विकासवाद (Evolutionary thought) की धारणा है कि समय के साथ जीवों में क्रमिक-परिवर्तन होते हैं। इस सिद्धान्त के विकास का लम्बा इतिहास है। १८वीं शती तक पश्चिमी जीववैज्ञानिक चिन्तन में यह विश्वास जड़ जमाये था कि प्रत्येक जीव में कुछ विलक्षण गुण हैं जो बदले नहीं जा सकते। इसे इशेंसियलिज्म (essentialism) कहा जाता है। पुनर्जागरण काल में यह धारणा बदलने लगी।

अर्न्स्ट हैकेल द्वारा प्रतिपादित "जीवन वृक्ष"; इससे स्पष्ट होता है कि १९वीं शती में यह विचार आगे आने लगा था कि जीवों का क्रमिक विकास होकर मनुष्य बना है।

१९वीं शती के आरम्भ में लैमार्क ने अपना विकासवाद का सिद्धान्त दिया जो क्रम-विकास (evolution) से सम्बन्धित प्रथम पूर्णत: निर्मित वैज्ञानिक सिद्धान्त था। सर जे . डब्ल्यू डासन कहते हैं कि ' विज्ञान को बन्दर और मनुष्य के बीच की आकृति का कुछ भी पता नहीं है । मनुष्य की प्राचीनतम अस्थियाँ भी वर्तमान मनुष्य जैसी ही हैं । इनसे उस विकास का कुछ पता नहीं लगता , जो इस मनुष्य शरीर के पहले हुआ था । ' [1]

इन्हें भी देखें

संपादित करें

बाहरी कड़ियाँ

संपादित करें
  1. वैदिक सम्पती. पंडित रघुनंदन शर्मा. पृ॰ 212. सर जे . डब्ल्यू डासन कहते हैं कि विज्ञान को बन्दर और मनुष्य के बीच की आकृति का कुछ भी पता नहीं है । मनुष्य की प्राचीनतम अस्थियाँ भी वर्तमान मनुष्य जैसी ही हैं । इनसे उस विकास का कुछ पता नहीं लगता , जो इस मनुष्य शरीर के पहले हुआ था ।