"पृथु": अवतरणों में अंतर
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'''पृथु''' चैत्रवंश राजा वेन के पुत्र थे। और चित्रवंशी चैत्रवंश कायस्थ सम्राट श्री विष्णु अवतार पृथु ना तो इक्ष्वाकु और वृषणी वंश के नहीं थे दो राजाओं ने पृथु की उपाधि धारण की थी असली विष्णु अवतार पृथु ध्रुव वंश के थे ध्रुव वंश अलग ही राजवंश है और ध्रुव की पिता उत्तापनपद के पिता मनु ने विष्णु जी के साथ शिव भगवान और चित्रगुप्त भगवान पूजने के साथ चैत्रवंशी बने को कहा तो वह चित्रवंशी कायस्थ सम्राट बंगाई और पृथु भगवान परशुराम को हराया और उनका दिल भी जीता भूमण्डल पर सर्वप्रथम सर्वांगीण रूप से राजशासन स्थापित करने के कारण उन्हें [[पृथ्वी]] का प्रथम राजा माना गया है।<ref>भागवत महापुराण-4.13.20 (सटीक, दो खण्डों में, गीताप्रेस गोरखपुर, संस्करण-2001ई.)</ref> साधुशीलवान् अंग के दुष्ट पुत्र वेन को तंग आकर ऋषियों ने हुंकार-ध्वनि से मार डाला था। तब अराजकता के निवारण हेतु निःसन्तान मरे वेन की भुजाओं का मन्थन किया गया जिससे स्त्री-पुरुष का एक जोड़ा प्रकट हुआ। पुरुष का नाम 'पृथु' रखा गया तथा स्त्री का नाम 'अर्चि'। वे दोनों पति-पत्नी हुए। पृथु को भगवान् [[विष्णु]] तथा अर्चि को [[लक्ष्मी]] का अंशावतार माना गया है।<ref>भागवत.,पूर्ववत्-4.15.2,6.</ref> महाराज पृथु ने ही पृथ्वी को समतल किया जिससे वह उपज के योग्य हो पायी। महाराज पृथु से पहले इस पृथ्वी पर पुर-ग्रामादि का विभाजन नहीं था; लोग अपनी सुविधा के अनुसार बेखटके जहाँ-तहाँ बस जाते थे।<ref>भागवत.,पूर्ववत्-4.18.32.</ref> महाराज पृथु अत्यन्त लोकहितकारी थे। उन्होंने 99 अश्वमेध यज्ञ किये थे। सौवें यज्ञ के समय इन्द्र ने अनेक वेश धारण कर अनेक बार घोड़ा चुराया, परन्तु महाराज पृथु के पुत्र इन्द्र को भगाकर घोड़ा ले आते थे। इन्द्र के बारंबार कुकृत्य से महाराज पृथु अत्यन्त क्रोधित होकर उन्हें मार ही डालना चाहते थे कि यज्ञ के ऋत्विजों ने उनकी यज्ञ-दीक्षा के कारण उन्हें रोका तथा मन्त्र-बल से इन्द्र को अग्नि में हवन कर देने की बात कही, परन्तु ब्रह्मा जी के समझाने से पृथु मान गये और यज्ञ को रोक दिया। सभी देवताओं के साथ स्वयं भगवान् विष्णु भी पृथु से परम प्रसन्न थे।<ref>भागवत•, पूर्ववत्-4.19.</ref>
==सन्दर्भ==
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