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'''गुर्जर-प्रतिहार राजवंश''' [[भारतीय उपमहाद्वीप]] में [[प्राचीन भारत|प्राचीन]] एवं [[मध्यकालीन भारत|मध्यकालीन]] दौर के संक्रमण काल में [[साम्राज्य]] स्थापित करने वाला एक राजवंश था जिसके शासकों ने [[मध्य भारत|मध्य]]-[[उत्तर भारत]] के बड़े हिस्से पर मध्य-८वीं सदी से ११वीं सदी के बीच शासन किया। इस राजवंश का संस्थापक [[नागभट्ट प्रथम|प्रथम नागभट्ट]] था, जिनके वंशजों ने पहले [[उज्जैन]] और बाद में [[कन्नौज]] को राजधानी बनाते हुए एक विस्तृत भूभाग पर शासन किया।<ref>{{Cite book|url=https://books.google.co.in/books?id=LPsvytmN3mUC&lpg=PA182&dq=chhokar%20clan&pg=PA309#v=onepage&q=chhokar%20clan&f=false|title= अन्य गुर्जरक्षत्रिय वंशौवंशो से संबंधित page 310 to 311: A.-K|date=1997|publisher=Atlantic [Publishers & Dist|isbn=978-81-85297-69-9|language=en}}</ref> नागभट्ट द्वारा ७२५ ईसवी में साम्राज्य की स्थापना से पूर्व भी गुर्जर-प्रतिहारों द्वारा [[मंडोर के प्रतिहार|मंडोर]], मारवाड़ इत्यादि इलाकों में सामंतों के रूप में ६ठीं से ९वीं सदी के बीच शासन किया गया किंतु एक संगठित साम्राज्य के रूप में इसे स्थापित करने का श्रेय नागभट्ट को जाता है।
 
उमय्यद ख़िलाफ़त के नेतृत्व में होने वाले [[राजस्थान का युद्ध|अरब आक्रमणों]] का नागभट्ट और परवर्ती शासकों ने प्रबल प्रतिकार किया। कुछ इतिहासकार भारत की ओर इस्लाम के विस्तार की गति के इस दौर में धीमी होने का श्रेय इस राजवंश की सबलता को देते हैं। [[नागभट्ट द्वितीय|दूसरे नागभट्ट]] के शासनकाल में यह राजवंश उत्तर भारत की सबसे प्रमुख राजनीतिक शक्ति बन गया था। [[मिहिर भोज]] और उसके परवर्ती [[महेन्द्रपाल प्रथम]] के शासन काल में यह साम्राज्य अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँचा और इस समय इस साम्राज्य की सीमाएँ पश्चिम में सिंध से लेकर पूर्व में आधुनिक बंगाल तक और हिमालय की तलहटी से नर्मदा पार दक्षिण तक विस्तृत थीं। यह विस्तार मानों गुप्तकाल के अपने समय के सर्वाधिक राज्यक्षेत्र से स्पर्धा करता हुआ सा था। इस विस्तार ने तत्कालीन भारतीय उपमहाद्वीप में एक त्रिकोणीय संघर्ष को जन्म दिया जिसमें प्रतिहारों के अलावा [[राष्ट्रकूट राजवंश|राष्ट्रकूट]] और [[पाल वंश|पाल]] वंश शामिल थे। इसी दौरान इस राजवंश के राजाओं ने ''महाराजाधिराज'' की उपाधि धारण की।