गणित और भौतिकी में किसी भी वस्तु या दिक् ("स्पेस") के उतने विमा या डायमॅन्शन होते हैं जितने निर्देशांक ("कुओरडिनेट्स") उस वस्तु या दिक् के अन्दर के हर बिंदु के स्थान को पूरी तरह व्यक्त करने के लिए चाहिए होते हैं। एक लक़ीर पर किसी बिंदु का स्थान बताने के लिए केवल एक ही निर्देशांक ज़रूरी है, इसलिए लकीरें एकायामी होती हैं। किसी गोले की सतह पर किसी बिंदु के स्थान के लिए दो निर्देशांक (अक्षांश और रेखांश) काफ़ी हैं इसलिए ऐसी सतह दो-आयामी होती है। जिस दिक् में मनुष्य रहते हैं उसमें तीन निर्देशांकों की आवश्यकता है, इसलिए यह त्रिआयामी होती है। गणित में चार या चार से अधिक विमाओं के दिक् की भी कल्पना की जाती हैं, हालाँकि मनुष्य स्वयं केवल त्रिआयामी दिक् का ही अनुभव कर सकते हैं। अनौपचारिक भाषा में कहा जा सकता है के मनुष्यों के नज़रिए से हमारे अस्तित्व के दिक् के तीन पहलू या विमाएं हैं - ऊपर-नीचे, आगे-पीछे और दाएँ-बाएँ।

पहले चार दिक् के विमाओं का चित्रण

'आयाम' (डाइमेंशन) शब्द चित्रकला और शिल्पकला से आयात हुआ और साहित्य समालोचना में आधुनिक काल में प्रयुक्त होता है। संस्कृति में इस शब्द का अर्थ तन्वन, विस्तार, संयमन, प्रलंबन है। चित्र और शिल्प में मूल अंग्रेजी शब्द 'डाइमेंशन' का अर्थ 'सिम्त' होता था; जैसे भित्तिचित्र में गहराई नहीं होती, किंतु छाया आदि के साथ गोलाई इत्यादि का आभास उत्पन्न किया जाता था। प्राचीन साहित्य में और आरंभिक उपन्यासों में एकदम काले या सफेद दुर्गुणों या सद्गुणों की खान, 'टाइप' जैसे पात्रों की पुष्टि होती थी। अब मनोविज्ञान के नवीन शोधों ने ऐसे टाइपों की यथार्थता पर संदेह किया है। इस कारण नवीन उपन्यासों में अब इस प्रकार की गहराई पात्रों में देखी जाती है। कोई भी साहित्यिक कलाकृति कितने काल तक प्रभावशाली रहती है, कितने देश देशांतरों को प्रभावित करती है, इसके साथ ही साथ वह बार-बार पढ़ी जाने पर भी वैसा ही आनंद दे सकती है या नहीं, यह तीसरा परिणाम या विमा अब साहित्य में परखा जाने लगा है। ल्युकैक्स ने 'स्टडीज़ इन वेस्टर्न रियलिज़्म' में 'दार्शनिक धार्मिक विमा' कहकर चौथे मापदंड की चर्चा की है। उसी के सहारे साहित्य में उदात्त तत्व की, 'महात्मता' की प्रतिस्थापना हो सकती है।

शिल्पकला के क्षेत्र में यह माना जाता है कि भारतीय मूर्तिकला त्रिआयामात्मक बहुत कम है। वह अधिकतर अर्धोत्कीर्ण (महाबलिपुरम) या तीन चौथाई उत्कीर्ण (कैलास, एलोरा) जैसी शिल्पकृति है। आधुनिक शिल्पकला में पाश्चात्य शिल्पकला की यह त्रिआयामात्मक पद्धति स्वीकार की गई तो आरंभ में पुतलों, अर्धपुतलों, अश्वारूढ़ प्रतिमाओं के रूप में। म्हात्रे, फड़के, करमकर आदि ने कई ऐसी मूर्तियाँ बनाईं। देवीप्रसाद रायचौधुरी के 'श्रम की महत्ता', सन्‌ '42 में विद्यार्थियों के बलिदान या रामकिंकर बैज के 'संथाल परिवार' जैसे शिल्प भी ऐसी ही यथार्थ घटनाओं या वस्तुओं की शिल्पानुकृतियाँ हैं। परंतु उनसे आगे बढ़कर अरूप भावनाओं को शुद्ध आकारों में रूपायित करनेवाले नए शिल्पकार, जेसे शंखों चौधरी, धनराज भगत आदि त्रिआयामात्मक शिल्पकला के अरूप सृष्टि की ओर बढ़ रहे हैं। इसे अंग्रेजी में थ्री डाइमेंशनल ऐब्सट्रैक्ट स्कल्प्चर कहते हैं।

सिनेमा सृष्टि में भी (त्रिआयामात्मक छायाचित्रण (होलोग्राम) का निर्माण हाल में हुआ है जिसके द्वारा वस्तुओं की असली गहराई दिखाई जाती है और एक खास तरह का चश्मा पहनकर देखने से लगता है कि पर्दे से फेंकी हुई चीज अपने ऊपर चली आ रही है। यह वस्तुत: एक दृष्टिभ्रम है जो छायाचित्रण से निर्मित किया जाता है।

इन्हें भी देखिये

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