"नंदा देवी सिद्धपीठ कुरुड़": अवतरणों में अंतर

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[[चित्र:नन्दा देवी लोकजात.jpg|अंगूठाकार]]
{{आज का आलेख}}
{{ज्ञानसन्दूक हिन्दू मन्दिर
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|architecture_style = [[देवी मंदिर]] वास्तु
|location= [[चमोली]], [[उत्तराखंड]]
}}[[चमोली]] का '''नन्दा देवी सिद्धपीठ कुरुड़''' एक मन्दिर है, जो भगवती [[नंदा]] ([[पार्वती]]) को समर्पित है। यह [[भारत]] के [[उत्तराखंड]] राज्य के तटवर्ती शहर [[चमोली जनपद]] में स्थित है। नंदा शब्द का अर्थ जगत जननी भगवती होता है। इनकी नगरी ही नंदा धाम कहलाती है।<ref>{{अंग्रेजी चिह्न}} [http://www.shrifreedom.com/VyasaSJC/lessons1VedicConcepts.htm वैदिक कॉन्सेप्ट्स] {{Webarchive|url=https://web.archive.org/web/20080103041038/http://shrifreedom.com/VyasaSJC/lessons1VedicConcepts.htm |date=3 जनवरी 2008 }} "संस्कृत में एक उदाहरणार्थ शब्द से जगत का अर्थ ब्रह्माण्ड निकला। An example in Sanskrit is seen with the word Jagat which means universe. In Jaganath, the ‘t’ becomes an ‘n’ to mean lord (nath) of the universe."</ref><ref>{{अंग्रेजी चिह्न}}[http://www.hvk.org/articles/0802/85.html सिंबल ऑफ नेश्नलिज़्म] {{Webarchive|url=https://web.archive.org/web/20120214040555/http://www.hvk.org/articles/0802/85.html |date=14 फ़रवरी 2012 }} "The fame and popularity of "the Devi of universe: Nanda Devi" both among the foreigners and the Hindu world "</ref> इस मन्दिर को [[नंदा का मायका]] मां नंदा भगवती का मूल स्थान यहां माना जाता है। इस मन्दिर की कैलाश यात्रा [[नंदा देवी राजजात]] उत्सव प्रसिद्ध है। इसमें मन्दिर से नंदा देवी की दोनों डोलिया [[नंदा देवी डोली]], उनके छोटे भाई [[लाटू देवता]] और भूम्याल [[भूमि के क्षेत्रपाल]] , दो अलग-अलग भव्य और सुसज्जित रथों में विराजमान होकर अपने मायके से ससुराल की यात्रा को निकलते हैं। श्री नंदा देवी राज राजेश्वरी कई नामों से पूरे ब्रह्मांड में पूजी जाती है । नंदा देवी राज राजेश्वरी, किरात, नाग, कत्यूरी आदि जातियों के मुख्य देवी थी। अब से लगभग 1000 वर्ष पुर्व किरात जाति के भद्रेश्वर पर्वत की तलहटी मैं नंदा देवी जी की पुजा किया करते थे।थे <Ref>
[http://www.templeyatra.in/history-of-nandadevi-rajjat-yatra/]{{Dead link|date=अक्तूबर 2022 |bot=InternetArchiveBot }}
</Ref> । [[भारत का इतिहास|मध्य-काल]] से ही यह उत्सव अतीव हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। इसके साथ ही यह उत्सव [[उत्तराखंड]] के कई [[नंदा देवी]] मन्दिरों में मनाया जाता है, एवं यात्रा निकाली जाती है।<ref>{{cite web
|url = http://www.time.com/time/magazine/article/0,9171,892784,00.html
यह मंदिर पहाड़ी परंपराओं से जुड़ा हुआ है। इस मंदिर के मुख्य पुजारी '''कान्यकुब्जीय गौड़ ब्राह्मण''' हैं । सूरमाभोज गौड़ सर्वप्रथम यहां के पुजारी ही रहे हैं। वर्तमान में यहां पर दशोली क्षेत्र की नंदा की डोली, तथा बधाण क्षेत्र की नंदा की डोली यहां पर रहती हैं। दशोली (नंदानगर, कर्णप्रयाग, चमोली ब्लॉक) की नंदा की डोली साल भर यहां विराजमान रहती तथा बधाण की नंदा की डोली भाद्रपद में नंदा देवी जात के बाद थराली में स्थित देवराड़ा मंदिर में स्थापित हो जाती है तथा मकर संक्रान्ति में कुरुड मंदिर में पुनः आती है।
|title = Juggernaut
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|accessdate = 2006-09-12
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}}</ref> यह मंदिर पहाड़ी परंपराओं से जुड़ा हुआ है। इस मंदिर के मुख्य पुजारी '''कान्यकुब्जीय गौड़ ब्राह्मण''' हैं । सूरमाभोज गौड़ सर्वप्रथम यहां के पुजारी ही रहे हैं। वर्तमान में यहां पर दशोली क्षेत्र की नंदा की डोली, तथा बधाण क्षेत्र की नंदा की डोली यहां पर रहती हैं। दशोली (नंदानगर, कर्णप्रयाग, चमोली ब्लॉक) की नंदा की डोली साल भर यहां विराजमान रहती तथा बधाण की नंदा की डोली भाद्रपद में नंदा देवी जात के बाद थराली में स्थित देवराड़ा मंदिर में स्थापित हो जाती है तथा मकर संक्रान्ति में कुरुड मंदिर में पुनः आती है।
 
=== मन्दिर का उद्गम ===
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वर्तमान में मंदिर देवसारी नामक तोक में स्थित है।
=== मन्दिर से जुड़ी कथाएँ ===
=== इस मन्दिर के उद्गम से जुड़ी परम्परागत कथा के अनुसार, [https://www.jagran.com/spiritual/mukhye-dharmik-sthal-nanda-devi-jat-yatra-11569730.html कुरुड़] यानी पत्थरों का गांव। यहां पत्थरों का एक जंगल है। चारों ओर पत्थर ही पत्थर। एक और दिलचस्प बात कि इन पत्थरों का रंग काला है। मान्यता है कि द्वापर में एक राक्षस अपना साम्राज्य फैलाते-फैलाते दशौली के इस गांव में आ धमका, लेकिन यहां मां राजराजेश्वरी का थान (क्षेत्र) होने के कारण वह मां से युद्ध करने लगा। शस्त्रों से पराजित कर मां ने राक्षस को सम्मुख बिन्सर की पहाड़ी में फेंक दिया। पर, राक्षस चुप नहीं बैठा। उसने बिन्सर की पहाड़ी का आधा हिस्सा मां के थान(क्षेत्र) भद्रेश्वर पर्वत पर दे मारा, जहां मां विराजमान थी। मां के शरीर से टकराते ही यह पहाड़ हजारों टुकड़ों में बिखर गया। तब मां ने त्रिशूल के एक वार से उस राक्षस का अंत कर दिया, लेकिन पत्थर यहीं पड़े रहे। बाद में मां राजराजेश्वरी इन पत्थरों में शिला रूप में बस गई।
इस मन्दिर के उद्गम से जुड़ी परम्परागत कथा के अनुसार, भगवान जगन्नाथ की इन्द्रनील या नीलमणि से निर्मित मूल मूर्ति, एक [[अगरु]] वृक्ष के नीचे मिली थी। यह इतनी चकचौंध करने वाली थी, कि धर्म ने इसे पृथ्वी के नीचे छुपाना चाहा। [[मालवा]] नरेश [[इंद्रद्युम्न]] को स्वप्न में यही मूर्ति दिखाई दी थी। तब उसने कड़ी तपस्या की और तब भगवान [[विष्णु]] ने उसे बताया कि वह [[पुरी]] के समुद्र तट पर जाये और उसे एक दारु (लकड़ी) का लठ्ठा मिलेगा। उसी लकड़ी से वह मूर्ति का निर्माण कराये। राजा ने ऐसा ही किया और उसे लकड़ी का लठ्ठा मिल भी गया। उसके बाद राजा को विष्णु और [[विश्वकर्मा]] बढ़ई कारीगर और मूर्तिकार के रूप में उसके सामने उपस्थित हुए। किन्तु उन्होंने यह शर्त रखी, कि वे एक माह में मूर्ति तैयार कर देंगे, परन्तु तब तक वह एक कमरे में बन्द रहेंगे और राजा या कोई भी उस कमरे के अन्दर नहीं आये। माह के अंतिम दिन जब कई दिनों तक कोई भी आवाज नहीं आयी, तो उत्सुकता वश राजा ने कमरे में झाँका और वह वृद्ध कारीगर द्वार खोलकर बाहर आ गया और राजा से कहा, कि मूर्तियाँ अभी अपूर्ण हैं, उनके हाथ अभी नहीं बने थे। राजा के अफसोस करने पर, मूर्तिकार ने बताया, कि यह सब दैववश हुआ है और यह मूर्तियाँ ऐसे ही स्थापित होकर पूजी जायेंगीं। तब वही तीनों जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की मूर्तियाँ मन्दिर में स्थापित की गयीं।
 
चारण परम्परा मे माना जाता है की यहाँ पर भगवान द्वारिकाधिश के अध जले शव आये थे जिन्हे प्राचि मे प्रान त्याग के बाद समुद्र किनारे अग्निदाह दिया गया (किशनजी, बल्भद्र और शुभद्रा तिनो को साथ) पर भरती आते ही समुद्र उफान पर होते ही तिनो आधे जले शव को बहाकर ले गया ,वह शव पुरि मे निकले ,पुरि के राजा ने तिनो शव को अलग अलग रथ मे रखा (जिन्दा आये होते तो एक रथ मे होते पर शव थे इसिलिये अलग रथो मे रखा गया)शवो को पुरे नगर मे लोगो ने खुद रथो को खिंच कर घुमया और अंत मे जो दारु का लकडा शवो के साथ तैर कर आयाथा उशि कि पेटि बनवाके उसमे धरति माता को समर्पित किया, आज भी उश परम्परा को नीभाया जाता है पर बहोत कम लोग इस तथ्य को जानते है, ज्यादातर लोग तो इसे भगवान जिन्दा यहाँ पधारे थे एसा ही मानते है, चारण जग्दम्बा सोनल आई के गुरु पुज्य दोलतदान बापु की हस्तप्रतो मे भी यह उल्लेख मिलता है ,
=== नंदा देवी राजजात का मूल गांव ===
<ref>{{cite web
गढ़वाल का इतिहास लिखने वाले एटकिंसन अपनी किताब में लिखते हैं कि नंदा देवी राजजात कुरुड़ गांव से शुरू होती है। अजय पाल के समय भी देवी की छंतोली कुरुड़ की नंदा को मनौती चढ़ाती थी। ,
|url=http://www.templenet.com/Orissa/puri.html
|title=जगन्नाथ टेम्पल ऐट पुरी
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|accessdate=2006-09-12
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}}</ref>.
 
=== बौद्ध मूल ===
=== मंदिर का ढांचा ===
कुछ इतिहासकारों का विचार है कि इस मन्दिर के स्थान पर पूर्व में एक बौद्ध स्तूप होता था। उस स्तूप में [[गौतम बुद्ध]] का एक दाँत रखा था। बाद में इसे इसकी वर्तमान स्थिति, [[कैंडी]], [[श्रीलंका]] पहुँचा दिया गया।<ref>{{cite web
|url=http://orissagov.nic.in/e-magazine/Orissareview/july2003/englishchpter/OldJagannathTemplePuriBuddhistSomavamsiConnections.pdf
|title=ओल्डेस्ट जगन्नाथ टेम्पल ऑफ पुरी- द बुद्धिस्ट एण्द सोमवासी कनेक्शंस
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|archive-url=https://web.archive.org/web/20080229064513/http://orissagov.nic.in/e-magazine/Orissareview/july2003/englishchpter/OldJagannathTemplePuriBuddhistSomavamsiConnections.pdf
|archive-date=29 फ़रवरी 2008
|url-status=dead
}}</ref> इस काल में बौद्ध धर्म को वैष्णव सम्प्रदाय ने आत्मसात कर लिया था और तभी जगन्नाथ अर्चना ने लोकप्रियता पाई। यह दसवीं शताब्दी के लगभग हुआ, जब [[उड़ीसा]] में सोमवंशी राज्य चल रहा था।<ref>{{cite web
|url=http://www.orissa.gov.in/e-magazine/Orissareview/jul2005/engpdf/jainism_budhism_in_joga-culture.pdf
|title=जैनिज़्म ऎण्ड बुद्धज़्मइन जगन्नाथ कल्चर
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}}</ref>
 
[[महाराजा रणजीत सिंह]], महान सिख सम्राट ने इस मन्दिर को प्रचुर मात्रा में स्वर्ण दान किया था, जो कि उनके द्वारा [[स्वर्ण मंदिर, अमृतसर]] को दिये गये स्वर्ण से कहीं अधिक था। उन्होंने अपने अन्तिम दिनों में यह वसीयत भी की थी, कि विश्व प्रसिद्ध [[कोहिनूर]] हीरा, जो विश्व में अब तक सबसे मूल्यवान और सबसे बड़ा [[हीरा]] है, इस मन्दिर को दान कर दिया जाये। लेकिन यह सम्भव ना हो सका, क्योकि उस समय तक, [[ब्रिटिश]] ने [[पंजाब]] पर अपना अधिकार करके, उनकी सभी शाही सम्पत्ति जब्त कर ली थी। वर्ना कोहिनूर हीरा, भगवान जगन्नाथ के मुकुट की शान होता।<ref>[[कोहिनूर हीरा#सम्राटों के रत्न]] - आंतरिक कड़ी</ref>
 
=== मंदिर का ढांचा ===
मंदिर का वृहत क्षेत्र 900 स्क्वायर फीट में फैला है और चहारदीवारी से घिरा है। [[पहाड़ी शैली]] के मंदिर स्थापत्यकला और शिल्प के आश्चर्यजनक प्रयोग से परिपूर्ण, यह मंदिर, भारत के भव्यतम मंदिरों में से एक है।
 
मुख्य मंदिर चोकर आकार का है, जिसके शिखर पर देवी कलश है। ये अष्टधातु से बना हुआ और अति पावन और पवित्र माना जाता है। मंदिर का मुख्य ढांचा एक {{convert|214|ft|m}} ऊंचे पाषाण चबूतरे पर बना है। इसके भीतर आंतरिक गर्भगृह में मुख्य नन्दा देवीदेवताओं की शिला मूर्तिमूर्तियां स्थापित हैं। यह भाग इसे घेरे हुए अन्य भागों की अपेक्षा अधिक वर्चस्व वाला है। इससे लगे घेरदार मंदिर की पहाड़ीपिरामिडाकार संस्कृतिछत एवंऔर कलालगे सेहुए निर्मितमण्डप, छतअट्टालिकारूपी औरमुख्य लगेमंदिर के निकट होते हुए कलशऊंचे होते गये हैं। यह एक पर्वत को घेर ेहुए अन्य छोटे पहाड़ियों, बहुतफिर पुरानेछोटे औरटीलों आकर्षकके हैं।समूह रूपी बना है।<ref>{{cite web
|url=http://www.cultureholidays.com/Temples/jagannath.htm
|title=जगन्नाथ टेम्पल, उड़ीसा
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|accessdate=2006-09-20
|archive-url=https://web.archive.org/web/20080517022040/http://www.cultureholidays.com/Temples/jagannath.htm
|archive-date=17 मई 2008
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}}</ref>
 
मुख्य मढ़ी (भवन) एक {{convert|20|ft|m}} ऊंची दीवार से घिरा हुआ है तथा दूसरी दीवार मुख्य मंदिर को घेरती है। एक भव्य
यह मंदिर दसौली तथा बधाण के 700 गांव की देवी का मुख्य मंदिर है।
 
=== देवता ===
नन्दा देवी इस [[मन्दिर|मंदिर]] की मुख्य देवी हैं। नंदा भगवती की प्राचीन शिला मूर्ति पाषाण चबूतरे पर गर्भ गृह में स्थापित हैं। इतिहास अनुसार इन मूर्तियों की अर्चना मंदिर निर्माण से कहीं पहले से की जाती रही है। सम्भव है, कि यह प्राचीन जनजातियों द्वारा भी पूजित रही हो। यहां पर मां भगवती की '''शिला मूर्ति चतुर्भुज रूप में आप रूपी लिंग विद्यमान है।''' और प्रत्येक दिन पूजा के उपरांत मां नंदा को जो स्थानीय परंपरागत व्यंजन है '''पूवे ( गुलगुले, आटे और गुड़ से बना हुआ)''', मां भगवती को चढ़ाए जाते हैं। यही मां नंदा देवी का प्रसाद होता है।
 
=== पुजारीउत्सव ===
यहां विस्तृत दैनिक पूजा-अर्चनाएं होती हैं। यहां कई वार्षिक त्यौहार भी आयोजित होते हैं, जिनमें सहस्रों लोग भाग लेते हैं। इनमें सर्वाधिक महत्व का त्यौहार है, [[नन्दारथ देवी लोकजातयात्रा]], जो [[भाद्रपद|भाद्रपद मासआषाढ]] [[शुक्ल पक्ष]] की [[अष्टमीद्वितीया]] को, तदनुसार लगभग [[अगस्तजून]] या [[सितंबरजुलाई]] माह में आयोजित होता है। इस उत्सव में दोनोंतीनों मूर्तियों को अति भव्य और विशाल डोलीरथों में सुसज्जित होकर, यात्रा पर निकालते हैं।<ref>{{cite यह यात्रा २८० किलोमीटर लम्बी होती है। इसको लाखो लोग शरीक होते है।web
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|title=जगन्नाथ टेम्पल ऐट पुरी
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|archive-date=2 जनवरी 2010
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}}</ref>।यह यात्रा ५ किलोमीटर लम्बी होती है। इसको लाखो लोग शरीक होते है।
 
== वर्तमान मंदिर ==
इस मंदिर के पुजारी कन्याकुब्जीय गौड़ ब्राह्मण हैं। दशोली धड़े के पुजारियों को कोर्ट द्वारा मंदिर के मुख्य पुजारी घोषित किया गया। एवं पश्वा ( नंदा के अवतारी पुरुष) [[श्यामा दत्त गौड़]] पुत्र अचलानंद गौड़ तथा उनके वंशज को घोषित गया है।
आधुनिक काल में, यह मंदिर काफी व्यस्त और सामाजिक एवं धार्मिक आयोजनों और प्रकार्यों में व्यस्त है। जगन्नाथ मंदिर का एक बड़ा आकर्षण यहां की रसोई है। यह रसोई भारत की सबसे बड़ी रसोई के रूप में जानी जाती है। इस विशाल रसोई में भगवान को चढाने वाले महाप्रसाद को तैयार करने के लिए ५०० रसोईए तथा उनके ३०० सहयोगी काम करते हैं।<ref name="श्री जगन्नाथ">{{cite web|url=http://www.odissi.com/orissa/jagannath.htm|title=श्री जगन्नाथ|publisher=|archive-url=https://web.archive.org/web/20080724193307/http://www.odissi.com/orissa/jagannath.htm|archive-date=24 जुलाई 2008|accessdate=2006-09-12|url-status=dead}}</ref>
 
इस मंदिर में प्रविष्टि प्रतिबंधित है। इसमें गैर-हिन्दू लोगों का प्रवेश सर्वथा वर्जित है।<ref>{{cite web
=== अध्यक्ष ===
|url=http://www.iskcon.com/culture/holy_places/j_puri.html
वर्तमान में नन्दा देवी सिद्धपीठ कुरुड़ के अध्यक्ष सभी गांव की बैठक में श्री सुखबीर सिंह रौतेला जी को घोषित किया गया।
|title=जगन्नाथपुरी
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|accessdate=2006-09-12
|archive-url=https://web.archive.org/web/20060715031144/http://www.iskcon.com/culture/holy_places/j_puri.html
|archive-date=15 जुलाई 2006
|url-status=dead
}}</ref> पर्यटकों की प्रविष्टि भी वर्जित है। वे मंदिर के अहाते और अन्य आयोजनों का दृश्य, निकटवर्ती रघुनंदन पुस्तकालय की ऊंची छत से अवलोकन कर सकते हैं।<ref>{{cite web
|url = http://www.planetware.com/puri/jagannath-temple-ind-oris-jag.htm
|title = पुरी - जगन्नाथ टेम्पल
|access-date = 13 अगस्त 2008
|archive-url = https://web.archive.org/web/20120306041508/http://www.planetware.com/puri/jagannath-temple-ind-oris-jag.htm
|archive-date = 6 मार्च 2012
|url-status = dead
}}</ref> इसके कई प्रमाण हैं, कि यह प्रतिबंध, कई विदेशियों द्वारा मंदिर और निकटवर्ती क्षेत्रों में घुसपैठ और श्रेणिगत हमलों के कारण लगाये गये हैं। [[बौद्ध]] एवं [[जैन]] लोग मंदिर प्रांगण में आ सकते हैं, बशर्ते कि वे अपनी भारतीय वंशावली का प्रमाण, मूल प्रमाण दे पायें।<ref>{{cite web
|url=http://www.odissi.com/orissa/jagannath.htm
|title=जगन्नाथ टेम्पल
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|accessdate=2006-09-12
|archive-url=https://web.archive.org/web/20080724193307/http://www.odissi.com/orissa/jagannath.htm
|archive-date=24 जुलाई 2008
|url-status=dead
}}</ref> मंदिर ने धीरे-धीरे, गैर-भारतीय मूल के लेकिन हिन्दू लोगों का प्रवेश क्षेत्र में स्वीकार करना आरम्भ किया है। एक बार तीन [[बाली]] के हिन्दू लोगों को प्रवेश वर्जित कर दिया गया था, जबकि [[बाली]] की ९०% जनसंख्या हिन्दू है।<ref>[http://www.telegraphindia.com/1071108/asp/nation/story_8524891.asp पुरी तेम्पल्क ऐट हिन्दूग गैफे] {{Webarchive|url=https://web.archive.org/web/20160304115618/http://www.telegraphindia.com/1071108/asp/nation/story_8524891.asp |date=4 मार्च 2016 }} द टेलीग्राफ़, कलकत्ता- नवंबर ०८, २००७</ref> तब निवेदन करने पर भविष्य के लिए में स्वीकार्य हो गया।
 
=== उत्सवसन्दर्भ ===
यहां विस्तृत दैनिक पूजा-अर्चनाएं होती हैं। यहां कई वार्षिक त्यौहार भी आयोजित होते हैं, जिनमें सहस्रों लोग भाग लेते हैं। इनमें सर्वाधिक महत्व का त्यौहार है, [[नन्दा देवी लोकजात]], जो [[भाद्रपद|भाद्रपद मास]] [[शुक्ल पक्ष]] की [[अष्टमी]] को, तदनुसार लगभग [[अगस्त]] या [[सितंबर]] माह में आयोजित होता है। इस उत्सव में दोनों मूर्तियों को अति भव्य और विशाल डोली में सुसज्जित होकर, यात्रा पर निकालते हैं। यह यात्रा २८० किलोमीटर लम्बी होती है। इसको लाखो लोग शरीक होते है।
 
== वर्तमान मंदिर ==
आधुनिक काल में, यह मंदिर काफी व्यस्त और सामाजिक एवं धार्मिक आयोजनों और प्रकार्यों में व्यस्त है। नन्दा देवी सिद्धपीठ कुरुड़ मंदिर का एक बड़ा आकर्षण यहां की शिलामूर्ति और उत्सव डोली है। यह मंदिर भारत के सबसे पुराने और मूल नंदा देवी के मंदिर के रूप में जाना जाता है। इस मंदिर में भगवती नंदा को चढाने वाले महाप्रसाद में आटे के पूए बनाए जाते हैं। प्रतिदिन पुजारी नहा धोकर भगवती नंदा का महाप्रसाद बनाते हैं। फिर भगवती नंदा का प्रत्येक दिन नंदाभिषेक करते हैं । साल भर महानंदा देवी मंदिर के कपाट खुले रहते हैं।