भारत के अन्य भाषाओं का नक़्शा
राजकरण सिंह (सन् 1954 - 30 अक्टूबर 2011) भारतीय भाषा आंदोलन के पुरोधा थे। उन्होने संघ लोकसेवा आयोग की परीक्षाओं में अग्रेजी की अनिवार्यता को समाप्त करने के लिए दिल्ली में अपने साथी पुष्पेन्द्रसिंह चैहान के साथ अखिल भारतीय भाषा संरक्षण संगठन के नाम से संघ लोक सेवा आयोग के समक्ष 16 साल तक निरंतर धरना-प्रदर्शन करते रहे। इसी मुद्दे पर 29 दिन लम्बी आमरण अनशन की गूंज संसद से लेकर भारतीय भाषा समर्थकों को झकझोर कर रख दिया था।

श्री राजकरण सिंह का जन्म उत्तर प्रदेश के बाराबंकी जनपद के बिष्णुपुरा गाँव में हुआ था।

उनके इस आंदोलन की विराटता का पता इसी बात से साफ झलकता है कि देश के पूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह, पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, पूर्व उपप्रधानमंत्री देवीलाल, चतुरानन्द मिश्र, मुलायमसिंह यादव, शरद यादव, रामविलास पासवान सोमपाल शास्त्री सहित चार दर्जन से अधिक सांसदों ने कई समय यहां के आंदोलन में भाग लिया था। इस आंदोलन में देश केराष्ट्रीय समाचार पत्रों के अच्युतानन्द मिश्र सहित दर्जनों वरिष्ठ सम्पादकों, साहित्यकारो, समाजसेवियों, गांधीवादियों, ने यूपीएससी के आगे सडक पर लगे धरने में कई बार भाग लिया। उनके निधन की सूचना मिलते ही दिल्ली में उनके सहयोगियों व मित्रों में शोक की लहर छा गयी। उनके निधन पर संसदीय राजभाषा समिति के सदस्य सांसद प्रदीप टम्टाए भारतीय विदेश सेवा के सेवानिवृत उच्चाधिकारी महेश चन्द्रा, यूएनआई के पूर्व समाचार सम्पादक बनारसी सिंह, भाषा आंदोलन के साथी पुष्पेन्द्र सिंह चैहान, सम्पादक देवसिंह रावत, पत्रकार रविन्द्रं सिंह धामी, ओमप्रकाश हाथपसारिया, इंजीनियर विनोद गोतम, चैधरी केपी सिंह सहित अनेक गणमान्य लोगों ने गहरा शोक प्रकट करते हुए अपनी भावभीनी श्रद्वांजलि दी।

भारतीय भाषाओं को उनका सम्मान दिलाने के लिए वह अंतिम सांसों तक निरंतर संघर्षरत रहे। भारतीय भाषाओं व भारतीयता के इस समर्पित पुरोधा ने भारतमाता की सेवा के लिए विवाह तक नही किया था। उनके राष्ट्रवादी विचारों व भारतीय भाषाओं के प्रति अनन्य सेवा साधना को देखते हुए आर्य समाज उनका हृदय से सम्मान करता रहा और आर्य समाज के आग्रह पर ही वे कई वर्षो से दिल्ली के चावडी बाजार स्थित सीताराम बाजार के आर्य समाज मंदिर में निवास कर रहे थे।

वे भ्रष्टाचार के विरूद्ध आंदोलन में एक मूक समर्पित सिपाई रहे। यही नहीं, 'प्यारा उत्तराखण्ड' के सम्पादक देव सिंह रावत के अनन्य मित्र होने के कारण वे उत्तराखण्ड राज्यगठन जनांदोलन से लेकर 2 अक्टूबर 2011 तक मनाये गये काला दिवस पर भी सक्रिय भागेदारी निभाते रहे।

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