पेड़-पौधों या वनस्पतिलोक का अर्थ, किसी क्षेत्र का वनस्पति जीवन या भूमि पर मौजूद पेड़-पौधे और इसका संबंध किसी विशिष्ट जाति, जीवन के ऱूप, रचना, स्थानिक प्रसार या अन्य वानस्पतिक या भौगोलिक गुणों से नहीं है। यह शब्द फ्लोरा शब्द से कहीं अधिक बड़ा है जो विशेष रूप से जाति की संरचना से संबधित होता है। शायद सबसे करीबी पर्याय वनस्पति समाज है, लेकिन पेड़-पौधे शब्द स्थानिक पैमानों की विस्तृत श्रेणी से संबध रख सकता है, जिनमें समस्त विश्व की वनस्पति-संपदा समाविष्ट है। प्राचीन लाल लकड़ी के वन, तटीय सदाबहार वन, दलदल में जमने वाली काई, रेगिस्तानी मिट्टी की पर्तें, सड़क के किनारे उगने वाली घास, गेहूं के खेत, बाग-बगीचे ये सभीपेड़-पौधों की परिभाषा में शामिल हैं।

पेड़-पौधे बायोस्फीयर के महत्वपूर्ण कार्यों में हर संभव स्थानिक पैमानों पर सहायक होते हैं। प्रथम: पेड़-पौधे अनेकानेक बायोजीयोकेमिकल, विशेषकर जल, कार्बन और नाइट्रोजन के चक्रों के प्रवाह को नियंत्रित करते हैं। इनका स्थानीय और विश्व ऊर्जा संतुलन में भी भारी महत्व होता है। ऐसे चक्र न केवल वनस्पति के वैश्विक, बल्कि जलवायु के भी स्वरूपों के लिये महत्वपूर्ण होते हैं। दूसरे: पेड़-पौधे मिट्टी के गुणों को भी प्रबल रूप से प्रभावित करते हैं, जिनमें मिट्टी का आयतन, रसायनिकता और बनावट शामिल हैं, जो बदले में उत्पादकता और रचना सहित विभिन्न वनस्पति गुणों को प्रभावित करती है। तीसरे: पेड़-पौधे इस ग्रह पर मौजूद जन्तुओं की विशाल सरणी (उनके लिये जो आहार के लिये इन पर निर्भर हैं) के लिये वन्यजीवन आवास और ऊर्जा के स्रोत का काम करते हैं। संभवतः सबसे महत्वपूर्ण पर अकसर नजर अंदाज की जाने वाली बात यह है कि वैश्विक वनस्पति (शैवाल जाति सहित) वातावरण में आक्सीजन का प्रमुख स्रोत है, जो आक्सीजन पर निर्भर चयापचय तंत्रों के प्रादुर्भाव और कायम रहने में सहायक होती है।[1]

वर्गीकरण

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वर्गीकृत द्वारा बायोमास वनस्पति
width="33%" ██ Ice desert██ Tundra██ Taiga██ Temperate broadleaf██ Temperate steppe██ Subtropical rainforest██ Mediterranean██ Monsoon forest██ Desert██ Xeric shrubland██ Dry steppe██ Semidesert██ Grass savanna██ Tree savanna██ Subtropical dry forest██ Tropical rainforest██ Alpine tundra██ Montane forests


वनस्पति के वर्गीकरण पर अधिकांश कार्य यूरोपीय और उत्तर अमरीकी परिस्थिति वैज्ञानिकों ने किया है और उनके तरीके भी मूल रूप से भिन्न हैं। उत्तर अमेरिका में वनस्पति के प्रकार निम्न मापदंडों के संयुक्त रूप पर आधारित हैं – जलवायु के प्रतिमान, पौधों के आवास, फेनॉलॉजी और/या विकास के प्रकार और प्रधान जाति। वर्तमान यूएस मानक में (फेडरल जिओग्राफिक डाटा कमेटी द्वारा स्वीकृत और मूल रूप से यूनेस्कोद नेचर कंजरवेंसी द्वारा विकसित) वर्गीकरण पदानुक्रमित है और नॉन फ्लोरिस्चिक मापदंडों को ऊपरी (सबसे साधारण) मापदंडों में केवल निचले (सबसे विशिष्ट) दो स्तरों में ही समाविष्ट करता है। यूरोप में, वर्गीकरण अकसर बिना जलवायु, फेनॉलॉजी या विकास के स्वरूपों के बारे में स्पष्ट बात किये, अधिकतर और कभी-कभी पूरी तरह फ्लोरिस्टिक (जाति) संरचना पर निर्भर करता है। यह अकसर सांकेतिक या नैदानिक जाति पर जोर देता है जो एक प्रकार को दूसरे से अलग करती है।

एफजीडीसी मानक में, सबसे साधारण से सबसे विशिष्ट, पदानुक्रमित स्तर हैं – तंत्र, वर्ग, उपवर्ग, समूह, बनावट, मेल और संबंध . सबसे निचला स्तर, या संबंध, सबसे सही तरीके से परिभाषित है और एक प्रकार की एक से तीन प्रमुख जातियों के नामों का समावेस करता है। उदाहरण के लिये, वर्ग के स्तर पर किसी वनस्पति प्रकार की परिभाषा, "वन, कैनोपी कवर 60% " हो सकता है, बनावट के स्तर पर, "जाड़े की वर्षा, चौड़े पत्ते वाला, सदाबहार, स्क्लीरोफिल्लस, क्लोज्ड कैनोपी वन"; मेल के स्तर पर, "आरबूटस मेनिजी वन"; और संबंध के स्तर पर, "'आरबूटस मेन्जीसी -लिथोकार्पस डेंसीफ्लोरा वन ", कहा जाता है, जो कैलिफोर्निया और ओरिगन, यूएसए में पाए जाने वाले पैसिफिक मैड्रोन-टैनओक वन हैं। व्यवहार में, मेल और/या संबंध के स्तर सबसे अधिक प्रयुक्त होते हैं, विशेषकर वनस्पति मैपिंग में, ठीक वैसे ही जैसे टैक्सॉनमी और सामान्य बातचीत में किसी जाति के विषय में चर्चा के समय लैटिन बाइनोमियल का सबसे अधिक प्रयोग होता है।

आस्ट्रेलिया में विक्टोरिया में वनस्पति को परिस्थितिवैज्ञानिक वनस्पति वर्ग के अनुसार वर्गीकृत किया जाता है।

सभी जैविक तंत्रों की तरह, वनस्पति समाज सामयिक और स्थानिक रूप से गतिमान होता है। ये हर संभव पैमानों पर बदलते रहते हैं। वनस्पति में गतिशीलता को मुख्यतः जाति की संरचना और/या वनस्पति रचना के रूप में परिभाषित किया जाता है।

सामयिक गतिकी

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सामयिक रूप से, अनेक प्रकार की प्रक्रियाएं या घटनाएं परिवर्तन ला सकती हैं किंतु सरलता के लिये उन्हें अचानक या धीमी श्रेणियों में बांटा जा सकता है। अचानक होने वाले परिवर्तन सामान्यतः उपद्रव कहलाते हैं – इनमें जंगल की आग, तेज हवाएं, भूस्खलन, बाढ़, हिमस्खलन जैसी घटनाएं शामिल हैं। इनके कारण साधारणतः समुदाय के बाहर (बहिर्जात) होते हैं ये प्राकृतिक प्रक्रियाएं होती हैं जो (अधिकतर) समुदाय की प्राकृतिक प्रक्रियाओं (जैसे अंकुरण, विकास, मृत्यु आदि) से स्वतंत्र होती हैं। ऐसी घटनाएं वनस्पति रचना और जाति की संरचना में बहुत तेजी से और लंबी समयावधि के लिये परिवर्तन ला सकती हैं और विशाल क्षेत्र को प्रभावित कर सकती हैं। ऐसे बहुत कम परितंत्र हैं जिनमें नियमित रूप से और बार-बार किसी तरह के उपद्रव नहीं होते और ये हर दीर्घकालिक गतिशील तंत्र का हिस्सा होते हैं। आग और हवा के उपद्रव विश्व भर में अनेक वनस्पति प्रकारों में विशेष रूप से आम हैं। आग खास तौर पर प्रबल होती है क्यौंकि यह न केवल जीवित पेड़-पोधों बल्कि बीजों, बीजाणुओं और जीवित मेरिस्टेमों, जो अगली पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करते हैं, को भी नष्ट कर सकती है और जीव-जन्तुओं, मिट्टी के गुणों और अन्य परितंत्रीय तत्वों व प्रक्रियाओं को प्रभावित कर सकती है। (इस विषय पर अधिक चर्चा के लिये देखें, आग परितंत्र)।

धीमी गति से सामयिक परिवर्तन सर्वव्यापी होता है –इसमें परितंत्रीय आवर्तन का क्षेत्र निहित होता है। आवर्तन रचना और वर्गीकरण के संयोजन में अपेक्षाकृत धीमा परिवर्तन होता है जो समय के साथ वनस्पति द्वारा स्वयं प्रकाश, जल और पोषण स्तरों जैसे पर्यावरण के विभिन्न परिवर्तनशील घटकों में लाए गए संशोधनों के कारण उत्पन्न होता है। ये संशोधन किसी भी क्षेत्र में बढ़ने, बचने और प्रजनन में सर्वाधिक योग्य जाति को बदल देते हैं, जिससे फ्लोरा में परिवर्तन होते हैं। इन फ्लोरिस्टिक परिवर्तनों के कारण वे ऱचनात्मक परिवर्तन होते हैं जो पौधे के विकास में जाति के परिवर्तनों के अभाव की स्थिति में भी स्वाभाविक रूप से होते हैं, जिससे वनस्पति में धीमे और पूर्वज्ञात परिवर्तन (विशेषकर ऐसे पौधे जिनका बड़ा अधिकतम आकार होता है, अर्थात् वृक्ष) आते हैं। आवर्तन में किसी भी समय उपद्रव द्वारा रूकावट हो सकती है जिससे तंत्र वापस अपनी पूर्व दशा में लौट जाता है या और किसी मार्ग पर चल पड़ता है। इसके कारण आवर्ती प्रक्रियाएं किसी स्थिर, अंतिम दशा में पहंच या न पहुंच सकती हैं। इसके अलावा, ऐसी दशाओं के गुणों की भविष्यवाणी, भले वह न घटे, हमेशा संभव नहीं है। संक्षिप्त में, वनस्पति समुदाय अनेक परिवर्तकों पर निर्भर होते हैं जो मिलकर भविष्य की दशाओं की संभावनाओं की सीमाएं निश्चित करते हैं।

वैज्ञानिक अध्ययन

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वनस्पति वैज्ञानिक स्थानों और समय के विभिन्न पैमानों पर वनस्पति में देखे जाने वाले प्रकारों और प्रक्रियाओं के कारणों का अध्ययन करते हैं। जातियों के संयोजन और रचना सहित वनस्पति की विशेषताओं पर जलवायु, मिट्टी, स्थलाकृति और इतिहास की आपेक्षिक भूमिकाओं के विषय में प्रश्न विशेष रूचि और महत्व रखते हैं। ऐसे प्रश्न अकसर बड़े पैमाने पर होते हैं और इसलिये किसी जोड़-तोड़ के प्रयोग द्वारा आसानी से अर्थपूर्ण तरीके से हल नहीं किये जा सकते. इसीलिये व्नस्पतिशास्त्र, पेलियोवनस्पतिशास्त्र, परिस्थितिशास्त्र, मृदाविज्ञान आदि की जानकारी के सहयोग से अवलोकनीय अध्ययन वनस्पति विज्ञान में बहुत आम हैं।

1900 के पूर्व

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वनस्पति विज्ञान का सूत्रपात 18वीं शताब्दी में, या कुछ मामलों में उससे पहले वनस्पतिशास्त्रियों और/या प्रकृतिवादियों के कार्य से हुआ। इनमें से अनेक खोज के युग में खोज की यात्रा पर निकले विश्व यात्री थे और उनका कार्य वनस्पतिशास्त्र और भूगोल का संश्लेषित संयोग था जिसे आजकल हम वनस्पतिक बायोजियोग्राफी (या फाइटोजियोग्राफी) कहते हैं। उस समय विश्वभर के फ्लोरिस्टिक या वनस्पति प्रकारों के बारे में बहुत कम जानकारी थी और यह तो नहीं के बराबर ज्ञात था कि वे किस पर निर्भर थे, इसलिये अधिकांश कार्य पौधों के नमूनों को जमा करने, वर्गीकृत करने और नामकरण करने तक सीमित था। 19वीं शताब्दी तक बहुत कम सैद्धांतिक कार्य हुआ। प्रारंभिक प्रकृतिवादियों में सबसे अधिक परिमाण में कार्य करने वाले व्यक्ति थे एलेक्जेंडर वॉन हम्बोल्ट जिन्होंने 1799 से 1804 तक की दक्षिण और मध्य अमेरिका की अपनी पांच वर्षीय यात्रा के दौरान 60000 वनस्पति नमूने जमा किये. हमबोल्ट पहले ऐसे वैज्ञानिकों में से एक थे जिन्होंने जलवायु और वनस्पति पैटर्नों के बीच संबंध को अपने विशाल जीवनभर के कार्य, "वायेज टू द इक्विनाक्शियल रीजन्स ऑफ द न्यू वर्ल्ड" - में प्रलेखित किया, जो उन्होंने अपने साथी वनस्पतिशास्त्री एमी बॉप्लैंड के साथ मिलकर लिखा. हम्बोल्ट ने वनस्पति को टेक्सानमी के अलावा फिजियोग्नामिक तरीके से वर्णित किया। उनके कार्य ने पर्यावरण-वनस्पति के संबंधों पर गहन कार्य की शुरूआत की जो आज तक चालू है। (बारबर और अन्य, 1987).

आज कल होने वाले नस्पति अध्ययन का प्रारंभ 19वीं सदी के अंत में यूरोप और रूस में, विशेषकर एक पोल, जोजेफ पैकजोस्की और एक रूसी, लियोंटी रेमेन्स्की के द्वारा हुआ। वे दोनों मिलकर अपने समय से बहुत आगे थे और उन्होंने पश्चिम से बहुत पहले आज के महत्वपूर्ण लगभग सभी विषयों का परिचय या वर्णन किया। इन विषयों में वनस्पति समुदाय विश्लेषण, या फाइटोसोशियॉलाजी, ग्रेडियेंट विश्लेषण, आवर्तन और वनस्पति इकोफिजियालाजी और फंक्शनल इकालाजी पर लेख शामिल थे। भाषा और/या राजनीतिक काऱणों से 20वीं सदी तक अधिकांश विश्व, विशेषकर अंग्रेजी बोलने वाले विश्व को उनके अधिकतर कार्य का पता नहीं था।

1900 के पश्चात

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युनाइटेड स्टेट्स में हेनरी कोल्स और फ्रेड्रिक क्लेमेंट्स ने 20वीं सदी के शुरू में वनस्पति आवर्तन के विचारों का विकास किया। क्लेमेंट अब अमान्य सुपरआर्गानिज्म के रूप में वनस्पति समुदाय के वर्णन के लिये प्रसिद्ध है। उसने तर्क पेश किया किजैसे किसी व्यक्ति में सभी अवयव तंत्र मिलकर काम करके शरीर के अच्छी तरह से काम करने में मदद करते हैं और जो व्यक्ति के वयस्क होने के साथ मिलकर विकसित होते हैं, उसी तरह वनस्पति समुदाय में भी हर जाति अत्यंत कड़े समन्वय और तालमेल के साथ विकसित होती है और परस्पर सहयोग करती है और वनस्पति समुदाय को एक परिभाषित और पूर्वनियत अंत स्थिति की ओर धकेलती है। हालांकि क्लेमेंट्स ने उत्तरी अमेरिकन वनस्पति पर बहुत कार्य किया, सुपरआर्गानिज्म के प्रति उसकी भक्ति ने उसकी प्रतिष्ठा को धक्का पहुंचाया है, क्यौंकि अनेकों शोधकर्ताओं द्वारा किये गए कार्य में उसके विचार को समर्थन नहीं मिला है।

क्लेमेंट्स के प्रतिकूल, अनेक परिस्थिति वैज्ञनिकों ने दर्शाया है कि वैयक्तिक परिकल्पना, जो कहती है कि वनस्पति समुदाय पर्यावरण के प्रति प्रतिक्रिया कर रही जातियों के एक समूह का कुल जमा है, सही है और समय और स्थान में एक साथ घटती है। रेमेन्स्की ने रूस में यह विचार प्रस्तुत किया और 1926 में हेनरी ग्लियासन ने युनाइटेड स्टेट्स में इसे एक पेपर में विकसित किया। क्लेमेंट्सियन के विचारों का इतना अधिक प्रभाव था कि ग्लियासन के विचारों को कई सालों तक अस्वीकार किया गया। लेकिन 1950 व 60 के दशकों में राबर्ट व्हिटेकर के अच्छी तरह से तैयार किये गए अध्ययनों की श्रंखला ने ग्लियासन के तर्कों के लिये मजबुत सबूत पेश किये. सबसे योग्य अमेरिकन वनस्पति परिवैज्ञानिकों में से एक, व्हिटेकर ग्रेडियेंट एनेलिसिस का विकासक और समर्थक था जिसमें वैयक्तिक जाति की बहुलताओं को मापे जा सकने वाले पर्यावरण के परिवर्तकों (या उनके संबंधित सरोगेटों) के सम्मुख मापा जाता है। तीन अत्यंत भिन्न मान्टेन परितंत्रों के अध्ययनों में, व्हिटेकर ने दिखाया कि जातियां मुख्यतः पर्यावरण के सम्मुख प्रतिक्रिया करती हैं और अन्य साथ में मौजूद जातियों से उसका कोई समन्वय नहीं होता. अन्य कार्य विशेषकर पेलियोबाटनी पर किया गया कार्य बड़े सामयिक और स्थानिक पैमानों पर इस विचार को समर्थन देता है।

हाल की घटनाएं

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1960 के दशक से, वनस्पतिलोक पर अधिकतर शोध कार्यात्मक परिस्थितिशास्त्र के विषयों पर केंद्रित हो गया है। कार्यात्मक ढांचे में, वर्गीकरणीय वनस्पतिशास्त्र का कम महत्व होता है और सारी खोजबीन जातियों के आकृतिक, शरीर-रचना और शरीरक्रियात्मक वर्गीकरण पर केंद्रित रहती है और इसका उद्देश्य यह भविष्यवाणी करना होता है कि विशिष्ट समूह विभिन्न पर्यावरणीय परिवर्तकों के प्रति कैसे बर्ताव करेंगे. इस तरह के दृष्टिकोण का आधार यह धारणा है कि केंद्राभिमुख विकास और अनुकूलित विकिरण के कारण विशेषकर फाइलोजेनेटिक वर्गीकरण के उच्च स्तरों और बड़े स्थानिक पैमानों पर अकसर फाइलोजेनेटिक अपेक्षा और पर्यावर्णीय अनुकूलन के बीच मजबूत संबंध नहीं होता है। कार्यात्मक वर्गीकरण 1930 के दशक में रांकियर के एपाइकल मेरिस्टेमों के स्थान पर आधारित पौधों के समूहों में विभाजन के साथ शुरू हुआ। इसके बाद अन्य वर्गीकरण जैसे मैकआर्थर का - आर प्रति के – चुनिंदा जाति (न केवल वनस्पति बल्कि सभी जीवों पर लागू) और ग्राइम द्वारा प्रस्तावित सी-एस-आर योजना, जिसमें जातियों को तीन में से एक या अधिक रणनीतियों के अनुसार, प्रत्येक का पक्ष एक चुनिंदा दबाव द्वारा लेकर-प्रतिस्पर्धी, दबाव को सहने वाले और रूडरल्स में बांटा गया है।

कार्यात्मक वर्गीकरण वनस्पति-पर्यावरण की परस्पर क्रियाओं की रचना में महत्वपूर्ण होता है, जो कि वनस्पति परिशास्त्र में पिछले 30 से अधिक वर्षों में मुख्य विषय रहा है। आजकल विश्व जलवायु बदलाव, विशेषकर तापमान, वर्षा और उपद्रव में परिवर्तनों की प्रतिक्रिया में स्थानीय, क्षेत्रीय और वैश्विक वनस्पति परिवर्तनों की रचना पर बहुत जोर दिया जा रहा है। ऊपर दिये गए कार्यात्मक वर्गीकरण के उदाहरण, जो सभी वनस्पति जातियों को बहुत छोटे समूहों में विभाजित करते हैं, आगे आने वाले विभिन्न रचनात्मक उद्देश्यों पर असरकारी होंगे, इसकी कम संभावना है। यह आम तौर पर माना जाता है कि सरल, सर्व-उद्देश्यक वर्गीकरणों के स्थान पर अधिक विस्तृत और कार्यात्मक वर्गीकरण आ जाएंगे. इसके लिये शरीर क्रिया विज्ञान, शरीर रचनाविज्ञान और विकासीय जीव विज्ञान की अब से बेहतर समझ की जरूरत होगी. ऐसा अधिक जातियों के लिये जरूरी होगा भले ही अधिकांश वनस्पति जातियों में से मुख्य जाति को ही लिया जाय.

इन्हें भी देखें

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बाहरी कड़ियाँ

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वर्गीकरण

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मानचित्रण संबंधी

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जलवायु चित्र

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संदर्भ और आगे पढ़ें

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