विदिशा नगर के मध्य रेलवे स्टेशन के निकट ही अत्यन्त कठोर बलुआ पत्थर से निर्मित यह स्थान १७० फीट ऊँची है। इसे अब "राजेन्द्र गिरि' के नाम से जाना जाता है। यह अत्यंत मनोरम स्थान है। इसके चारों ओर रायसेन का किला, साँची की पहाड़ियाँ, उदयगिरि की श्रेणियाँ, वैत्रवती नदी व उनके किनारों पर लगी वृक्षों की श्रृंखलाएँ अत्यंत सुदर दिखती है। पहले की तरह आज भी यहाँ मेला लगता है।

लुहागी का सूर्यास्थ अत्यन्त सुन्दर है। यहा प्राक्रुतिक सौदर्य का आनंद ले सकते हैं।
राजेन्द्र गिरि की वृक्षों की श्रृंखलाएँ और एक छोटि सी झील घने जंगलो से चीर्ति हुइ निकल रही है।

इस स्थान का इतिहास महाभारत कालीन है। अश्वमेघ- यज्ञ के समय पाण्डवों ने इस पहाड़ी पर अधिपत्य कर लिया था। जब यहाँ के राजा ने अश्वमेघ यज्ञ का घोड़ा पकड़ लिया, तब उसके रक्षार्थ आये कृष्ण, भीम व कर्ण के पुत्रों ने राजा से युद्ध कर उन्हें पराजित किया। गुरु पुर्निमा को यहाँ मेला लगता है।

इस पहाड़ी पर दो सहस्र वर्ष पहले का मंदिर व सम्राट अशोक के समय का लेखयुक्त चिकना स्तंभ खड़ा है। स्तंभ के शीर्ष पर चार सिंह बने हैं। इस शीर्ष को "पानी की कुंडी' के नाम से पुकारा जाता है। मौर्य काल में बना यह स्तंभ यह संकेत देता है कि उस समय यहाँ कोई स्तूप या संघाराम बना होगा। मुस्लिम शासकों ने कई मंदिर, धर्मशाला व स्तंभ को तोड़कर नष्ट कर दिये। चारों ओर मूर्तियों के खण्डित भाग बिखरे हैं। इसी मलवे से मांडू के सुल्तान महमूद खिजली प्रथम ने १४५७ के आसपास एक दरगाह बनवाई है। दरगाह में मंदिर के स्वास्तिक वाले पत्थरों का उपयोग दिखता है। इसके अलावा यहाँ लोहांगी पीर का मकबरा बना है।

गिरिश्रेणी के बीच में एक पक्की बावड़ी भी था, जो अब टूटी- फूटी स्थिति में है। पूर्व की ओर नीचे चट्टानों पर मूर्तियाँ खुदी है। यहाँ से एक मार्ग द्वारा किसी तलघर में पहुँचने का एक रास्ता अभी भी दिखता है। इस गिरिश्रेणी के नीचे बाई ओर सैनिक छावनी थी, जिसे अब मोहन गिरि का बगीचा कहा जाता है। यह छावनी सिंधियाओं के राज्यकाल तक रही।

सिंधिया शासन ने लोहांगी गिरिश्रेणी पुरातात्विक महत्व को समझते हुए इससे पत्थर काटा जाना निषिद्ध कर दिया। ऊपर चढ़ने के लिए सीढियाँ बनवा दी व इन्होंने ही इसकी रक्षा की।

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