"वेदांग": अवतरणों में अंतर

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: ''शिक्षा घ्राणं तु वेदस्य मुखं व्याकरणं स्मृतम्''
: ''तस्मात्सांगमधीत्यैव ब्रह्मलोके महीयते॥''
वेदों के अंग अथवा वेदांग क्या है इसे जानने के लिए वेद की अवधारणा को स्पष्ट करना आवश्यक है। वेद वह नहीं है जिसे कहीं किसी ने लिख रखा है अथवा पत्थर पर उकेर दिया है। किसी पिण्ड अथवा निकाय में वेदना के प्रवाह से जो विदित हुआ वो वेद है। मानव देह एक पिण्ड अथवा निकाय स्वरूप दो अवस्थाओं में हो सकती है। 1) जीवित 2) मृत। जीवित अवस्था में सुप्त और जागृत दो पुनः अवस्थाएँ हो सकती हैं। जब किसी देह का जन्म होता है तो वह जीव कहलाता है तथा देहावसान होने पर वह मृतक कहलाता है। दोनों अवस्थाओं में वेदना का प्रवाह चेतना के रूप में संचित होता है जिसे जीव के लिये संज्ञा और मृत के लिए छाया नामक चेतना के रूप में संचित किया जाता है। ये संचित वेदना ही वेद है जो जीव के संसकार के रूप में संचित होता है। अर्थात जो विदित हुआ वो वेद है और जो पुराने ज्ञान में नया ज्ञान संपादित हुआ वो संसकरण है ।
रज, तम और सत गुणात्मक प्रकृति के कारण मानव देह में अधिकतम संभव छह प्रकार से चेतना के रूप में वेदना का प्रवाह होता है।
1) स्पर्श द्वारा 2) घ्राण द्वारा 3) दृष्टि से 4) श्रवण से 5) रसना से 6) अंतःकरण से
1) स्पर्श : साधारणतया मनुष्य की प्रवृत्ति हाथ से छूने की होती है अतः स्पर्श को हाथों से संबोधित कर दिया जाता है। ये कल्प के विषय में कहा गया है कि वह वेदना जो स्पर्श के माध्यम से विदित हो तो वेद का एक अंग हुआ। कल्प वास्तविक रूप से सत्य नहीं है वह मानक है जो प्रणव (शून्य) और इष्ट (अनंत) के बीच चाहा गया अभीष्ट है। ये एक से नौ के पद में हैं। जब मानक और अमानक के बीच अज्ञात और अभीष्ट की कल्पना हो तो वह बीज कहलाता है। उसके अभ्यास मंत्र भी निश्चित हैं। इसका प्राथमिक अभ्यास कमल सूत्र है। जब तक संकल्प नहीं होगा विश्व की कोई यौगिक क्रिया संपन्न नहीं होती है। क्योंकि किसी भी कार्य योजना के लिए कल्पना आवश्यक है।
2) घ्राण-: मानव देह में जीव की चैतन्यता घ्राण द्वारा संचालित होती है। घृष्ण और प्राण देह की नाड़ियों में संचरित होते हैं। जिनके माध्यम से वेदना का प्रवाह कर चेतना का संचय किया जा सकता है। यह विधि शिक्षा कहलाती है। इसका प्राथमिक अभ्यास आनापान' है।
3) दृष्टि-: जिनके नेत्र हैं वो अथवा जिनके नेत्र नहीं हैं वो भी इस विद्या का अभ्यास किया जाता है। विधि प्रारंभिक अभ्यास में पृथक हैं। एक ) जब नेत्र हैं तो त्राटक प्रारंभिक अभ्यास है। दूसरा) यदि नेत्र नहीं हैं तो ध्रुव (भ्रुवोर्मध्ये) साधना प्रारंभिक अभ्यास है। ये ही ज्योति के नाम से विख्यात है। ज्योति की लक्षणगत विविधता को लिंग कहते हैं। जिस तरह जो जिसका गुण वही उसका धर्म है। उसी तरह से जो जिसका लक्षण है वही उसका लिंग है। ये गुण और धर्म श्लेष हैं। इसी प्रकार लिंग और लक्षण भी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। 4) श्रवण-: सृष्टि में जो उत्पन्न हो रहा है वह नष्ट भी हो रहा है। यह उत्पन्न - नष्ट, उत्पन्न - नष्ट का क्रम और ऐसे ही उत्पाद - व्यय के बहुत सारे प्रक्रम एक जाल सा बुनते हैं। यह बड़ी दुस्तर प्रकृति है। इसे माया के नाम से भी जाना जाता है। ये मायाजाल भव ( उत्पाद) और विभव का एक समुद्र सा सारे निकाय ( सिस्टम) में बनाते हैं। इस प्रकार ये सारा संसार लगातार भव और विभव होने से कंपायमान है। अब यदि एक पिण्ड में निवास करते हैं तो वह लोक कहलाता है। उदाहरण के लिए यदि देह एक पिण्ड है जो यदि गर्भ में है तो वह कोख उस देह पिण्ड याने शिशु का लोक हुआ । यदि माँ के गर्भ में है तो मह लोक में, प्रसव से जन्म हुआ तो मृत्यु लोक में इत्यादि 14 लोक इस प्रकार के बनते हैं। जब साधक इस भव विभव के प्रवाह के साथ वेदना को भी प्रवाहित होने देता है तब ये सारा लोक प्रकंपित है और नाद से युक्त हो वेद विद्या का अभ्यास करता है। ये योग पश्यना के प्राथमिक अभ्यास द्वारा आरंभ कर श्रौतसूत्र द्वारा प्रतिपादित होता है। 5) रसना-: रस एक प्रकार के संचारी भाव को उत्पन्न करने वाली तरंगें हैं। चूंकि संसार नश्वर है। जो उत्पन्न हुआ वो नष्ट। तो ये सारा संसार एक क्रमशः है। चूंकि ये क्रम से घटित हो रहा है तो समस्त ब्रह्माण्ड क्रम में ही चलता है। इसलिए ये पंक्तिबद्ध होने से पांक्त है। इसलिए ब्रह्मा ( एन्शियंट विज़्डम) भी पांक्त है। तो ये तरंगों का समुद्र सा है। जो अस्थिर है। चलायमान है। जो विविध प्रकार की तरंगदैर्ध्य का भी है। जब इस आवृति और पुनरावृत्ति में वेदना का प्रवाह होता है तो देह, पिण्ड अथवा निकाय में ये उपोत्पाद स्वरूप संचारी भाव से रस भिन्नता का ज्ञान करते हैं। क्योंकि ये पांक्त हैं इसलिए ये छंदोग्य हैं। घटनाक्रम की अवधि तथा साधक के अवलोकन की स्थितियों के अनुसार मानव देह के लिए षडरस उत्पन्न होते हैं एक निर्वेद युक्त होकर सप्तस्वर का प्राथमिक अभ्यास करते हैं क्योंकि समस्त ब्रह्माण्ड पांक्त है इसलिए देश काल और परिस्थिति भी पांक्त हैं। इसलिए अलग अलग कालखंड के लिए अलग अलग छंद हैं। जैसे गायत्री अर्थात निशा और ऊषा का साम्य, ऊषा अर्थात गरमाहट, निशा अर्थात शीतलता इत्यादि। चूंकि ये ब्रह्मा पदों ( स्टैप्स) में वेदना का प्रवाह कर रहा होता है। इसलिए छंदों को पद्य अथवा वेद के पद कहा जाता है। 6) अंतःकरण-: जब सतत संसकरण, आघात ( चतुर्घात-: शोक, दुःख, जरा, व्याधि) , सत्संग, सद्गुरु की प्रेरणा आदि से जीव का देहाभिमान मुक्त हो गया हो तब साधन क्या है। तब संप्रेषण ही एकमात्र उपाय है। यह संप्रेषण दो प्रकार का होता है। पहला दो या अधिक अंतराकाशीय पिण्डों में अथवा अंतः आकाशीय पिण्डों में। यहाँ ध्वनि शब्द और वैया का प्राथमिक अभ्यास है। दूसरा संप्रेषण वहाँ जहाँ कोई पिण्ड ही नहीं हो सूक्ष्म अथवा महत में तब वहाँ संप्रेषण कूट ( चित्रकूट) में होता है,और जब आकाश ही अनुपस्थित हो तब क्या? घना काला, डेन्स डार्क, घन श्याम!? वो अतर्क्य है। गूंगे का गुड़।उसके लिए भाषा नहीं बनी क्योंकि शब्द नहीं हैं क्योंकि शब्द आकाश का गुण है क्योंकि अब आकाश ही नहीं है इसलिए वो वेदान्त है।
 
 
 
== परिचय ==