"खंड-११": अवतरणों में अंतर

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11:56, 1 सितंबर 2007 का अवतरण

रश्मिरथी / सप्तम सर्ग / भाग 7 From Hindi Literature Jump to: navigation, search लेखक: रामधारी सिंह "दिनकर"

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'जहर की कीच में ही आ गये जब , कलुष बन कर कलुष पर छा गये जब , दिखाना दोष फिर क्या अन्य जन में , अहं से फूलना क्या व्यर्थ मन में ?

सुयोधन को मिले जो फल किये का , कुटिल परिणाम द्रोहानल पिये का , मगर, पाण्डव जहां अब चल रहे हैं , विकट जिस वासना में जल रहे हैं ,

अभी पातक बहुत करवायेगी वह , उन्हें जानें कहां ले जायेगी वह . न जानें, वे इसी विष से जलेंगे , कहीं या बर्फ में जाकर गलेंगे .

सुयोधन पूत या अपवित्र ही था , प्रतापी वीर मेरा मित्र ही था . किया मैंने वही, सत्कर्म था जो , निभाया मित्रता का धर्म था जो .

नहीं किञ्चित् मलिन अन्तर्गगन है , कनक-सा ही हमारा स्वच्छ मन है ; अभी भी शुभ्र उर की चेतना है , अगर है, तो यही बस, वेदना है .

वधूजन को नहीं रक्षण दिया क्यों ? समर्थन पाप का उस दिन किया क्यों ? न कोई योग्य निष्कृति पा रहा हूं , लिये यह दाह मन में जा रहा हूं .

विजय दिलवाइये केशव! स्वजन को , शिथिल, सचमुच, नहीं कर पार्थ! मन को . अभय हो बेधता जा अंग अरि का , द्विधा क्या, प्राप्त है जब संग हरि का !

मही! लै सोंपता हूं आप रथ मैं , गगन में खोजता हूं अन्य पथ मैं . भले ही लील ले इस काठ को तू , न पा सकती पुरुष विभ्राट को तू .

महानिर्वाण का क्षण आ रहा है, नया आलोक-स्यन्दन आ रहा है ; तपस्या से बने हैं यन्त्र जिसके, कसे जप-याग से हैं तन्त्र जिसके ; जुते हैं कीर्त्तियों के वाजि जिसमें, चमकती है किरण की राजि जिसमें ; हमारा पुण्य जिसमें झूलता है, विभा के पद्म-सा जो फूलता है .

रचा मैनें जिसे निज पुण्य-बल से, दया से, दान से, निष्ठा अचल से ; हमारे प्राण-सा ही पूत है जो, हुआ सद्धर्म से उद्भूत है जो ; न तत्त्वों की तनिक परवाह जिसको, सुगम सर्वत्र ही है राह जिसको ; गगन में जो अभय हो घूमता है, विभा की ऊर्मियों पर झूमता है .

अहा! आलोक-स्यन्दन आन पहंुचा , हमारे पुण्य का क्षण आन पहुंचा . विभाओ सूर्य की! जय-गान गाओ , मिलाओ, तार किरणों के मिलाओ .

प्रभा-मण्डल! भरो झंकार, बोलो ! जगत् की ज्योतियो! निज द्वार खोलो ! तपस्या रोचिभूषित ला रहा हंू , चढा मै रश्मि-रथ पर आ रहा हंू .

गगन में बध्द कर दीपित नयन को , किये था कर्ण जब सूर्यस्थ मन को , लगा शर एक ग्रीवा में संभल के , उड़ी ऊपर प्रभा तन से निकल के !

गिरा मस्तक मही पर छिन्न होकर ! तपस्या-धाम तन से भिन्न होकर. छिटक कर जो उडा आलोक तन से , हुआ एकात्म वह मिलकर तपन से !

उठी कौन्तेय की जयकार रण में , मचा घनघोर हाहाकार रण में . सुयोधन बालकों-सा रो रहा था ! खुशी से भीम पागल हो रहा था !

फिरे आकाश से सुरयान सारे , नतानन देवता नभ से सिधारे . छिपे आदित्य होकर आर्त्त घन में , उदासी छा गयी सारे भुवन में .

रश्मिरथी / सप्तम सर्ग / भाग 8 From Hindi Literature Jump to: navigation, search लेखक: रामधारी सिंह "दिनकर"

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युधिष्ठिर प्राप्त कर निस्तार भय से , प्रफुल्लित हो, बहुत दुर्लभ विजय से , दृगों में मोद के मोती सजाये , बडे ही व्यग्र हरि के पास आये .

कहा, केशव! बडा था त्रास मुझको , नहीं था यह कभी विश्वास मुझको , कि अर्जुन यह विपद भी हर सकेगा , किसी दिन कर्ण रण में मर सकेगा .

इसी के त्रास में अन्तर पगा था , हमें वनवास में भी भय लगा था . कभी निश्चिन्त मैं क्या हो सका था ? न तेरह वर्ष सुख से सो सका था .

बली योध्दा बडा विकराल था वह ! हरे! कैसा भयानक काल था वह ? मुषल विष में बुझे थे, बाण क्या थे ! शिला निर्मोघ ही थी, प्राण क्या थे !

मिला कैसे समय निर्भीत है यह ? हुई सौभाग्य से ही जीत है यह ? नहीं यदि आज ही वह काल सोता , न जानें, क्या समर का हाल होता ?

उदासी में भरे भगवान् बोले , न भूलें आप केवल जीत को ले . नहीं पुरुषार्थ केवल जीत में है . विभा का सार शील पुनीत में है .

विजय, क्या जानिये, बसती कहां है ? विभा उसकी अजय हंसती कहां है ? भरी वह जीत के हुङकार में है , छिपी अथवा लहू की धार में है ?

हुआ जानें नहीं, क्या आज रण में ? मिला किसको विजय का ताज रण में ? किया क्या प्राप्त? हम सबने दिया क्या ? चुकाया मोल क्या? सौदा लिया क्या ?

समस्या शील की, सचमुच गहन है . समझ पाता नहीं कुछ क्लान्त मन है . न हो निश्चिन्त कुछ अवधानता है . जिसे तजता, उसी को मानता है .

मगर, जो हो, मनुज सुवरिष्ठ था वह . धनुर्धर ही नहीं, धर्मिष्ठ था वह . तपस्वी, सत्यवादी था, व्रती था , बडा ब्रह्मण्य था, मन से यती था .

हृदय का निष्कपट, पावन क्रिया का , दलित-तारक, समुध्दारक त्रिया का . बडा बेजोड दानी था, सदय था , युधिष्ठिर! कर्ण का अद्भुत हृदय था .

किया किसका नहीं कल्याण उसने ? दिये क्या-क्या न छिपकर दान उसने ? जगत् के हेतु ही सर्वस्व खोकर , मरा वह आज रण में नि:स्व होकर .

उगी थी ज्योति जग को तारने को . न जनमा था पुरुष वह हारने को . मगर, सब कुछ लुटा कर दान के हित , सुयश के हेतु, नर-कल्याण के हित .

दया कर शत्रु को भी त्राण देकर , खुशी से मित्रता पर प्र्राण देकर , गया है कर्ण भू को दीन करके , मनुज-कुल को बहुत बलहीन करके .

युधिष्ठिर! भूलिये, विकराल था वह , विपक्षी था, हमारा काल था वह . अहा! वह शील में कितना विनत था ? दया में, धर्म में कैसा निरत था !

समझ कर द्रोण मन में भक्ति भरिये , पितामह की तरह सम्मान करिये . मनुजता का नया नेता उठा है . जगत् से ज्योति का जेता उठा है !