रेलगाड़ी, ट्राम अथवा अन्य किसी प्रकार की गाड़ी को खींचने के लिए, विद्युत् शक्ति का उपयोग करने की विधि को विद्युत कर्षण (Electric Traction) कहते हैं। इस क्षेत्र में, वाष्प इंजन तथा अन्य दूसरे प्रकार के इंजन ही सामान्य रूप से प्रयोग किए जाते रहे हैं। विद्युत्‌ शक्ति का कर्षण के लिए प्रयोग सापेक्षतया नवीन है परंतु अपनी विशेष सुविधाओं के कारण, इसका प्रयोग बढ़ता गया और धीरे-धीरे अन्य साधनों का स्थान यह अब लेता जा रहा है। विद्युत्कर्षण में नियंत्रण की सुविधा तथा गाड़ियों का अधिक वेग से संचालन हो सकने के कारण उतने ही समय में अधिक यातायात की उपलब्धि हो सकती है। साथ ही कोयला, धुआँ अथवा हानिकारक गैसों के न होने से अधिक स्वच्छता रहती है और नगर की घनी आबादीवाले भागों में भी इसका प्रयोग संभव है। विद्युत्‌ कर्षण हमारे युग का एक अत्यंत महत्वपूर्ण साधन है, जिसका उपयोग अधिकाधिक बढ़ता जा रहा है।

विद्युत गाड़ी

विद्युत्‌-कर्षण-तंत्र में विद्युत्‌ मोटरों द्वारा चालित लोकोमोटिव (locomotive) गाड़ी को खींचता है। रेल की लाइन के साथ ऊपर में एक विद्युत्‌ लाइन होती हैं, जिससे चालक गाड़ी एक चलनशील बुरुश द्वारा संपर्क करती है। रेल की लाइन, निगेटिव लाइन का काम देती है और शून्य वोल्टता पर होती है। इसके लिये इसे अच्छी प्रकार भूमित (earthed) भी कर दिया जाता है। इस प्रकार इसे छूने से किसी प्रकार की दुर्घटना की संभावना नहीं रहती। ऊपरी लाइन की बोल्टता, प्रयोग की जानेवाली मोटरों एवं संभरणतंत्र पर निर्भर करती है। पुराने तंत्रों में ६०० वोल्ट की वोल्टता साधारणतया प्रयोग की जाती है यद्यपि १,५०० वोल्ट एवं ३,००० वोल्ट भी अब सामान्य हो गए हैं। पिछले कुछ वर्षों में, उच्च वोल्टता तंत्रों की रचना की गई है और उच्च वोल्टता पर प्रवर्तित होनेवाले एकप्रावस्था (single phase) प्रत्यावर्ती धारातंत्र का प्रयोग किया गया है और अब सामान्यत: इन्हीं का प्रयोग होने लगा है। ये सामान्यत: १६,००० अथवा २५,००० वोल्ट की वेल्टता पर प्रवर्तित होते हैं।

 
पुराने विद्युत रेल इंजनों में विद्युत मोटर और पहिये 'रॉड' द्वारा जुड़े होते थे।
 
आधुनिक कर्षण मोटर

विद्युत्कर्षण के लिए प्रयोग होनेवाली मोटरों को आरंभ में अधिकतम कर्षण आघूर्ण (torque) का उपलब्ध करना आवश्यक होता है, क्योंकि किसी भी गाड़ी को खींचने के लिए आरंभ में बहुत शक्ति की आवश्यकता होती है, परंतु जैसे-जैसे वेग बढ़ता जाता है, कम शक्ति की आवश्यकता होती है। आरंभ में अधिक आघूर्ण से त्वरण (acceleration) शीघ्रता से उत्पन्न किया जा सकता है। इन मोटरों को अल्प समय के लिए अतिभार (overload) सँभालने की क्षमता भी होनी चाहिए। इन लक्षणों के अनुसार दिष्ट धारा श्रेणी मोटर (D.C. series motor) सबसे अधिक उपयुक्त होती है तथा सामान्य रूप से व्यवहार में आती हैं, परंतु दिष्ट धारा मोटरें सामान्यत: उच्च वोल्टता पर प्रवर्तन के लिए उपयुक्त नहीं होतीं और इस कारण दि.धा. कर्षणतंत्र सामान्यत: ३,००० वोल्ट तक के ही होते हैं दि. धा. तंत्रों की अपेक्षा प्र.धा. तंत्र संभरण अधिक समान्य हेने के कारण, कर्षण में भी इनका प्रयोग करने के प्रयत्न बराबर किए जाते रहे हैं। कुछ विशिष्ट प्ररूप की दि.धा. मोटरें, लक्षण में दि.धा. श्रेणी मोटर के समान होती हैं। इनकी संरचना पिछले ५० वर्षों से ही शोध का सामान्य विषय रही है और अब ऐसी एकप्रावस्था दि.धा. मोटरें बनाई गई हैं जिनके लक्षण दि.धा. श्रेणी मोटरों के समान कर्षण के लिए उपयुक्त हों। इन प्रत्यावर्ती धारा मोटरों का भार उसी शक्ति की दि.धा. मोटरों से काफी कम होती है और ये सपेक्षतया सस्ती होती हैं। इनका सबसे बड़ा लाभ इनके उच्च वोल्टता पर प्रवर्तन में है। इस कारण उच्च वोल्टता तंत्र प्रयोग करना संभव है, जिससे कर्षणतंत्र में पर्याप्त बचत की जा सकती है। परंतु ये मोटरें सामान्य शक्ति आवृत्ति (power frequency) पर उपयुक्त लक्षण नहीं दे पातीं। इनका प्रवर्तन कम आवृत्ति पर अधिक संतोषप्रद होता है। अत: कर्षण के लिए सामान्यत:, अथवा २५ चक्रीय आवृत्ति का प्रयोग किया जाता है। इस कारण इन्हें सामान्य संभरणतंत्रों से नहीं संभरण किया जा सकता है। एकप्रावस्था तंत्र होने के कारण उपकेंद्र (substation) पर प्रावस्था संतुलन (phase balancing) की समस्या भी रहती है। परंतु इन समस्याओं के उपयुक्त समाधान हो चुके हैं और अब १६,००० और २५,००० वोल्ट के, अथवा २५ चक्रीय आवृत्ति के, एकप्रावस्था वाले प्र.धा. तंत्र कर्षण के लिए सामान्य रूप से प्रयोग किए जाते हैं।

कहीं-कहीं दोनों तंत्रों की विशेषताओं का लाभ उठाने के लिए, संभरण लाइन (supply line) उच्च वोल्टता प्र.धा. की होती है तथा ऋजुकारी द्वारा उसे रूपांतरित कर दि.धा. मोटरों का प्रयोग किया जाता है।

प्र.धा. कर्षणतंत्रों में भी, सामान्य त्रिप्रावस्था संभरण से एक प्रावस्था लाइन लेकर, प्रावस्था परिवर्तन (phase conversion) द्वारा उसे त्रिप्रावस्था तंत्र में बदलकर, त्रिप्रावस्था प्रेरण मोटर (three phase induction motor) प्रयोग करना भी संभव है। इस प्रकार सामान्य मोटरों का प्रयोग किया जा सकता है और प्रावस्था संतुलन की समस्या का भी सहज समाधान हो सकता है। वस्तुत: हंगरी में ऐसे ही कर्षणतंत्र का प्रयोग किया गया है, परंतु त्रिप्रावस्था प्रेरण मोटरों के लक्षण कर्षण के लिए इतने उपयुक्त न होने के कारण, यह तंत्र सामान्य प्रयोग में नहीं आ सका है। शक्ति एलेक्ट्रॉनिकी तथा सूक्ष्म एलेक्ट्रॉनिकी में विकास के कारण अब प्रेरण मोटरें (नियत V/f सप्लाई के साथ) डीसी मोटरों से बेहतर सिद्ध हो रहीं हैं।

विद्युत्कर्षण के क्षेत्र में यद्यपि ब्रिटेन का महत्वपूर्ण स्थान है, तथापि प्र.धा. कर्षणतंत्र प्रयोग करने में हंगरी अग्रगण्य रहा है। यहाँ इसका प्रयोग सबसे पहले १९३२ ई. में किया गया। इसके बाद जर्मनी में १९३६ ई. में इस तंत्र का प्रयोग किया गया। फ्रांस में इसे १९५० ई. में अपनाया और २५,००० वोल्ट के एक प्रावस्था प्र.धा. कर्षणतंत्र के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया। भारत में भी मुख्य रेल लाइनों के विद्युतीकरण में भी यही तंत्र प्रयोग किया जा रहा है। उच्च वोल्टता पर प्रवर्तन करने के कारण, केंद्रों की संख्या कम हो जाती है और वे अधिक दूर हो सकते हैं। इससे भी तंत्र में काफी बचत हो सकती है। उच्च वोल्टता के प्रयोग से वैसे ही तार में तथा दूसरी सज्जाओं में काफी बचत होती है। अतएव मुख्य लाइनों पर एकप्रावस्था उच्च वोल्टता प्र.धा. तंत्र का प्रयोग सामान्य हो गया है।

विद्युत्कर्षण के लिए प्रयोग होनेवाली मोटरों की नियंत्रण व्यवस्था अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसी के कारण विद्युत्कर्षण तंत्र इतने सामान्य हो सके हैं। दि.धा. श्रेणी मोटरों के लिए ड्रम नियंत्रक (drum controller) प्रयोग किए जाते हैं, जिनमें आरंभण, वेगनियंत्रण तथा ब्रेकन (braking) सभी का प्रावधान किया जाता है। साथ ही सुविधापूर्वक इच्छानुसार गाड़ी को आगे तथा पीछे चलाया जा सकता है। एक प्रावस्था प्र.धा. मोटरों में भी जो नियंत्रक प्रयोग किए जाते हैं, वे भी इन सब प्रयोजनों का प्रावधान करते हैं। नियंत्रकों में ही संरक्षण युक्तियाँ (protective devices) भी लगी होती हैं, जो मोटर को अतिभार (overload) तथा अतिचाल (overspeed) से बचा सकें।

ऊपरी लाइन से संपर्क करनेवाला संस्पर्श बुरुश (contact brush) भी इस प्रकार के संरचक द्वारा व्यवस्थित होता है कि बुरुश तथा संस्पर्श तार में समान दाब रहे और वेग तथा अन्य किसी कारण से संस्पर्श प्रतिरोध (contact resistance) में विचरण न उत्पन्न हो।

सुरंगों एवं अधिक यातायात स्थलों पर, ऊपरी लाइन का प्रयोग करना संभव नहीं हो पाता। अतएव, तार के स्थान पर एक दूसरी संस्पर्श रेल का प्रयोग किया जाता है जो भूमि के नीचे रहती है। स्पष्टतया अधिक व्यय के कारण सभी स्थानों पर इसका प्रयोग नहीं किया जा सकता।

कहीं-कहीं संपूर्ण विद्युत्‌ तंत्र के स्थान पर डीज़ल विद्युत्‌ लोकोमोटिव (diesel electric locomotive) का प्रयोग किया जाता है, जिसमें डीज़ल इंजन द्वारा विद्युत्‌ उत्पन्न करके विद्युत्‌ कर्षण का लाभ उठाया जाता है।

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