लखमी चंद

सूर्यकवि, हरियाणा के शेक्सपियर

पंडित लखमी चंद (जन्म: 1903, मृत्यु: 1945) हरियाणवी भाषा के एक प्रसिद्ध कवि व लोक कलाकार थे। हरियाणवी रागनी व सांग में उनके उल्लेखनीय योगदान के कारण उन्हें "सूर्य-कवि" कहा जाता है। उन्हें "हरियाणा का शेक्सपियर" भी कहा जाता है।[1][2] उनके नाम पर साहित्य के क्षेत्र में कई पुरस्कार दिए जाते हैं। भले ही वे गरीबी एवं शिक्षा संसाधनों के अभावों के बीच वे स्कूल नहीं जा सके, लेकिन ज्ञान के मामले में वे पढ़े-लिखे लोगों को भी मात देते थे।

उनका जन्म सोनीपत जिले के जाट्टी कलां गाँव में एक साधारण किसान गौड़ ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके दो भाई व तीन बहनें थीं। वे अपने पिता की दूसरी संतान थे। बाल्यवस्था में उन्हें पशु चराने के लिए खेतों में भेजा जाने लगा। उनको गाने में रुचि थी। वह हमेशा कुछ न कुछ गुनगुनाते रहते। सात-आठ वर्ष की आयु में ही उन्होंने अपनी मधुर व सुरीली आवाज से लोगों का मन मोह लिया। ग्रामीण उनसे नित गीत व भजन सुनाने की आग्रह करने लगे। ग्रामीणों की अपार प्रशंसा से उत्साहित बालक लखमी चन्द ने अनेक गीत व भजन कंठस्थ कर लिए और गायकी के मार्ग पर अपने कदम तेजी से बढ़ा दिए। इसी दौरान उनके गाँव जांटीकलां के विवाह समारोह में बसौदी निवासी पंडित मानसिंह भजन-रागनी का कार्यक्रम करने के लिए पहुंचे। वे अन्धे थे। उन्होंने कई दिन तक गाँव में भजन व रागनियां सुनाईं। बालक लखमी चन्द भी उनके भजन सुनने के लिए प्रतिदिन जाते थे। लखमी चन्द के हृदय पटल पर पंडित मान सिंह का ऐसा जादू किया कि उन्होंने सीधे मान सिंह जी को अपना गुरु बनाने का निवेदन कर डाला। एक बालक के गायकी के प्रति इस अपार लगाव से प्रभावित होकर पंडित मान सिंह ने उनके पिता पंडित उदमी राम से इस बारे में बात की और उनकी सहमति के बाद उन्होंने बालक लखमी चन्द को अपना शिष्य बनाना स्वीकार कर लिया। इसके बाद बालक लखमी चन्द अपने गुरु से ज्ञान लेने में तल्लीन हो गए और असीम लगन व कठिन परिश्रम से वे निखरते चले गए।

कुछ ही समय में लोग उनकी गायन प्रतिभा और सुरीली आवाज के कायल हो गए। अब उनकी रूचि ‘साँग’ सीखने की हो गई। ‘साँग’ की कला सीखने के लिए लखमी चन्द कुण्डल निवासी सोहन लाल के बेड़े में शामिल हो गए। अडिग लगन व मेहनत के बल पर पाँच साल में ही उन्होंने ‘साँग’ की बारीकियाँ सीख लीं। उनके अभिनय एवं नाच का जादू लोगों के सिर चढ़कर बोलने लगा। उनके अंग-अंग का मटकना, मनोहारी अदाएं, हाथों की मुद्राएं, कमर की लचक और गजब की फूर्ती का जादू हर किसी को मदहोश कर डालता था। जब वे नारी पात्र अभिनीत करते थे तो देखने वाले बस देखते रह जाते थे। इसी बीच सोहन लाल ने लखमी चन्द के गुरु पंडित मानसिंह के बारे में कुछ असभ्य बात मंच से कह दी तो लखमी चन्द को अत्यन्त बुरा लगा। उन्होंने सोहन लाल का बेड़ा छोड़ने का ऐलान कर दिया। इससे भन्नाए कुछ संकीर्ण मानसिकता के लोगों ने धोखे से लखमी चन्द के खाने में पारा मिला दिया, जिससे लखमी चन्द का स्वास्थ्य खराब हो गया। उनकी आवाज को भी भारी क्षति पहुंची, लेकिन सतत साधना के जरिए लखमी चन्द ने कुछ समय बाद पुनः अपनी आवाज में सुधार किया। इसके बाद उन्होंने स्वयं अपना अलग बेड़ा तैयार करने का मन बना लिया।

पंडित लखमी चन्द ने अपने गुरुभाई जैलाल नदीपुर माजरावाले के साथ मिलकर मात्र 18-19 वर्ष की उम्र में ही अलग बेड़ा बनाया और ‘साँग’ मंचित करने लगे। अपनी बहुमुखी प्रतिभा और महान आशा के बल पर उन्होंने एक वर्ष के अन्दर ही लोगों के बीच पुनः अपनी पकड़ बना ली। उनकी लोकप्रियता को देखते हुए बड़े-बड़े धुरन्धर कलाकार उनके बेड़े में शामिल होने लगे और पंडित लखमी चन्द देखते ही देखते ‘साँग-सम्राट’ के रूप में विख्यात होते चले गए। ‘साँग’ के दौरान साज-आवाज-अन्दाज आदि किसी भी मामले में किसी तरह की ढील अथवा लापरवाही उन्हें बिल्कुल भी पसन्द नहीं थी। उन्होंने अपने बेड़े में एक से बढ़कर एक कलाकार रखे और ‘साँग’ कला को नई ऐतिहासिक बुलन्दियों पर पहुंचाया।

पंडित लखमीचन्द के शिष्यों की लंबी सूची है, जिन्होंने ‘साँग’ कला को समर्पित भाव से आगे बढ़ाया। उनके शिष्य पंडित माँगेराम (पाणची) ने अपनी बहुमुखी प्रतिभा के बल पर ‘साँग’ को एक नया आयाम दिया और अपने गुरु पंडित लखमी चन्द के बाद दूसरे स्थान पर ‘साँग’ कला में अपना नाम दर्ज करवाया। पंडित माँगेराम के अलावा पंडित रामचन्द्र, पंडित रत्तीराम, पंडित माईचन्द, पंडित सुलतान, पंडित चन्दन लाल, पंडित रामस्वरूप, फौजी मेहर सिंह, पंडित ब्रह्मा, धारा सिंह, धर्मे जोगी, हजूर मीर, सरूप, तुगंल, हरबख्श, लखी, मित्रसैन, चन्दगी, मुन्शी, गुलाम रसूल, हैदर आदि शिष्यों ने अपने गुरु पंडित लखमीचन्द का नाम खूब रोशन किया।

पंडित लखमीचन्द ने अपने जीवन में लगभग दो दर्जन ‘साँगों’ की रचना की, जिनमें ‘नल-दमयन्ती’, ‘हरीशचन्द्र’, ‘ताराचन्द’, ‘चापसिंह’, ‘नौटंकी’, ‘सत्यवान-सावित्री’, ‘चीरपर्व’, ‘पूर्ण भगत’, ‘मेनका-शकुन्तला’, ‘मीरा बाई’, ‘शाही लकड़हारा’, ‘कीचक पर्व’, ‘पदमावत’, ‘गोपीचन्द’, ‘हीरामल जमाल’, ‘चन्द्र किरण’ ‘बीजा सौरठ’, ‘हीर-रांझा’, ‘ज्यानी चोर’, ‘सुलतान-निहालदे’, ‘राजाभोज-शरणदे’, ‘भूप पुरंजन’ आदि शामिल हैं। इनके अलावा उन्होंने दर्जनों भजनों की भी रचना की।

प्रारम्भ में लखमी चन्द श्रृंगार-रस की रचनाओं पर जोर देते थे लेकिन धीरे-धीरे उन्होंने आध्यात्मिक ज्ञान को भी अपनी रचनाओं में पिरोना शुरू कर दिया। वेदों, शास्त्रों, उपनिषदों और अन्य धार्मिक ग्रन्थों का ज्ञान लेने के लिए उन्होंने दो विद्वान शास्त्रियों को अपने साथ जोड़ लिया, जिनमें से एक रोहतक जिले के गाँव टिटौली निवासी पंडित टीकाराम शास्त्री थे। वे आध्यात्मिक ज्ञान में ऐसे डूबे की संत प्रवृत्ति के होते चले गए और जीवन के आखिरी दशक में वैरागी-सा जीवन जीने लगे। दान एवं पुण्य कार्यों में उन्होंने बढ़चढ़कर योगदान दिया।

एक बार जब वे झांसी में मिलिट्री की रेजीमेंट में साँग करने गए तो उन्हें निमोनिया हो गया और गाने में परेशानी आने लगी। तब बतौर दवा उन्हें शराब (रम) दी गई। इसके बाद उन्हें आराम हुआ। लौटते समय सेना के डॉक्टर ने भविष्य में इस तरह की दिक्कत आने की सूरत में अग्रिम एक बोतल शराब उपहार स्वरूप पंडित लखमी चन्द को दे दी। उन्होंने घर आकर इस शराब का लगातार कई दिन तक सेवन किया और फिर वे कब शराब के आदी हो गए। बेशक, उन्हें शराब की लत लग गई थी, लेकिन उनके सात्विक विचारों, ज्ञान और रचनाओं की श्रेष्ठता में बिल्कुल भी गिरावट नहीं आई।

लंबी बीमारी के उपरान्त 17 जुलाई, 1945 की सुबह उनका देहान्त हो गया। वे अपनी अथाह एवं अनमोल विरासत छोड़कर गए हैं। उनकी इस विरासत को सहेजने व आगे बढ़ाने के लिए उनके सुपुत्र पंडित तुलेराम ने उल्लेखनीय भूमिका निभाई। इसके बाद तीसरी पीढ़ी में उनके पौत्र पंडित विष्णु दत्त कौशिक भी अपने दादा की विरासत के संरक्षण एवं संवर्धन में अति प्रशंसनीय भूमिका अदा कर रहे हैं। वे अपने दादा द्वारा बनाए गए ‘ताराचन्द’ के तीन भाग, ‘शाही लकड़हारा’ के दो भाग, ‘पूर्णमल’, ‘सरदार चापसिंह’, ‘नौटंकी’, ‘मीराबाई’, ‘राजा नल’, ‘सत्यवान-सावित्री’, महाभारत का किस्सा ‘कीचक द्रोपदी’, ‘पद्मावत’ आदि दर्जन भर साँगों का हजारों बार मंचन कर चुके हैं और आज भी लोगों की भारी भीड़ उन्हें सुनने के लिए दौड़ी चली आती है।

पंडित लखमी चन्द की रचनाओं का भण्डार विशाल है। उनाकी रचनाओं पर अनेक विद्वानों ने बड़े-बड़े शोध किए हैं। उनकी रचनाएं पूरे देश व समाज को एक नई राह दिखाने वालीं और भारतीय संस्कृति व संस्कारों का संवर्धन करने वाली हैं।

उनके द्वारा रचित कुछ प्रमुख सांग हैं : नल-दमयंती, मीराबाई, सत्यवान सावित्री, सेठ तारा चंद, पूरन भगत व शाही लकड़हारा आदि। उनके सुपुत्र पंडित तुलेराम ने उनकी परंपरा को आगे बढ़ाया। आजकल उनके पौत्र विष्णु उनकी इस परंपरा का हरियाणा, राजस्थान व उत्तर प्रदेश के दूर-दराज के गाँवों तक प्रसार करने हेत प्रयासरत हैं।

पंडित लखमीचन्द की रचनाओं का शब्द विन्यास, तुकबन्दी, छन्द, मुहावरे, रस, समास, अलंकार आदि का प्रयोग बेहद अनूठा एवं अनुपम रहा। कुछ बानगियाँ देखिए:

‘तेरे रूप की चमक इसी जाणूं, तेज तेज जंग की का’ (नौटंकी)
‘घटा हटा झट पट घूंघट, कर मत घोर अंधेरे’ (कीचक पर्व)
‘सीप में मोती पत्थर में हीरा तू हीरे बीच कणी सै’ (पदमावत)
‘रूप के निशाने दोनूं जाणूं गोली चालै रण में’ (नल-दमयन्ती)
‘बदन पै था गहणा एक धड़ी, रूप जाणूं, खिलरी फूलझड़ी,
'लवै भिड़ी ना दूर खड़ी वा दूर तै हूर घूर कै खागी।’ (पदमावत)


उन्होंनेने अपनी रचनाओं में धर्मशास्त्रों के अमूल्य ज्ञान को बड़े सहज, सरस व सरल रूप में पिरोया है। देखिए:

‘बीते बिना टलै नहीं समय और कर्म के भोग।’
‘राम बराबर समझणा चाहिए जो औरां के दु:ख बांटै।’
‘पाप नष्ट हों उन बन्द्यां के जो गंगा में नहाया करैं।’
‘लखमीचन्द भगवान समझ रख ध्यान गुरू चरनन में।’
‘लोभ नीच दुनिया में नाड़ चाहे जिसकी तोड़ दे।’
‘वै घर जांगे उत नपूत जड़ै दूध ना दही।’
‘आए गए अतिथि की खातिर दु:ख सुख सहणा चाहिए।’
‘क्यों ना पेड़ धर्म का सींचै।’
  1. Sharma, S D (मई 30, 2008). "Saang fest gets off to majestic start". The Tribune India. Italic or bold markup not allowed in: |publisher= (मदद); गायब अथवा खाली |url= (मदद); |access-date= दिए जाने पर |url= भी दिया जाना चाहिए (मदद)
  2. Malik, B S (जनवरी 21, 2011). "Pandit Lakhmi Chand remembered". The Tribune India. मूल से 24 अक्तूबर 2014 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 26 नवम्बर 2013. Italic or bold markup not allowed in: |publisher= (मदद)