रसिकप्रिया यह आचार्य केशवदास की प्रसिद्ध रचना है। काव्यशास्त्र में रसविवेचन का प्रमुख स्थान है, इस दृष्टि से केशव ने इस इस ग्रंथ में रस का विशद वर्णन किया है।

रसिकप्रिया की पाण्डुलिपि
"रसिकप्रिया" के रचनाकार, केशवदास का चित्र।

इसमें कुल १६ प्रकाश हैं। शृंगार रस चूँकि 'रसराज' माना गया है, इसलिये मंगलाचरण के बाद प्रथम प्रकाश में इसी का, इसके भेदों के साथ, वर्णन किया गया है। फिर, दूसरे प्रकाश में नायकभेद और तीसरे में जाति, कर्म, अवस्था, मान के विचार से नायिका के भेद, चतुर्थ में प्रेमोत्पत्ति के चार मुख्य हेतुओं तथा पंचम में दोनों की प्रणय संबंधी चेष्टाओं, मिलनस्थलों, तथा अवसरों के साथ स्वयंदूतत्व का निरूण किया गया है। फिर छठे में भावविभावानुभाव, संचारी भावों के साथ हावादि का कथन हुआ है। अष्टम में पूर्वानुराग तथा प्रियमिलन न होने पर प्रमुख दशाओं का, नवम में मान और दशम में मानमोचन के उपायों का उल्लेख किया गया है। तत्पश्चात् वियोग शृंगार के रूपों तथा सखीभेद, आदि का विचार किया गय है। चौदहवें प्रकाश में अन्य आठ रसों का निरूपण किया गया है। इसमें आधार भरतमुनि का नाट्यशास्त्र ही प्रतीत होता है। फिर भी यह मौलिक है।

इस ग्रंथ में उन्होंने किसी विशेष रसग्रंथ से सहायता नहीं ली, वरन् रससिद्धांत का सम्यक् अध्ययन कर स्वतंत्र रूप में ही लिखने का प्रयास किया है। रसों के इन्होंने प्रच्छन्न और प्रकाश नामक दो भेद किए हैं। ऐसा किसी अन्य आचार्य ने नहीं किया। भोजदेव ने अनुराग के ऐसे दो भेद किए हैं। कोककला की पटुता को भी नायकादि के प्रसंग में रखा गया है। नयिका के पद्मिनी आदि कामशास्त्रीय भेद किए गए हैं। कुछ भेदों में नामांतर भी किया गया है। स्वानुभव से भी काम लेकर केशव ने मौलिक लक्षणादि दिए हैं। कितनी बातें उनकी नितांत मौलिक हैं। जाति संबंधी भेद, अगम्या, सहेटस्थल और मिलनावसरादि नवीन वर्णन हैं। बोध हाव भी मौलिक है। इस प्रकार देखने से ज्ञात होता है कि रस तथा रस के अंगों आदि के विवेचन में केशव अधिक मौलिक और सफल हैं। अत: उन्हें रसहीन और केवल अलंकारप्रिय कवि मानना समीचीन नहीं।

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