लड्डू गोपाल भगवान विष्णु के पूर्णावतार श्री कृष्ण का बाल रूप है।

श्रीकृष्ण अपने बाल स्वरूप में

उत्पत्ति की कथा संपादित करें

कुम्भनदास हर समय प्रभु श्री कृष्ण की भक्ति में लीन रहते थे और पूरे नियम से भगवान की सेवा करते थे. वे उन्हें छोड़ कर कहीं नहीं जाते थे, ताकि उनकी सेवा में कोई विघ्न न हो. एक दिन वृन्दावन से उनके लिए भागवत कथा करने का न्योता आया. पहले तो उन्होंने मना कर दिया लेकिन लोगों के जोर देने पर वे कथा के लिए जाने के लिए तैयार हो गए. उन्होंने सोचा कि भगवान की सेवा की तैयारी करके वे रोजाना कथा करके वापस लौट आएंगे जिससे भगवान का सेवा नियम भी नहीं छूटेगा. उन्होंने अपने पुत्र को समझा दिया कि वे भोग तैयार कर चुके हैं, तुम्हें बस समय पर ठाकुर जी को भोग लगा देना है. कुम्भनदास ने अपने पुत्र रघुनंदन को समझाया और वहां से प्रस्थान कर दिए रघुनंदन ने भोजन की थाली ठाकुर जी के सामने रखी और सरल मन से आग्रह किया कि ठाकुर जी आओ और भोग लगाओ. उसके बाल मन में यह छवि थी कि वे आकर अपने हाथों से भोजन करेगें, जैसे हम सभी करते हैं. उसने बार-बार ठाकुर जी से आग्रह किया लेकिन भोजन तो वैसे का वैसे ही रखा रहा. अब रघुनंदन उदास हो गया और रोते हुए पुकारा कि ठाकुर जी आओ और भोग लगाओ. जिसके बाद ठाकुर जी ने एक बालक का रूप धारण किया और भोजन करने बैठ गए. ये दृश्य देख रघुनंदन भी प्रसन्न हो गया। रात को जब कुम्भनदास जी ने लौट कर पूछा- बेटा, तुमने ठाकुर जी को भोग लगाया था? रघुनंदन ने कहा- हां. उन्होंने प्रसाद मांगा तो पुत्र ने कहा कि ठाकुर जी ने सारा भोजन खा लिया. उन्होंने सोचा कि बच्चे को भूख लगी होगी तो सारा भोजन उसने ही खा लिया होगा. अब तो ये रोज का नियम हो गया कि कुम्भनदास जी भोजन की थाली लगाकर जाते और रघुनंदन ठाकुर जी को भोग लगाते और जब वे वापस लौटकर प्रसाद मांगते तो एक ही जवाब मिलता कि ठाकुर जी ने सारा भोजन खा लिया. कुम्भनदास जी को अब लगने लगा कि पुत्र झूठ बोलने लगा है। कुम्भनदास ने एक दिन लड्डू बनाकर थाली में सजा दिए और छिप कर देखने लगे कि बच्चा क्या करता है. रघुनंदन ने रोज की तरह ही ठाकुर जी को पुकारा तो ठाकुर जी बालक के रूप में प्रकट होकर आए और लड्डू खाने लगे. यह देखकर कुम्भनदास जी दौड़ते हुए आए और प्रभु के चरणों में गिरकर विनती करने लगे. उस समय ठाकुर जी के एक हाथ मे लड्डू और दूसरे हाथ वाला लड्डू मुख में जाने को ही था कि वे जड़ हो गए. उसके बाद से ही उनकी इसी रूप में पूजा की जाती है और वे ‘लड्डू गोपाल’ कहलाए जाने लगे।