"गीत": अवतरणों में अंतर

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प्राचीन समय में जिस गान में सार्थक शब्दों के स्थान पर निरर्थक या शुष्काक्षरों का प्रयोग होता था वह निर्गीत या बहिर्गीत कहलाता था। तनोम, तननन या दाड़ा दिड़ दिड़ या दिग्ले झंटुं झंटुं इत्यादि निरर्थक अक्षरवला गान निर्गीत कहलाता था। आजकल का तराना निर्गीत की कोटि में आएगा।
 
[[भरत]] के समय में गीति के आधारभूत नियत पदसमूह को ध्रुवा कहते थे। [[नाटक]] में प्रयोग के अवसरों में भेद होने के कारण पाँच प्रकार के ध्रुवा होते थे - प्रावंशिकी, नैष्क्रामिकी, आक्षेपिकी, प्रासदिकी और अंतरा।
 
स्वर और ताल में जो बँधे हुए गीत होते थे वे लगभग 9वीं 10वीं सदी से प्रबंध कहलाने लगे। प्रबंध का प्रथम भाग, जिससे गीत का प्रारंभ होता था, उद्ग्राह कहलाता था, यह गीत का वह अंश होता था जिसे बार बार दुहराते थे और जो छोड़ा नहीं जा सकता था। ध्रुव शब्द का अर्थ ही है ‘निश्चित, स्थिर’। इस भाग को आजकल की भाषा में टेक कहते हैं।
"https://hi.wikipedia.org/wiki/गीत" से प्राप्त