है।

अंग्रेजी- कॉलेज, पेंसिल, रेडियो, टेलीविजन, डॉक्टर, लेटर बॉक्स, पैन, टिकट, मशीन, सिगरेट, साइक्ल, बोतल , फोटो, डॉक्टर स्कूल आदि।

फारसी- अनार, चश्मा, जमींदार, दुकान, दरबार, नमक, नमूना, बीमार, बर्फ, रूमाल, आदमी, चुगलखोर, गंदगी, चापलूसी आदि।

अरबी- औलाद, अमीर, कत्ल, कलम, कानून, खत, फकीर,रिश्वत,औरत,कैदी,मालिक, गरीब आदि।

तुर्की- कैंची, चाकू, तोप, बारूद, लाश, दारोगा, बहादुर आदि।

पुर्तगाली- अचार, आलपीन, कारतूस, गमला, चाबी, तिजोरी, तौलिया, फीता, साबुन, तंबाकू, कॉफी, कमीज आदि।

फ्रांसीसी- पुलिस, कार्टून, इंजीनियर, कर्फ्यू, बिगुल आदि।

चीनी- तूफान, लीची, चाय, पटाखा आदि।

यूनानी- टेलीफोन, टेलीग्राफ, ऐटम, डेल्टा आदि।

जापानी- रिक्शा आदि।

डच-बम आदि।

प्रयोग के आधार पर शब्द-भेद

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प्रयोग के आधार पर शब्द के निम्नलिखित दो भेद होते है-1.विकारी शब्द 2.अविकारी शब्द 1-विकारी शब्द के चार भेद होते है

  1. संज्ञा
  2. सर्वनाम
  3. विशेषण
  4. क्रिया

अविकारी शब्द के चार भेद होते है

  1. क्रिया विशेषण
  2. संबंधबोधक
  3. समुच्चयबोधक
  4. विस्मयादिबोधक

इन उपर्युक्त आठ प्रकार के शब्दों को भी विकार की दृष्टि से दो भागों में बाँटा जा सकता है- 1. विकारी 2. अविकारी 1. विकारी शब्द : जिन शब्दों का रूप-परिवर्तन होता रहता है वे विकारी शब्द कहलाते हैं। जैसे-कुत्ता, कुत्ते, कुत्तों, मैं मुझे, हमें अच्छा, अच्छे खाता है, खाती है, खाते हैं। इनमें संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण और क्रिया विकारी शब्द हैं।

2. अविकारी शब्द : जिन शब्दों के रूप में कभी कोई परिवर्तन नहीं होता है वे अविकारी शब्द कहलाते हैं। जैसे-यहाँ, किन्तु, नित्य और, हे अरे आदि। इनमें क्रिया-विशेषण, संबंधबोधक, समुच्चयबोधक और विस्मयादिबोधक आदि हैं।


अर्थ के आधार पर शब्द-भेद

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  1. पर्यायवाची शब्द: समान अर्थ बताने वाले शब्द पर्यायवाची शब्द कहलाते हैं।
  2. विलोम/विपरीतार्थक शब्द: जो शब्द एक-दूसरे का विपरीत अर्थ प्रकट करते हैं, वे विलोम शब्द कहलाते हैं।
  3. समरूप भिन्नार्थक शब्द: वर्तनी में भी सूक्ष्म अंतर के कारण जो शब्द सुनने में एक जैसे लगते हैं, परंतु भिन्न अर्थ देते हैं, वे समरूप-भिन्नार्थक शब्द कहलाते हैं।
  4. वाक्यांशों के लिए एक शब्द: जिन शब्दों का प्रयोग वाक्यांश अथवा अनेक शब्दों के स्थान पर किया जाता है, वाक्यांश के लिए एक शब्द अथवा अनेक शब्दों के लिए एक शब्द कहलाते हैं;
  5. अनेकार्थी शब्द: जो शब्द एक से अधिक अर्थ देते हैं, वे अनेकार्थक शब्द कहलाते हैं। ये शब्द संदर्भ या स्थिति के अनुसार अर्थ देते हैं।
  6. एकार्थक शब्द: जिन शब्दों का केवल एक ही अर्थ होता है, उन्हें एकार्थक शब्द कहते हैं। इनका प्रयोग केवल एक ही अर्थ में किया जाता है।

शब्दार्थ ग्रहण

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बच्चा समाज में सामाजिक व्यवहार में आ रहे शब्दों के अर्थ कैसे ग्रहण करता है, इसका अध्ययन भारतीय भाषा चिन्तन में गहराई से हुआ है और अर्थग्रहण की प्रक्रिया को शक्ति के नाम से कहा गया है।

शक्तिग्रहं व्याकरणोपमानकोशाप्तवाक्याद् व्यवहारतश्च।
वाक्यस्य शेषाद् विवृत्तेर्वदन्ति सान्निध्यतः सिद्धपदस्य वृद्धाः॥ -- (न्यायसिद्धान्तमुक्तावली-शब्दखण्ड)

इस कारिका में अर्थग्रहण के आठ साधन माने गए हैं:

1- व्याकरण, 2- उपमान, 3- कोश, 4- आप्त वाक्य
5- वृद्ध व्यवहार/लोक व्यवहार, 6- वाक्य शेष, 7- विवृत्ति, 8- सिद्ध पद सान्निध्य

भारतवर्ष में शब्द और अर्थ के सम्बन्ध पर अनेक वैयाकरणों तथा दार्शनिकों ने विस्तार से विचार किया है।[1] वे शब्द और अर्थ में नित्य सम्बन्ध मानते हैं। पाणिनि, कात्यायन, पतञ्जलि आदि वैयाकरण शब्द और अर्थ की नित्यता से यही आशय लेते हैं कि शब्द और अर्थ का कभी सम्बन्ध-विच्छेद नहीं होता है। अर्थ शब्द की स्वाभाविक विशेषता है। दोनों का अस्तित्व एक दूसरे पर निर्भर करता है। पतञ्जलि के "सिद्धे शब्दार्थ सम्बन्धे" का भी यही आशय है। शब्द और अर्थ का सम्बन्ध स्वभावसिद्ध है। उनके इसी सम्बन्ध के कारण भावों, वस्तुओं, पदार्थों की पृथकता का बोध होता है। कोई शब्द कब से विशेष अथवा सामान्य अर्थ में प्रयुक्त हुआ, यह कहना कठिन है। कुछ भारतीय वैयाकरण इसे अनादिकाल से आया हुआ मानते हैं। मनुष्य ने आवश्यकतानुसार विभिन्न अर्थों से सम्बंधित नए नए शब्दों का विकास धीरे-धीरे किया होगा। शब्द और अर्थ का नियमन किसी दैवी सत्ता ने किया और मनुष्य से इसका कोई सम्बन्ध नहीं है, यह कहना युक्तिसंगत नहीं है। शब्द अर्थ में वाचक-वाच्य, कारण-कार्य का सम्बन्ध है। अतः यह कहा जा सकता है कि शब्द और अर्थ का अविच्छिन्न सम्बन्ध है।

शब्द को कुछ वैयाकरण नित्य नहीं मानते। उनकी दृष्टि में शब्द सदा एक रूप में वर्तमान नहीं रहता, बोलने पर ही प्रकट होता है और फिर तुरन्त ही नष्ट हो जाता है। अतः जब शब्द ही नित्य नहीं है तो फिर शब्द और अर्थ की नित्यता कैसे स्थिर रह सकती है? किन्तु ये तर्क शब्द की सार्थकता को नष्ट नहीं कर देते हैं। शब्द शून्य में अथवा मनुष्य के मस्तिष्क में सदैव वर्तमान रहता है और ध्वनियों के द्वारा आवश्यकता वह प्रत्यक्ष हो जाता है। शब्दों के रूप या अर्थ में विकार होने से इसके अस्तित्व में कोई बाधा नहीं होती।

शब्द-शक्ति

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अभिधा, लक्षणा, व्यंजना देखें।

प्रत्येक शब्द से जो अर्थ निकलता है, वह अर्थ-बोध कराने वाली शब्द की शक्ति है।

शब्द की तीन शक्तियाँ हैं - अभिधा, लक्षणा में और व्यंजना। जिनमें वे शक्तियाँ होती हैं वे शब्द भी तीन प्रकार के होते हैं- वाचक, लक्षक और व्यंजक। इनके अर्थ भी तीन प्रकार के होते हैं- वाच्यार्थ, लक्ष्यार्थ और व्यंग्यार्थ।

वाचक शब्द साक्षात संकेतित अर्थ का बोधक होता है। वाचक शब्दों के चार भेद होते हैं- जातिवाचक शब्द, गुणवाचक शब्द (विशेषण), क्रियावाचक तथा द्रव्यवाचक शब्द।

अभिधा शक्ति- मुख्य अर्थ की बोधिका शब्द की प्रथमा शक्ति का नाम अभिधा है। अभिधा शक्ति से पद-पदार्थ का पारस्परिक सम्बन्ध ज्ञात होता है। अभिधा शक्ति से जिन वाचक शब्दों का अर्थ बोध होता है, उन्हें क्रमश: रूढ़ (पेड़, पौधा), यौगिक (पाठशाला, मिठार्इवाला) तथा योगरूढ़ (चारपार्इ) कहा जाता है।

मुख्यार्थ से भिन्न लक्षणा शक्ति द्वारा अन्य अर्थ लक्षित होता है, उसके अर्थ को लक्ष्यार्थ कहते हैं। शब्द में यह आरोपित है और अर्थ में इसका स्वाभाविक निवास है। जैसे- 'वह बड़ा शेर है' में 'शेर' बहादुर का लक्ष्यार्थ है।

लक्षणा शक्ति- मुख्यार्थ की बाधा होने पर रूढि़-प्रयोजन को लेकर जिस शक्ति के द्वारा मुख्यार्थ से सम्बन्ध रखने वाला अन्य अर्थ लक्षित हो, उसे लक्षणा शक्ति कहते हैं। लक्षणा के लक्षण में तीन बातें मुख्य हैं- मुख्यार्थ की बाधा, मुख्यार्थ का योग, रूढि़ या प्रयोजन।

व्यंजना शक्ति - व्यंजना के दो भेद हैं- शाब्दी व्यंजना और आर्थी व्यंजना। शाब्दी व्यंजना के दो भेद होते हैं- एक अभिधामूला और दूसरी लक्षणामूला।

इन्हें भी देखें

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बाहरी कड़ियाँ

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