विशुद्धानन्द परमहंस
विशुद्धानन्द परमहंसदेव एक आदर्श योगी, ज्ञानी, भक्त तथा सत्य संकल्प महात्मा थे। परमपथ के इस प्रदर्शक ने योग तथा विज्ञान दोनों ही विषयों में परमोच्च स्थिति प्राप्त कर ली थी।
विशुद्धानन्द परमहंसदेव | |
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विशुद्धानन्द परमहंसदेव पद्मासन में | |
जन्म |
भोलानाथ चट्टोपाध्याय 14 मार्च 1853** ग्राम बण्डूल, जिला वर्धमान, भारत |
मृत्यु |
14 जुलाई 1937 कलकत्ता, पश्चिम बंगाल | (उम्र 84 वर्ष)
गुरु/शिक्षक | महर्षि महातपा |
खिताब/सम्मान | योगिराजाधिराज, परमहंस, गंध बाबा |
धर्म | हिन्दू |
दर्शन | |
राष्ट्रीयता | भारतीय |
इनके बचपन का नाम भोलानाथ था। इनका जन्म बंगाल के वर्धमान जिले में बण्डूल ग्राम में शुभ बंग-फाल्गुन मास के उन्तीसवें दिन हुआ था। इनके पिताजी का नाम अखिलचन्द्र चट्टोपाध्याय और माताजी का नाम राजराजेश्वरी देवी था।[1]
आध्यात्मिक जीवन
संपादित करेंनौ वर्ष की आयु में इनका यज्ञोपवीत संस्कार किया गया था। इन्हें बण्डूल के शिवलिंग में अलौकिक दर्शन हुए थे।[2]
चौदह वर्ष की आयु में इनको परमहंस नीमानदन्द स्वामी का सान्निध्य मिला। इन्हीं परमहंस ने कुछ वर्ष बाद इन्हें इनके गुरु महर्षि महातपा से मिला दिया था।[3]
दीक्षा उपरांत उन्होंने बारह वर्ष तक ब्रह्मचर्य पालन कर बड़े कठिन परिश्रम से साधना की थी। बहुत काल तक हिमालय और अनेक स्थानों में पर्यटन और अभ्यास किया था। ब्रह्मचर्य अवस्था से उत्तीर्ण होकर मठ के नियमानुसार दण्ड ग्रहण किया और "दण्ड़ी" हुए। चार वर्ष तक विधिपूर्वक दण्ड धारण कर उसका परित्याग किया और फिर अगले चार साल तक सन्यास ग्रहण किया। सन्यास आश्रम को पाक कर चुकने के बाद वर्धमान जिले के गुष्करा ग्राम में चिकित्सक बन कर रहे। तीर्थ स्वामी अवस्था के बाद गुरू ने सन्तुष्ट होकर परमहंस उपाधि से युक्त किया।[4]
इनके कई शिष्य हुए। इन शिष्यों में गोपीनाथ कविराज विशेष प्रसिद्ध हुए।[5]
इनकी दो विशेषता रहीं
1. स्वामी विशुद्धानंद में अलौकिक योगशक्ति थी। उनमें योगविभूतियों का तो अंत ही नहीं था। पतञ्जलि योगदर्शन के विभूतिपाद में जितनी विभूतियों का वर्णन मिलता है उससे भी किसी किसी अंश में अधिक शक्तियों, विशेष करके इच्छा, ज्ञान तथा क्रियाशक्ति का स्फुरण इनमें देखा गया।[6]
2. स्वामीजी योग की व्याख्या योग की सोपान परंपरा के रूप में करते थे -
"कर्म ही मन्थन है, उसी से ज्ञान होता है। चैतन्यरूप ज्ञान से भक्ति, भक्ति से प्रेम और प्रेम से साक्षात्कार।"
"यही अध्यात्मसाधना की योगियों द्वारा अनुभूत परिपाटी है। सबके मूल में है कर्म - वह योग साधना का प्रथम सोपान है, मूलाधार है। प्रेम की प्राप्ति योगमार्ग से ही हो सकती है। साधारण प्रेम मनोविकार मात्र है। योगी ही सच्चा प्रेमी है।"[7]
तिरोधान
संपादित करेंसन्दर्भ
संपादित करें- ↑ म. म. पं. गोपीनाथ, कविराज (2000). योगिराज विशुद्धानन्द प्रसंग तथा तत्त्वकथा (प्रथम संस्करण). वाराणसी: विश्वविद्यालय प्रकाशन. पृ॰ 1.
- ↑ म. म. पं. गोपीनाथ, कविराज (2000). योगिराज विशुद्धानन्द प्रसंग तथा तत्त्वकथा (प्रथम संस्करण). वाराणसी: विश्वविद्यालय प्रकाशन. पृ॰ 8.
- ↑ म. म. पं. गोपीनाथ, कविराज (2000). योगिराज विशुद्धानन्द प्रसंग तथा तत्त्वकथा (प्रथम संस्करण). वाराणसी: विश्वविद्यालय प्रकाशन. पपृ॰ 9, 11, 16, 19.
- ↑ म. म. पं. गोपीनाथ, कविराज (2000). योगिराज विशुद्धानन्द प्रसंग तथा तत्त्वकथा (प्रथम संस्करण). वाराणसी: विश्वविद्यालय प्रकाशन. पपृ॰ 21, 24, 30, 51.
- ↑ भगवतीप्रसाद, सिंह (2001). मनीषी की लोकयात्रा (सप्तम संस्करण). वाराणसी: विश्वविद्यालय प्रकाशन. पृ॰ 39.
- ↑ भगवतीप्रसाद, सिंह (2001). मनीषी की लोकयात्रा (सप्तम संस्करण). वाराणसी: विश्वविद्यालय प्रकाशन. पृ॰ 36.
- ↑ भगवतीप्रसाद, सिंह (2001). मनीषी की लोकयात्रा (सप्तम संस्करण). वाराणसी: विश्वविद्यालय प्रकाशन. पृ॰ 37.
- ↑ भगवतीप्रसाद, सिंह (2001). मनीषी की लोकयात्रा (सप्तम संस्करण). वाराणसी: विश्वविद्यालय प्रकाशन. पृ॰ 41.