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'''कंचनजंघा''' ([[नेपाली भाषा|नेपाली]]:कञ्चनजङ्घा ''Kanchanjaŋghā''), ([[लिम्बू]]: '''सेवालुंगमा''') विश्व की तीसरी सबसे ऊँची [[पर्वत चोटी]] है, यह [[सिक्किम]] के उत्तर पश्चिम भाग में [[नेपाल]] की सीमा पर है।
==नाम की उत्पत्ति==
'''कंचनजंघा''' नाम की उत्पत्ति तिब्बती मूल के चार शब्दों से हुयी है, जिन्हें आमतौर पर कांग-छेन-दजों-ङ्गा या यांग-छेन-दजो-ङ्गा लिखा जाता है । [[सिक्किम]] में इसका अर्थ '''विशाल हिम की पाँच निधियाँ ''' लगाया जाता है । [[नेपाल]] में यह कुंभकरन लंगूर कहलाता है ।
==भौगोलिक स्थिति==
यह विश्व तीसरा सबसे ऊंचा पहाड़ है । इसकी ऊंचाई 8,586 मीटर है । यह [[दार्जिलिंग]] से 74 की.मी. उत्तर -पश्चिमोत्तर में स्थित है । साथ ही यह [[सिक्किम]] व [[नेपाल]] की सीमा को छूने वाले [[भारतीय]] [[प्रदेश]] में [[हिमालय]] पर्वत श्रेणी का एक हिस्सा है । कंचनजंगा पर्वत का आकार एक विशालकाय सलीब के रूप में है,जिसकी भुजाएँ उत्तर,दक्षिण,पूर्व और पश्चिम में स्थित है । अलग-अलग खड़े शिखर अपने निकटवर्ती शिखर से चार मुख्य पर्वतीय कटकों द्वारा जुड़े हुये हैं, जिनसे होकर चार हिमनद बहते हैं - जेमु (पूर्वोत्तर),तालूङ्ग (दक्षिण-पूर्व), यालुंग(दक्षिण-पश्चिम) और कंचनजंगा (पश्चिमोत्तर) ।
 
==पौराणिक कथाओं में==
पौराणिक कथाओं और स्थानीय निवासियों के धार्मिक अनुष्ठानों में इस पर्वत का महत्वपूर्ण स्थान है । इसकी ढलान किसी प्राथमिक सर्वेक्षण से सदियों पहले चरवाहों और व्यापारियों के लिए जानी-पहचानी थी ।
 
==इतिहास==
कंचनजंगा का पहला मानचित्र 19 वीं शताब्दी के मध्य में एक विद्वान अन्वेषणकर्ता रीनजिन नांगयाल ने इसका परिपथात्मक मानचित्र तैयार किया था । [[1848]] व [[1849]] में एक वनस्पतिशास्त्री सर जोजेफ हुकर इस क्षेत्र में आने वाले और इसका वर्णन करने वाले पहले यूरोपीय थे । [[1899]] में अन्वेषणकर्ता -पर्वतारोही डगलस फ्रेशफ़ील्ड ने इस पर्वत की परिक्रमा की । [[1905]] में एक एंग्लो-स्विस दल ने प्रस्तावित यालुंग घाटी मार्ग से जाने का प्रयास किया और इस अभियान में हिंसखलन होने से दल के चार सदस्यों की मृत्यु हो गयी ।
बाद में पर्वतारोहियों ने इस पर्वत समूह के अन्य हिस्सों की खोज की । [[1929]] और [[1931]] में पोल बोएर के नेतृत्व में एक बाबेरियाई अभियान दल ने जेमु की ओर से इसपर चढ़ाई का असफल प्रयास किया । [[1930]] में गुंटर वो डीहरेन फर्थ ने कंचनजंगा हिमनद की ओर से चढ़ने की कोशिश की । इन अन्वेषणों के दौरान [[1931]] में उस समय तक हासिल की गयी सर्वाधिक ऊंचाई 7,700 मीटर थी । इन अभियानों में से दो के दौरान घातक दुर्घटनाओं ने इस पर्वत को असमान्य रूप से खतरनाक और कठिन पर्वत का नाम दे दिया । इसके बाद [[1954]] तक इस पर चढ़ने का कोई प्रयास नहीं किया गया । फिर [[नेपाल]] स्थित यालुंग की ओर से इस पर ध्यान केन्द्रित किया गया । [[1951]],[[1953]] और [[1954]] में गिलमोर लीवाइस की यालुंग यात्राओं के फलस्वरूप [[1955]] में रॉयल ज्योग्राफ़िकल सोसायटी और एलपाईं क्लब ([[लंदन]]) के तत्वावधान में चार्ल्स इवान के नेतृत्व में ब्रिटिश अभियान दल ने इस पर चढ़ने का प्रयास किया और वे [[सिक्किम]] के लोगों के धार्मिक विश्वासों और इच्छाओं का आदर कराते हुये मुख्य शिखर से कुछ कदम की दूरी पर ही रुक गए ।
==सन्दर्भ==
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