"वरंगल": अवतरणों में अंतर
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== उत्पत्ति ==
== इतिहास ==
11वीं शती ई. से 13वीं शती ई. तक
ककातीय राजा गणपति ने इसकी नींव डाली और 1261 ई. में रुद्रमा देवी ने इसे पूरा करवाया था। क़िले के बीच में स्थित एक विशाल मन्दिर के खण्डहर मिले हैं, जिसके चारों ओर चार तोरण द्वार थे। साँची के स्तूप के तोरणों के समान ही इन पर भी उत्कृष्ट मूर्तिकारी का प्रदर्शन किया गया है। क़िले की दो भित्तियाँ हैं। अन्दर की भित्ति पत्थर की और बाहर की मिट्टी की बनी है। बाहरी दीवार 72 फुट चौड़ी और 56 फुट गहरी खाई से घिरी है। हनमकोंडा से 6 मील दक्षिण की ओर एक तीसरी दीवार के चिह्न भी मिलते हैं। एक इतिहास लेखक के अनुसार परकोटे की परिधि तीस मील की थी। जिसका उदाहरण भारत में अन्यत्र नहीं है। क़िले के अन्दर अगणित मूर्तियाँ, अलंकृत प्रस्तर-खंड, अभिलेख आदि प्राप्त हुए हैं। जो शितावख़ाँ के दरबार भवन में संगृहीत हैं। इसके अतिरिक्त अनेक छोटे बड़े मन्दिर भी यहाँ स्थित हैं। अलंकृत तोरणों के भीतर नरसिंह स्वामी, पद्याक्षी और गोविन्द राजुलुस्वामी के प्राचीन मन्दिर हैं। इनमें से अन्तिम एक ऊँची पहाड़ी के शिखर पर अवस्थित है। यहाँ से दूर-दूर तक का मनोरम दृश्य दिखलाई देता है।
12वीं 13वीं शती का एक विशाल मन्दिर भी यहाँ से कुछ दूर पर है, जिसके आँगन की दीवार दुहरी तथा असाधारण रूप से स्थूल है। यह विशेषता ककातीय शैली के अनुरूप ही है। इसकी बाहरी दीवार में तीन प्रवेशद्वार हैं, जो
== शासन काल ==
रुद्रमादेवी ने 36 वर्ष तक बड़ी योग्यता से राज्य किया। उसे रुद्रदेव महाराज कहकर संबोधित किया जाता था। प्रतापरुद्र (शासन काल 1296-1326 ई.) रुद्रमा दोहित्र था। इसने पाण्डयनरेश को हराकर काँची को जीता। इसने छः बार मुसलमानों के आक्रमणों को विफल किया, किन्तु 1326 ई. में उलुगख़ाँ ने जो पीछे मुहम्मद बिन तुग़लक़ नाम से दिल्ली का सुल्तान हुआ, ककातीय के राज्य की समाप्ति कर दी। उसने प्रतापरुद्र को बन्दी बनाकर दिल्ली ले जाना चाहा था किन्तु मार्ग में ही नर्मदा नदी के तट पर इस स्वाभिमानी और वीर पुरुष ने अपने प्राण त्याग कर दिए। ककातीयों के शासनकाल में
== उद्योग और व्यापार ==
== शिक्षण संस्थान ==
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== जनसंख्या ==
2001 की गणना के अनुसार
== सन्दर्भ ==
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