"हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन": अवतरणों में अंतर

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'''हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन''' (HSRA), हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन 1928 तक के रूप में जाना जाता था , भारतीय स्वतंत्रता के लिए सशस्त्र संघर्ष के माध्यम से ब्रिटिश राज को उखाड़ फेंकने के लिए गठित संगठन था.
==सदस्य==
* भगत सिह्
*[[राम प्रसाद बिस्मिल]]।
*योगेश चन्द्र चटर्जी,
*प्रेम कृष्ण खन्ना,
*Mukundi लाल,
*राम विष्णु शरण ,
*सुरेश चंद्र ,
*कृष्णा खत्री,
*मन्मथ नाथ् गुप्ता,
*राज कुमार सिन्हा
*ठाकुर रोशन सिंह
*पंडित राम प्रसाद बिस्मिल,
*राजेंद्रनाथ लाहिड़ी
*गोविन्द चरण कर,
*राम दुल्हारे त्रिवेदी
*राम नाथ पांडे
*सचेन्द्र नाथ् सान्याल
*भुपेन्द्र नाथ् सान्याल
*प्रन्वेश् कुमार चटर्जी।
==१ हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोशिएशन का घोषणा पत्र ==
*हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोशिएशन का घोषणा पत्र के कुछ अंश
 
 
 
(लाहौर कांग्रेस में बांटे गए इस दस्तावेज़ को मुख्य तौर पर भगवतीचरण वोहरा ने लिखा था. जब वे वितरित किया गया तो सीआईडी के हाथ लग गया और उसी के कागज़ों से इसकी प्रति मिली.)
 
 
 
स्वतंत्रता का पौधा शहीदों के रक्त से फलता है. भारत में स्वतंत्रता का पौधा फलने के लिए दशकों से क्रांतिकारी अपना रक्त बहाते रहे हैं. बहुत कम लोग हैं जो उनके मन में पाले हुए आदर्शों की उच्चता तथा उनके महान बलिदानों पर प्रश्नचिन्ह लगाएं, लेकिन उनकी कार्यवाहियाँ गुप्त होने की वजह से उनके वर्तमान इरादे और नीतियों के बारे में देशवासी अंधेरे में हैं, इसलिए हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन ने यह घोषणापत्र जारी करने की आवश्यकता महसूस की है......
 
 
 
......विदेशियों की गुलामी से भारत की मुक्ति के लिए ये एसोसिएशन सशस्त्र संगठन द्वारा भारत में क्रांति के लिए दृढ़ संकल्प है...... क्रांति कोई मायूसी से पैदा हुआ दर्शन भी नहीं है और न ही सरफ़रोशो का कोई सिद्धांत है. क्रांति ईश्वर विरोधी हो सकती है, लेकिन मनुष्य विरोधी नहीं. यह एक पुख़्ता और जिंदा ताकत है. नए और पुराने के, जीवन और जिंदा मौत के, रोशनी और अंधेरे के आंतरिक द्वंद का प्रदर्शन है, कोई संयोग नहीं........
==१।१ नौजवान ग़ैर-जिम्मेदार नहीं’ ==
.हमारे देश के नौज़वानों ने इस सत्य को पहचान लिया है. उन्होंने बहुत कठिनाइयाँ सहते हुए यह सबक सीखा है कि क्रांति के बिना- अफ़रा-तफ़री, क़ानूनी गुण्डागर्दी और नफ़रत की जगह, जो आजकल हर ओर फैली हुई है - व्यवस्था, क़ानूनपरस्ती और प्यार स्थापित नहीं किया जा सकता.
 
 
 
हमारी आर्शीवाद-भरी धरती पर किसी को ऐसा विचार नहीं आना चाहिए कि हमारे नौजवान ग़ैर-ज़िम्मेदार हैं. वे पूरी तरह जानते हैं कि वे कहां खड़े हैं. उनसे बढ़कर किसे मालूम है कि उनकी राह कोई फूलों की सेज नहीं है. समय-समय पर उन्होंने अपने आदर्शों के लिए बहुत बड़ी क़ीमत चुकाई है.इस कारण यह किसी के मुंह से नहीं निकलना चाहिए कि नौजवान उतावलेपन में किन्ही मामूली बातों के पीछे लगे हुए हैं.
 
 
 
यह कोई अच्छी बात नहीं है कि हमारे आदर्शों पर कीचड़ उछाला जाता है. यह काफ़ी होगा अगर आप जानें कि हमारे विचार बेहद मज़बूत और तेज़-तर्रार हैं जो न सिर्फ़ हमें आगे बढ़ाए रखते हैं बल्कि फांसी के तख़्ते पर भी मुस्कराने की हिम्मत देते हैं...........
==१।२‘महात्मा गांधी का ढंग नामंज़ूर’ ==
आजकल यह फ़ैशन हो गया है कि अहिंसा के बारे में अंधाधुंध और निरर्थक बात की जाए.महात्मा गांधी महान हैं और हम उनके सम्मान पर कोई भी आंच नहीं आने देना चाहते, लेकिन हम यह दृढ़ता से कह सकते हैं कि हम देश को स्वतंत्र कराने के उनके ढंग को पूर्णतया नामंजूर करते हैं.
 
 
 
यदि हम देश में चलाए जा रहे उनके असहयोग आंदोलन द्वारा लोक जागृति में उनकी भागीदारी के लिए उनकों सलाम न करें तो यह हमारे लिए बड़ा नाशुक्रापन होगा. परंतु हमारे लिए महात्मा असंभवताओं का एक दार्शनिक हैं. अहिंसा भले ही एक नेक आदर्श है, लेकिन यह अतीत की चीज़ है.
 
 
 
जिस स्थिति में आज हम हैं, सिर्फ़ अहिंसा के रास्ते से कभी भी आज़ादी प्राप्त नहीं कर सकते. दुनिया सिर तक हथियारों से लैस है और (ऐसी) दुनिया हम पर हावी है. अमन की सारी बातें ईमानदार हो सकती हैं, लेकिन हम जो गुलाम क़ौम हैं, हमें झूठे सिद्धांतों के ज़रिए अपने रास्ते से नहीं भटकना चाहिए. हम पूछते हैं कि जब दुनिया का वातावरण हिंसा की लूट और ग़रीब की लूट से भरा हुआ है, तब देश को अहिंसा के रास्ते पर चलाने का क्या तुक है? हम अपने पूरे ज़ोर के साथ कहते हैं कि क़ौम के नौजवान कच्ची नींद के ऐसे सपनों से रिझाए नहीं जा सकते.............
 
 
 
........भारत साम्राज्यावाद के जुए के नीचे पिस रहा है. इसमें करोड़ों लोग आज अज्ञानता और ग़रीबी के शिकार हो रहे हैं. भारत की बहुत बड़ी जनसंख्या जो मज़दूरों और किसानों की है, उनको विदेशी दबाव एवं आर्थिक लूट ने पस्त कर दिया है. भारत के मेहनतकश वर्ग की हालत आज बहुत गंभीर है. उसके सामने दोहरा ख़तरा है - विदेशी पूंजीवाद का एक तरफ़ से और भारतीय पूंजीवाद के धोखे भरे हमले का दूसरी तरफ़ से ख़तरा है. भारतीय पूंजीवाद विदेशी पूंजी के साथ रोज़ाना बहुत से गठजोड़ कर रहा है. कुछ राजनैतिक नेताओं का डोमिनयन (प्रभुतासंपन्न) का रूप स्वीकार करना भी हवा को इसी रुख़ को स्पष्ट करता है.
 
 
 
भारतीय पूंजीपति भारतीय लोगों को धोखा देकर विदेशी पूंजीपति से विश्वासघात की कीमत के रूप में सरकार में कुछ हिस्सा प्राप्त करना चाहता है. इसी कारण मेहनतकश की तमाम आशाएं अब सिर्फ़ समाजवाद पर टिकी हैं और सिर्फ़ यही पूर्ण स्वराज और सब भेदभाव खत्म करने में सहायक हो सकता है.
 
 
 
करतार सिंह
 
अध्यक्ष
 
रिपब्लिकन प्रेस, अरहवन,
 
 
 
==उतपन्न्==
==सन्दर्भ==
www.bbc.co.uk/hindi/specials/142.../page7.shtml <br />http://suchanroshan.blogspot.com/2010/03/blog-post_4123.html
 
([[User:Rahul kaushik|Rahul kaushik]] ([[User talk:Rahul kaushik|वार्ता]]) 06:09, 9 अक्टूबर 2011 (UTC))